: मासूम बच्चों को नैतिकता का लॉलीपॉप थमाने वाले शिक्षक शिक्षाधिकारियों के दफ्तर से लेकर घर तक गिड़गिड़ाते दिखते हैं : प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों को अपना आधा वेतन सीएमओ को देना होता है : कमाई वाली कुर्सी हासिल करने के लिए होड़ होती है सरकारी विभागों में :
कुमार सौवीर
लखनऊ : ( पिछले अंक से आगे ) अब आइए शिक्षा विभाग। मनकापुर गोंडा में एक संस्कृत महाविद्यालय के रह चुके एक प्राचार्य की उम्र इस समय 65 साल के ऊपर है। जीवन भर कभी भी उन्होंने न कालेज का मुंह देखा, और न ही नौकरी। शिक्षा, जीवन और आदर्शों के साथ केवल दुराचार ही करते रहे। लेकिन आज 39,000 रुपए महीने की पेंशन हासिल करते हैं। इतना भी नहीं कर पाए कि अपनी पेंशन की भी भाग दौड़ कर पाते। उनके तीन भाई भी शिक्षा विभाग में रहे, पेंशन मोटी पाते हैं, लेकिन नौकरी कभी नहीं की। मगर आज भी अपने अफसरों और देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को पानी पी-पी कर गरियाते रहते हैं।
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सीतापुर में एक जूनियर हाई स्कूल की एक शिक्षका बेसिक शिक्षा अधिकारी के बड़े बाबू के यहां गिड़गिड़ा रही थीं। सरेआम, दिन-दहाड़े। उनका दर्द गजब था, और अंदाज लाजवाब। वे शिकायत में अपनी बात कह रही थीं कि:- बाबू जी, जितने माश्टर रहे, जब का तुम प्रिगनेंट कए दिहे हौ। खाली हमहूं बेकार मा परेसान हन। हमहूं का प्रिगनेंट करि द्यौ बाबू जी। जतना पैसा कहो, हमहू दइ देबै, मुला अब परेसान न करो बाबू जी, आज तो प्रिगनेंट करि द्यौ। तुम्हारा गोड़ धरित है। बहुत परेसानी चल रही है बाबू जी।
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वह तो बाद में पता चला कि यह मामला उस महिला शिक्षिका को प्रेगनेंट करने-कराने का नहीं, बल्कि सर्विस में परमानेंट को लेकर परेशान है, ताकि उसे दिक्कतों का सामना न करना पड़े। बहराइच के विश्वेश्वरगंज के बालिका जूनियर हाईस्कूल की मास्टर रहीं और मंसूरगंज की रहने वाली मीना बुशरा अंसारी की उम्र आज 70 साल की है। लेकिन रिटायरमेंट के कई बरस तक उन्हें पेंशन ही नहीं मिली, दीगर बकाया भी लटके रहे। वे गिड़गिड़ाती ही रहीं, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। आखिरकार पूरा 36 हजार रूपयों की घूस के बाद ही वे मुक्त हो पायीं।
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आप किसी भी पुलिस ऑफिस में जाइए या होमगार्ड में ड्यूटी लगाने वाले अफसर के पास जाइए। वह बिना पैसे कि कोई भी काम नहीं करेगा। और ड्यूटी मिलने के बाद केवल उगाही करना शुरू कर देगा। एक बाइक पर तीन लोग होंगे, तो पांच सौ का नोट जेब से निकल कर पुलिसवाले की जेब तक पहुंच जाना अनिवार्य है, लेकिन अधिकांश पुलिसवाले हमेशा अपराध और उगाही ही करते हैं। बिना रूपयों के बात तक नहीं करते। थाने पर जाने का मतलब अभद्रता, गालियों से मुलाकात, बेइज्जती के साथ ही साथ भारी-भरकम खर्च ही होता है।(क्रमश:)
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बेईमानी और भ्रष्टाचार हमारे देश या समाज में नहीं, बल्कि हमारे-आपके जैसे हर देशवासी के दिल-दिमाग में धंसा-घुसा है। जहां धोखा और झगड़ों की नित-नयी कोंपलें निकलती रहती हैं, नैतिकता के नये रास्ते खुलते रहते हैं।
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