आओ वक्‍त रहते शिकवे-गिले मिटा लें… क्‍या पता ! कल हो, न हो

दोलत्ती

: न जाने कौन कब हमारी जिन्‍दगी की किताब से अपना पन्‍ना फाड़ कर चला जाए : कई बार खबरें जब रोने पर मजबूर कर रही हैं : मैं खिड़की से दुहरे मास्‍क लगाकर प्‍लेट में सुबह-शाम ऐसे खाना डालती हूं मानो वह कोई अस्‍पृश्‍य हो:

साशा सौवीर

नई दिल्‍ली : ‘आज एक हंसी और बांट लो, आज एक दुनिया और मांग लो, आज एक आंसू और पी लो, आज एक जिंदगी और जी लो, आज एक सपना और देख लो…क्‍या पता, कल हो न हो’

2003 में आई शाहरुख खान और प्रीटि जिंटा की फिल्‍म ‘कल हो न हो’ का ये डायलॉग कई दिनों से दिमाग में चकरघिन्‍नी की तरह घूम रहा है। आपको नहीं लगता कि स्थितियां ऐसी ही बन चुकी हैं कि क्‍या पता कल का सूरज हम देखें या न देख पाएं, ढलती हुई शाम को शायद निहार ही न सकें, अपने बच्‍चों-घरवालों के साथ बैठकर रोटी का निवाला उन्‍हें शायद खिला ही न पाएं। कहीं ऐसा न हो कि शीशे के इस पार हम हों और उस पार हमारा परिवार हमारी सलामती की दुआएं करता रहे, और हम केवल आंसू बहाते रह जाएं कि कब यह कोरोना हमारे गले से उतरे, कब हम अपनों को फिर से गले लगा पाएं।

नहीं, मेरा मकसद आपको बिलकुल डराने का नहीं है, मैं तो खुद यहां अपने सबसे प्‍यारे मित्र जो कि मेरे पति भी हैं, को इस बीमारी से जूझते हुए महसूस कर रही हूं। छोटे से घर के एक छोटे कमरे में बंद है वह, और मैं खिड़की से दुहरे मास्‍क लगाकर उनकी प्‍लेट में सुबह-शाम ऐसे खाना डालती हूं मानो वह कोई अस्‍पृश्‍य हो। कई बार खबरें जब रोने पर मजबूर कर रही हैं तो फोन को किनारे रख मैं प्रभु को याद कर बस इतना ही कहती हूं, कि सौमित्र ठीक हो जाए।

इस दौरान बार-बार मुझे बीते साल का नवंबर याद आ रहा है। जब मैं लखनऊ में खुश मन घरवालों के साथ दीपावली मनाने गई थी और कमबख्‍त कोरोना ने जकड़ लिया था, इत्‍तेफाक से तब मैं पापा के यहां अलीगंज में थी। 14 दिन वहीं क्‍वारंटाइन रही। शुक्र है कि मैं अलीगंज में थी, क्‍योंकि उन 14 दिन पापा ने मेरी जितनी सेवा की, मुझे कहने में कोई गुरेज या भय नहीं, कि उतनी सेवा मेरी कोई कर ही नहीं सकता था। शायद उन दिनों पापा भी अकेले बैठे वैसे ही सुबके होंगे, जैसे कि मैं अभी सुबक रही हूं।
पिछले साल 29 सितंबर मैंने अपने चाचा-ससुर को भी कोरोना से खो दिया। अपने सगे ससुर को तो कभी नहीं देखा लेकिन किशन चाचा ने मुझे ससुराल में पिता जैसा ही प्रेम दिया। उनके जाने पर बहुत समय बाद मैं यकीन कर पाई थी कि कोरोना ने उनके प्राण ले लिए हैं। मुझे अफसोस है कि उनके लाख बुलाने पर भी मैं काम की व्‍यस्‍तता के चलते फैजाबाद नहीं जा पाई, जबकि वे मुझे अयोध्‍या दिखाना चाहते थे।

आसपास बेबसी बहुत है। चीख-पुकार मची हुई है। हम-सब इससे जूझ रहे हैं। या फिर ईश्‍वर ऐसा कहर न करे, बहुत जल्‍द जूझ सकते हैं। हम अपनों को खो रहे हैं। ऐसा कभी कल्‍पना में भी नहीं सोचा था, कि हमारे बेहद आत्‍मीय लोग अचानक हमारी जिन्‍दगी की किताब से अपना पन्‍ना फाड़ कर चले जाएंगे। हमेशा-हमेशा के लिए।
तो चलिए जो बहुमूल्‍य समय है हमारे पास उसका कुछ सदुपयोग करते हैं। खुद को अफसोस करने का मौका न दें तो कैसा रहेगा।

कुछ लोग होंगे जिन्‍हें हमने दुखी किया होगा, जिनसे हम दुखी होंगे, शायद हमने उनसे या उन्‍होंने हमसे कभी कोई छल किया हो। या वर्चस्‍व की लड़ाई चल रही होगी। या शायद किसी से पैसे लेनदेन पर रूठे होंगे। किसी से समय का अभाव रहते महीनों से बात नहीं हो पाई होगी। किसी से फेसबुक के कमेंट को लेकर खफा होंगे। किसी से कुछ तो किसी से कुछ नाराज़गी होगी।

यही समय है, उठाइए फोन और सारे गिले-शिकवे दूर कर लीजिए। क्‍या पता, कल आपको फेसबुक की वॉल के माध्‍यम से पता चले कि वह शख्‍स ही नहीं रहा, या शायद हम-आप ही न रहें। अब तो समझ आ गया होगा न कि धन, रुसवाई कोई मायने नहीं रखती। जरूरी है इंसान का होना। सिर्फ सांसे हैं जो चलती रहनी चाहिए। तो हटाइए नाराज़गी। कोरोना के डर से किसी के गले नहीं लग सकते हैं, तो कोई बात नहीं। लेकिन स्‍नेह और प्रेम तो जता सकते हैं न। इतना तो कह सकते हैं कि अगर तुम नहीं होते तो जिन्‍दगी इतनी खूबसूरत हर्गिज नहीं बन पाती।

क्‍या आप नहीं मानते हैं कि जो चले गये, वे आपसे कुछ कहना भी चाहते थे। या फिर हम ही उनसे कुछ कहना चाहते थे। लेकिन वक्‍त ने हमारा वह वक्‍त एक झटके में खत्‍म कर दिया। अब हम बेबस हैं, और वे कहने-सुनने को मौजूद ही नहीं।

तो, इससे पहले कि किसी एक के प्राण निकलें, हम विछोह में केवल अपने हाथ ही मलते रह जाएं। वक्‍त रहते सारे मलाल दूर कर लीजिए, सिर्फ एक फोन पर। मलाल न भी हो तो उनका कुशल-क्षेम पूछ लीजिए। पूछ लीजिए कि हम उनकी क्‍या मदद कर सकते हैं।
क्‍या पता ! कल हो, न हो !

(मूलत: लखनऊ की रहने वाली और लखनऊ के दैनिक जागरण में रिपोर्टर रहीं साशा सौवीर आजकल दिल्‍ली के एक मीडिया घराने में कंटेंट एडीटर के पद पर कार्यरत हैं।)

1 thought on “आओ वक्‍त रहते शिकवे-गिले मिटा लें… क्‍या पता ! कल हो, न हो

  1. नकारात्मक विचार को छोड़कर सकारात्मक विचारों भरी लेखनी चलाइए कल भी होगा वक्त हमारा होगा और हम सभी के साथ हो गए गिले शिकवे मिटाने का विचार तो अच्छा है बी पॉजिटिव हमको है विश्वास हम इस महामारी से जल्द ही जीतेंगे

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