जिन्‍दगी को जिन्‍दगी से जोड़ता है मकोय

बिटिया खबर

: शहरी सभ्‍यता की पहली शिकार भाषा और वनस्पतियां ही बनीं : गढ़हे में पसरा करेमुआ आज की रसोई में नारी का साग सजा : लसोढ़ा के वृक्ष को तो काट लिया, पर फलों का अचार बना कर किचन में सजा दिया : मसाने में भरा पेशाब भले ही चड्ढी में नहीं सम्‍भाल पाते हों, गोमूत्र सिर-माथे पर :

कुमार सौवीर

लखनऊ : सवा महीना से ऊपर हो गया। खुद को तुर्रम-खां समझने वाले कुमार सौवीर का जिगर दो-कौड़ी का साबित हो गया। वह कुमार सौवीर, जो अपना दिल और जिगर उस हर शख्‍स को तत्‍काल सौंप देते हैं। बशर्ते उस पर उन्‍हें प्रेम या समर्पण होने लगे। दूसरा नहीं घास देता तो इसमें कुमार सौवीर क्‍या करें ? हम तो जिन्‍दगी भर साथ निभाने को तैयार होते हैं। जाहिर है कि ऐसा शख्‍स हमारा लख्‍त-ए-जिगर हो जाता है। जिगर यानी यकृत, और यकृत का मतलब लिवर। लेकिन जब कुमार सौवीर के जिगर को वक्‍त ने अपने सख्‍त शिकंजों में जकड़ना शुरू किया, तो पांच-सात दिनों में ही अहसास हो गया कि जिगर का असल मतलब क्‍या है। ऐसा न होता तो मुरादाबाद से पूरी दुनिया तक को जिगर का फलसफा समझाने के लिए महान शायर जिगर मुरादाबाद ने अभियान नहीं छेड़ दिया होता ?
खुद के जिगर पर बाहरी हमला और उसका आनन-फानन पड़े असर को देखते ही समझे कि जिगर तो बिलकुल कुमार सौवीर की तरह की शै ही है। उस पर किसी भी खतरा महसूस नहीं होता। आप कितना भी खा लीजिए, कितना भी पी लीजिए, लेकिन आपके जिगर पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। शर्तिया। मानता ही रहता था कि कुदरत ने मेरे जिगर को सबसे महफूज और लाख बलाओं से दूर बनाया है। लेकिन गंदा पानी, सड़ा भोजन, संक्रमित खाद्य पदार्थ आपके जिगर को पलों में ही बेहाल कर सकता है। उसके बाद आप जो कुछ भी करना चाहते होंगे, वक्‍त आपकी सारी कोशिशों पर पानी फेरता ही रहेगा। आप सिर्फ सोचेंगे, जबकि वक्‍त आपसे करने का वक्‍त छीनना शुरू कर देगा। जिन्‍दगी आपकी होगी, जबकि उससे छीनने का अख्तियार केवल वक्‍त के हाथों में ही होगा।
उसके बाद सिर्फ यही बचता है कि आपकी भोजन को लेकर जीवन-शैली कैसी रही है। यानी आपकी संचित क्षमता, प्रारब्‍ध। उसी के हिसाब से ही तय होगा कि आपकी भवितव्‍यता क्‍या होगी। इस मामले में मैं सौभाग्‍यशाली हूं। बचपन से ही। धूल-मिट्टी से लेकर जंगली वनस्पतियों पर पूरी तरह आश्रित। और इस बीमारी को हराने में मेरे इस गुण के जिस पक्ष ने मुझे सबसे ज्‍यादा ताकत दी, उसका नाम है मकोय। मकोय एक झाड़ है, बहुत हुआ तो ढाई फीट तक ऊंची होती है। उसका फल कच्‍चेपन में हरा होता है, लेकिन पकने के बाद लाल या काला हो जाता है। प्रजाति के मुताबिक। शहर में उसकी उपलब्धि कच्‍ची जमीन न होने के चलते कम ही होती थी। जिनके पास लॉन होते हैं, वे भी उसे झाड़ समझ कर उसे जड़ से उखाड़ देते हैं। लेकिन चिडि़यों की बीट के माध्‍यम से यह फिर जहां-तहां लहलहा पड़ता है। लेकिन कस्‍बे या गांवों में यह उस हर जगह मौजूद हो जाता है, जहां पानी की उपलब्धि ज्‍यादा होती है खास कर नाली के आसपास। मेरी जिन्‍दगी को जिन्‍दगी के साथ दोबारा जोड़ने का अहम लसोढ़ा जैसा किरदार निभाया मकोय ने।
दरअसल, बचपन में हर फल पर हमारा जन्‍मजात अधिकार होता था, हम सब टूट पड़ते थे। स्‍वाद हो या न हो, बस तोड़ो और खा जाओ। मसलन, लसोढ़ा, मकोय, गूलर, जंगल जलेबी, झरबेरी वगैरह। लेकिन मकोय के प्रति हम सब का न जाने क्‍यों एक खास आकर्षण था। वह तो बाद में पता चला कि जिगर यानी लिवर के लिए रामबाण होता है मकोय। पता चलते ही मैंने अपनी लॉन से मकोय को संरक्षित घोषित कर दिया। पका फल तो खाता ही हूं, दाल या सब्‍जी में अनिवार्य रूप से चालीस-पचास पत्‍ते काट कर डाल देता है।
वह तो जौनपुर के गल्‍ला मंडी वाले डॉक्‍टर समद ने मुझे एक दिन दावत पर बताया कि यूनानी चिकित्‍सा पद्यति में मकोय रामबाण है और उसकी एक लाजवाब दवा अर्क-मकोय भी है। यही जानकारी मलिहाबाद के यूनानी चिकित्‍सा मेडिकल कालेज में पीडियाट्रिक प्रोफेसर डॉ मैमून खातून ने भी दी। और अब जब मैं इस मर्ज का जबरिया आशिक बन चुका हूं तो हमारे दामाद प्रवीण मिश्र ने मेरे लिए जो मेडिकल कालेज और मेडिकल स्‍टोर खुलवाया है, उसमें रात के वक्‍त चार आसव यानी अर्क शामिल है। इसमें अर्क-मकोय खास मुकाम पर है। एक बार सुबह, और दूसरा शाम को। भोजन करने के बाद।
सच बात तो यह है कि हमने सभ्‍य होने की प्रक्रिया में जिन चीजों-तत्‍वों को बेहद हिकारत के साथ खारिज करना शुरू कर दिया, उनमें सबसे पहले तो वह वनस्पतियां ही शिकार बनीं। हमने न केवल उनकी उपेक्षा की, बल्कि मौका मिलते ही बेदर्दी के साथ उन्‍हें उखाड़ भी डाला। लेकिन बाद में उन्‍हीं को हमने अपनी रसोई के रास्‍ते दस्‍तरख्‍वान तक पहुंचा दिया। जिस नारी का साग आप बड़ी कोठियों में सौ-सवा सौ रुपया किलो के हिसाब से पहुंचता है, उसी साग को गांव या झुग्‍गीवाले आसपास सड़क के किनारे ठहरे पानी में उगी वन‍स्‍पति को करमुआ कहते हैं। करमुआ का साग खाना गरीबी के सबसे निचले पायदान तक पहुंच जाने या गरीबी में बर्बाद हो चुक जाने का प्रमाण होता है। लेकिन किस्‍मत का लेखा देखिये कि वही करमुआ नारी का नाम लेकर जब कोठियों में घुसता है तो बड़े नाजों-नखरों के साथ दस्‍तरख्‍वान तक पहुंचता है। खाने वाले लोग चटखारा लेते हुए यह भी बोलना नहीं भूलते कि:- वाओ ! लेक्टी-फाइबर ! माई गॉड। अब सुबह पेट बिलकुल सफाचट हो जाएगा। ट्रैफिक क्लियर। हा हा हा।
यही हालत है सहजन का। साल भर तक इस पेड़ को मनहूस कहते हुए उसके सर्वनाश की कल्‍पना करते रहते हैं कि मुआ यह सहजन न छांह देता है और न हरियाली। लेकिन फरवरी होते ही उसी सहजन को लेकर मारामारी शुरू हो जाती है। बतिया से लेकर जडि़याई फली तक की कीमत आसमान पर चढ़ी रहती है। जबकि फली के पहले उसके फूल की कीमत तो बेशकीमती हो जाती है। इतना ही नहीं, उसकी पत्‍ती और जड़ तक को आजकल उबाल कर पीने का आयुर्वेदिक बुखार चढ़ गया है। तोय की बेले भी लोग भूल गये। साग से लेकर पकौड़ी तक, तोय का डंका हर झोपड़ी या खपरैल पर चढ़ा रहता है। हरियाली अलग से।
दरअसल, तनिक कोई भी दो-चार पोथी पढ़ गया और उसके बाद उसकी औकात में ज्‍यादा पढ़ना नहीं रहा, लेकिन खुद को पढ़ा-लिखा दिखाने की चुल्‍ल काटने लगी, तो वह आनन-फानन खुद को आयुर्वेदिक चिकित्‍सक बन जाता है। कम्‍पटीशन इतना कि जो जितनी बकलोली कर सकता है, वह उतना ही पड़ा भैषज्‍य-व्‍याख्‍याता समझ लिया जाता है। अपनी दूकान खोल कर गोमूत्र सना अंट-शंट सामान ओषधि के नाम पर ठेलना शुरू कर देता है। खरीददार भी दौड़े आते रहते हैं, अपने पेशाब को भले ही चड्ढी में नहीं सम्‍भाल पाते हों, लेकिन गोमूत्र को सिर-माथे पर सजाये रखते हैं।
इसी अंधी दौड़ में हमने लसोढ़ा के पेड़ को तो काट कर नेस्‍तनाबूत कर दिया। लेकिन उसके फलों का अचार बना कर किचन की अलमारियों में सजा दिया।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– दो )

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