आपको घूस, वेतन और 65 साल की नौकरी भी चाहिए। जनता जाए भाड़ में

मेरा कोना

: जवाब दीजिए कि समाज और जनता के प्रति क्‍या उपयोगिता है आपकी : आपको हर वेतन आयोग की सिफारिशों से भी ज्‍यादा पैसा चाहिए, क्‍यों : आपमें से ज्‍यादातर की हालत ऐसी ही नहीं कि वे ठीक से चल सकें : फिर क्‍यों सरकारी अमले को बूढा बनाने पर आमादा हैं आप : सैंयां, हमका इतना न सताओ बलमा (दो)

कुमार सौवीर

लखनऊ : सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लेकर जब केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों ने अपना चिल्‍ल-पों करना शुरू किया था, तो मैंने भौंचक्‍का रह गया था। इन कर्मचारियों की एसोसिएशन ने कहा था कि इस सातवें वेतन आयोग की संतुतियों में गड़बड़ी है, उन्‍हें ज्‍यादा वेतन चाहिए और ऐलान किया था कि अगर उनके साथ हो रहे अन्‍याय को दूर नहीं किया जाएगा तो वे हड़ताल पर चले जाएंगे। हैरत की बात है कि सारे के सारे अखबारों में इन कर्मचारियों के आक्रोश को मोटे अक्षरों में छापा था, मानो अगर कर्मचारियों के साथ यह अन्‍याय दूर नहीं किया जाएगा तो सारे चैनल और अखबार मालिकों की नानी मर जाएगी। जरा गौर से देखिये कि क्‍या इन अखबारों और चैनलों ने आम आदमी का प्रतिनिधि की भूमिका निभायी है या फिर कर्मचारियों के दलाल की।

मेरा दो टूक सवाल है। सबसे पहले केंद्रीय कर्मचारियों से। केवल रेल का कर्मचारी ही ऐसा है जो अपनी ड्यूटी करने के लिए घूस नहीं मांगता। टीटी को छोड़कर, उनका बस चले तो वे तो सौ-पचास में ही अपनी रेल ही नहीं, अपना ईमान तक बेच डालें। कितनी बेशर्मी से उगाही करते हैं यह टीटी और टीटीई लोग, कि देखने वालों का होश उड़ जाता है। सौ रूपये का नोट पर अगर बात न बन पा रही हो तो आप उन्‍हें शराब की शीशी दिखा दीजिएगा, बर्थ आपकी हो जाएगी। जबकि उनका कोई दायित्‍व ही नहीं होता है। लेकिन बाकी कर्मचारी कितनी मेहनत से काम करते हैं, हैरत आती है। समय से ट्रैक चेक करना, सिग्‍नल भेजना, रिसीव करना, गेट खोलना, बंद करना, ट्रैक बदल देना, ट्रेन का आना-जाना देखने के पहले घंटी बजाना, वगैरह काम ऐसे काम करने वाले रेल कर्मचारी वाकई निष्‍ठा और ईमानदारी से काम करते हैं। कहीं कोई तनाव नहीं, कोई बवाल नहीं। तमीज से बात करना उनकी आदत में है। लेकिन बाकी लोग, बाकी विभागों में क्‍या चलता है, किसी से छिपा नहीं है।

अब आइये, राज्‍य सरकार की ओर। कोई एक भी विभाग की कोई भी शाखा बता दीजिए कि बिना पैसा के काम हो जाता हो। पुलिस पैसा भी लेती है, पिटाई और गालियां भी देती है। निर्दोषों को फंसा देना उसके खून में है। अस्‍पताल में तो डॉक्‍टरों के कमरे के शौचालय में मुझे इस्‍तेमाल-शुदा कंडोम-निरोध तक मिले। पूरा अस्‍पताल केवल अंगड़ाई लेता ही दीखता है। हर चीज का कमीशन, प्राइवेट प्रैक्टिस। वाणिज्‍य कर, सोसाइटी रजिस्‍ट्रार, सहकारिता, खजाना, खाद्य नियंत्रक, रोडवेड, आरटीओ की हालत आपसे छिपी नहीं है। पीडब्‍ल्‍यूडी का काम देखना हो तो पिछले पांच दिनों में पालिटेक्निक फ्लाईओवर, शहीद पथ और लोहिया पथ में धंसे भारी गड्ढों में कारण खोज लीजिए।

अफसरशाही का आलम यह है कि दो कर्मचारियों को एक आला अफसर ने दो महीनों तक पुलिस थानों के हवालातों में बंद रखाया, पिटवाया, प्रताडि़त किया। मानवाधिकार उल्‍लंघन का इससे बड़ा हादसा और क्‍या हो सकता है। एक जिला अधिकारी जन-कल्‍याण और सुरक्षा का दायित्‍व ओढे रहता है, लेकिन जौनपुर का डीएम एक निरीह बच्‍ची को पागलखाने पहुंचाने की साजिश करता है। उस बच्‍ची का इकलौता अपराध है कि उसके साथ सामूहिक बलात्‍कार हुआ, लेकिन एसपी और डीएम इस मामले को दबाने के लिए सारी साजिशें बुन लेता है। आला अफसर भी उसकी करतूतों से आंखें मूंद लेते हैं। ( क्रमश: )

यूपी में सरकारी कर्मचारियों और अफसरों का रेवड़ अब जनता का टेंटुआ दबाने पर आमादा है। इसी मसले पर यह लेख-श्रंखला है।

अगले अंक को पढ़ने के लिए कृपया क्लिक कीजिए:- सैंयां, हमका इतना न सताओ बलमा (तीन)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *