गजब कमीशन-गाथा: शासन से जिलों तक, जिलों से शासन तक

मेरा कोना

:  कोई ट्रानिका सिटी में गड्डी, तो कोई उपहार में हार लेता है : सवाल यह है कि जिलों से 20 फीसदी तक का अग्रिम कमीशन वित्‍तीय मंजूरी के लिए क्‍यों : व्‍यवस्‍था अगर इसी  को कहा जाता है तो मैं उस पर थूकता हूं :  सैंयां, हमका इतना न सताओ बलमा (तीन)

कुमार सौवीर

लखनऊ : अब बताओ, कि तुम्‍हारे वन विभाग ने आजादी के बाद से कितने पेड़ लगाये और अब वे पेड़ अब कहां हैं। सड़कों को चौडा करने के दौरान तुमने हजारों लाखों विशालकाय पेड़ कटवाये, ले‍किन उसकी प्रतिपूर्ति क्‍यों नहीं किया। हर साल अरबों रूपयों का खर्चा दिखाते हो कागजों पर, कि सामाजिक वनीकरण होगा। लेकिन उसका नतीजा तो कहीं दिख नहीं रहा। इटावा का लायन सफारी के अब तक नौ शेर क्‍यों मर गये, क्‍यों नवाबगंज कानपुर में दर्जनों हिरणों को कुत्‍तों ने नोंच कर मार डाला, कोई हिसाब और जवाब है तुम्‍हारे पास।

जवाहर भवन और शक्ति भवन अब तक सलामत है। सवा साल पहले का बना आगरा का सर्किट हाउस मानो अब भी नया है। लेकिन इंदिरा भवन अब चूने लगा है। तुम जो भवन बनाते हो, उसका कचूमर क्‍यों निकल जाता है। क्‍या वहज है कि लखनऊ विकास प्राधिकरण के पास सारे अधिकार हैं, लेकिन पूरा शहर तबाह हो जाता है। जहां आवासीय भवन थे, वे अब व्‍यावसायिक हो चुके। एलडीए का वीसी अब चीफ इंजीनियर पर खौखियाता है।

पूरा प्रदेश विकास की चपेट में है। उसका लाभ कहां पहुंच रहा है, मुझे बताओ। हर जिले में केवल यही चर्चा होती है कि फलां काम के लिए शासन को पैसा भेजना है। अक्‍सर तो यही कलेक्‍ट्रेट से लेकर बाकी निर्माण-कारी विभाग आपस में चंदा ही जुटाते रहते हैं कि कमीशन जाना है। अक्‍सर तो यह कमीशन 20 फीसदी तक हो जाता है। मतलब अब कि यह शासन और प्रशासन के नाम पर बाकायदा केवल लूट और मजाक चल रहा है। हर सरकारी कर्मचारी और हर अफसर शख्‍स आम आदमी से पैसा उगाह रहा है, कमीशन भी ले रहा है और फिर फाइलों में फंसा-फंसा कर वसूली का भी धंधा चलाये हुए हैं। अगर वाकई यही हालत है तो थू है इस व्‍यवस्‍था पर, जो आम आदमी के नाम पर आम आदमी का कत्‍ल करने पर आमादा हैं। शासन से तो रकम जिलों के लिए भेजी जाती है, लेकिन यह उल्‍टी गंगा कैसे बहने लगी।

कौन बतायेगा कि वह कौन सी रकम है, जो जिलों के विकास के लिए विभिन्‍न परियोजना की वित्‍तीय स्‍वीकृति के लिए विभिन्‍न विभागों के कर्मचारियों-अधिकारियों से उगाही जाती है और उसके बाद उसे एकत्र करके लखनऊ में शासन के नाम पर भेजा जाता है। कौन देता है, कौन जुटाता है और कौन उसे लेकर लखनऊ शासन में किसी अधिकारी तक पहुंचाता है। क्‍यों फाइलें बरसों-बरस लटकी ही रहती हैं। क्‍यों फाइलों को निक्षेप कर दिया जाता है।

कोई अफसर बलात्‍कार में फंसा है तो किसी पर ट्रेन में सहयात्री के साथ शराब पीकर बवाल करने का आरोप है। किसी ने बलिया के बसंतपुर पक्षी विहार में घोटाला किया है तो किसी ने पश्चिम यूपी की ट्रोनिका सिटी में नोट लूट लिये। कोई बुंदेलखंड में खनन की गंगा में दोनों हाथों लूट रहा है तो कोई लखीमपुर के जंगलों में रात-रंगीन करने के लिए जंगली जानवरों पर अत्‍याचार कर रहा है। जब कोई विरोध करता है तो उसकी खाल खिंचवाने की साजिशें शुरू हो जाती हैं। मामले में हस्‍तक्षेप करके जब निदान खोजा जाता है तो एक निर्दोष उप निदेशक का गला रेत कर उसे किसी अंधी पोस्टिंग में फेंक दिया जाता है। कहीं कोई सेल्‍फी लेता पकड़ा जाता है तो कोई जुल्‍फी संवारने की कवायद में पत्रकार की बच्‍ची से अपने आप पर पेशाब करवा लेता है। और जो नौकरों को आला अफसर होता है उसे डेढ करोड़ तक का एक हार उपहार में मिल जाता है। मथुरा में 280 एकड़ सरकारी जमीन बचाने के बजाय वहां के अफसर केवल इसी धंध-फंद में लगे रहते हैं कि कैसे उस जमीन पर रामवृक्ष यादव का कब्‍जा बनाये ही रहे। हाईकोर्ट को मूर्ख बनाने के लिए जब आप लोग अभियान का नाटक करते हैं तो उसमें आपका दो आदमी मारा जाता है। नतीजा, आप सरकारी कर्मचारियों-करिंदों के पक्ष में आ जाते हैं और जनता आपको दुश्‍मन दिखायी पड़ती है। फलस्‍वरूप आपकी गोलियां 31 नागरिकों को मौत की नींद सुला देती हैं।

कमाल हैं आप लोग, बेमिसाल। धन्‍य हैं आप और आपकी सोच, कर्म और कुकर्म। ( क्रमश: )

यूपी में सरकारी कर्मचारियों और अफसरों का रेवड़ अब जनता का टेंटुआ दबाने पर आमादा है। इसी मसले पर यह लेख-श्रंखला है।

अगले अंक को पढ़ने के लिए कृपया क्लिक कीजिए:- सैंयां, हमका इतना न सताओ बलमा (चार)

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