अमर हो गया जनांदोलनों का यह 70 वर्षीय युवक योद्धा

बिटिया खबर

: पीपुल्‍स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज को ऊंचाइयों तक पहुंचाया है चितरंजन सिंह ने : मुझसे वायदा किया था कि अगली बार तुमसे मिले बिना दुनिया तक नहीं छोड़ूंगा : मधुमेह ने सारे अंगों को चाट कर खत्‍म कर दिया :
कुमार सौवीर
लखनऊ : आज फिर मेरा कलेजा निचुड़ता जा रहा है, सांसें टूटती लग रही हैं और मेरी आंखें बुरी तरह डबडबाने लगी हैं। हालांकि यह हादसा आज शाम पांच बज कर बीस मिनट पर हो गया, लेकिन अब भी यकीन नहीं आ रहा है कि चितरंजन सिंह अब इस दुनिया को छोड़ गये। मुझे छोड़ गये। उस कुमार सौवीर को छोड़ गये, जिससे वायदा किया था कि सौवीर अगली बार तुमसे मिले बिना दुनिया तक नहीं छोड़ूंगा।
मेरे दुख का कारण है चितरंजन सिंह की मृत्‍यु है, जो मुझे रह-रह कर रुला रहा है। सन-80 में चितरंजन सिंह से मेरी मुलाकात हुई थी। खादी या सादा कपडा से कुर्ता और पाजामा के साथ गमछा और कंधे पर एक झोला, जिसमें किताबें, डायरी और न जाने क्‍या-क्‍या भरा पड़ा था। हल्‍की सी खूंटी जैसी दाढी। खांटी बलियाटिक शैली में बातचीत और हर वक्‍त मुस्‍कुराहट फैलाता चेहरा। शक्‍ल से ही पवित्रता, शालीनता लेकिन चैतन्‍य भाव टप्‍प-टप्‍प चूता रहता था। हमेशा यही लगता था कि वे दुग्‍ध-स्‍नान करके ही आये हैं। पूरा का पूरा व्‍यक्तित्‍व गदगद लगता था।
मैं नुक्‍कड़ नाटकों में सक्रिय था, और जनांदोलनों में जूझ रहा था। पहली भेंट में ही हम ऐसे जुड़े कि वे बड़े भाई बन गये और मैं छोटा। मिलते ही मैं उनसे लिपट जाता था, और वे अपने हाथों से काफी देर तक मेरी पीठ और सिर पर थपकी दिया करते थे। वे अक्‍सर लखनऊ आया करते थे, और हम लगातार मिलते रहते थे। फिर सन-82 में फिर साप्‍ताहिक सहारा के दौरान तो वे अक्‍सर मिलते रहे। सन-92 में दैनिक जागरण छोड़ने के बाद मैं गंभीर आर्थिक संकटों में आ गया। हालत यह थी कि फोन तक कट चुका था। फिर जयपुर और जोधपुर व पाली मारवाड़ में नौकरी करने चला गया। अगस्‍त सन-03 में वाराणसी के हिन्‍दुस्‍तान अखबार से जुड़ा और पोस्टिंग मिली जौनपुर। यूपी में वापसी के बाद लोगों से पुराने-खोये सम्‍पर्क खोजने लगा। मोबाइल मिल ही गया था। एक दिन अचानक चितरंज सिंह का नम्‍बर मिल गया। फोन किया तो वे फोन पर ही ऐसे उछल पड़े कि मानो कारूं का खजाना ही मिल गया हो उनको। उन्‍होंने बताया कि वे पिछले कुछ दिनों से जौनपुर में ही हैं, और कचेहरी के पीछे भगवती कालोनी के रहने वाले एक रिश्‍तेदार के यहां टिके हैं।
मैंने कहा कि मैं अभी फौरन अपना कामधाम छोड़ कर आ रहा हूं। उन्‍होंने मना किया कि ड्यूटी मत खराब करो, और कहा कि वे मुझे रात के भोजन पर बुला रहे हैं। मैं रात को उनके पास पहुंचा। बाकायदा मछली पकी थी। काफी देर तक हम बतियाते रहे। करीब पांच दिनों तक वे जौनपुर रहे, और पूरे दौरान सुबह और शाम को हमारी बैठकी हुआ करती थी।
एक दिन वे जौनपुर से चले गये। हालांकि फोन पर बातचीत होती रही। एक दिन उन्‍होंने बताया कि झारखण्‍ड में हैं। कई महीनों तक रहे। लेकिन अचानक एक दिन उन्‍होंने बताया कि वे बीमार हैं। यह खबर भी तब उन्‍होंने दी, जब मैंने पूछा कि आप कब लौट रहे हैं। फिर एक दिन मुझे वाराणसी तबादले पर भेज दिया गया। उसके बाद फिर अचानक मेरे दफ्तर पर नमूदार हो गये चितरंजन सिंह जी। मैं गले लग गया, छुट्टी ली, और सीधे गंगा घाट पर जम गया। ऐसा कई बार हुआ।
सन-08 में महुआ न्‍यूज का यूपी ब्‍यूरो प्रमुख बनने पर मैं लखनऊ आया, तो फिर चितरंजन जी से मुलाकातें होने लगीं। लेकिन सन-11 के बाद से फिर हम अकेले हो गये। पता चला कि वे फिर झारखण्‍ड में हैं और इलाज करवा रहे हैं। उसके बाद दो बार फिर भेंट हुई। फिर अचानक खामोशी पसर गयी। कई बार फोन किया, लेकिन उनका फोन नहीं उठा। मैं भी भूलने लगा। लेकिन बेटियों की शादी में मैंने उन्‍होंने मैसेज किया, तो उन्‍होंने जवाब दिया कि वे अगर स्‍वस्‍थ रहे तो आयेंगे जरूर। लेकिन दोनों ही बेटियों के विवाह पर वे नहीं आये।
और आज ….
बलिया के सुल्‍तानपुर गांव के रहने वाले परिवार में सबसे बड़े थे चितरंजन सिंह। फिर बहन और उसके बाद अमर उजाला में रहे मनोरंजन सिंह। मनोरंजन ने बताया कि पिछले कुछ बरसों से वे मधुमेह से पीडि़त थे। बीमारी लगातार बढ़ती ही जा रही थी। कुछ दिन पहले उन्‍हें बीएचयू ले जाया गया था। डॉक्‍टरों ने दवाये लिखीं, और कहा कि जाइये, उनकी सेवा गांव में ही कीजिए। पता चला कि मधुमेह ने उनके सभी अंगों को चाट कर खत्‍म कर दिया था। और फिर आज यह खबर आयी, जिसे सुनते ही लगा मानो आसमान ही फट पड़ा।
यकीन नहीं आ रहा है कि जनांदोलनों का यह 70 वर्षीय तरुण इस तरह भी आम आदमी को छोड़ सकता है।

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