बहुत खो कर कमाया है मैंने यह एटीट्यूड। इसे खोना नहीं चाहता

बिटिया खबर

: आप अपना काम सम्‍भाले रहें, मैं अपने एटीट्यूड में मस्‍त हूं : 3-इडियट्स फिल्‍म देखिये, मुझे नंगा अघोरी-अवधूत मानते हैं : शेषनारायण सिंह ने मुझे कबीर, किसी ने फक्‍कड़-कबीर तो किसी ने केरारबीर का समकक्ष माना : थ्री-इडियट्स में देखें कि कुमार सौवीर में ऐसे एटीच्‍यूट का मतलब क्‍या है : लोग मुझे नापसंद करते हैं, मैं सच बोलता-लिखता हूं :

कुमार सौवीर

लखनऊ : लोगों के रोंगटें खड़ा कराने, हंसाने-खिलखलाने और फफक कर रुला डालने वाली फिल्‍म थी 3-इडियट्स। वैसे तो इसका हर पहलू लाजवाब है, लेकिन आज चर्चा राजू रस्‍तोगी पर।आमिर खान की इस फिल्‍म में राजू यानी शरमन जोशी एक अद्भुत युवक की भूमिका में है। गजब खिलंदड़, भावुकता और प्रयोगों का प्रेमी-भाव। वह काम करता है, नतीजों के लिए बहुत ज्‍यादा ध्‍यान नहीं देता। एक दिन कई मंजिलों से कूद कर कई हड्डियां तुड़वा लेता है। चूंकि वह मेधावी है, इसलिए इंटरव्‍यू के लिए ह्वील-चेयर पर आता है। सवालों का जवाब जिस तरह वह राजू देता है, उसको भोग, समझ और उसको व्‍याख्‍यायित कर पाना किसी सामान्‍य प्रतियोगी के वश की बात नहीं होती है। आप उसके उस व्‍यवहार को देखना चाहते हों, तो 3-इडियट्स को जरूर देखियेगा।
बावजूद इसके कि यह एक महज कहानी है, हकीकत नहीं। लेकिन कितनी सार्थक और सकारात्‍मक है यह कहानी। इंटरव्‍यू में राजू साफ बोल देता है, इसके बावजूद उसे सलेक्‍ट कर लिया जाता है। लेकिन हमारा समाज राजू रस्‍तोगी की इस कहानी में कहीं भी कुमार सौवीर को फिट करने को तैयार नहीं। वह राजू की बातों पर खुश होंगे, ठहाके लगायेंगे, उसकी पीड़ा पर बिलख-बिलख कर राेयेंगे और राजू की सरेआम तारीफ करेंगे, लेकिन कुमार सौवीर पर बात होगी, तो हरगिज नहीं। यानी वे काल्‍पनिक कहानी पर तो जी सकते हैं, लेकिन यही कहानी कुमार सौवीर की दिखे तो आपकी फट कर फ्लावर हो जाती है। इस फिल्‍म में राजू यानी शरमन जोशी नहीं, बल्कि वहां साक्षात कुमार सौवीर ही मिलेंगे। जिन्‍दगी को तोड़, फोड़, बर्बाद होने के बावजूद अपनी खुद्दारी को साबित करने का झंडा फहराते हुए। ऐसे, जिसकी कल्‍पना 3-इडियट्स की फंतासी से अलग एक ऐसे व्‍यक्ति की असल कहानी है, जिसको सुन कर आप अपनी उंगलियां दांतों तले दबा बैठेंगे। नाम है कुमार सौवीर।
लेकिन इसके पहले मैं साफ कर दूं कि इस चर्चा की जरूरत क्‍यों आन पड़ी। दरअसल, मेरे एक घनिष्‍ठ मित्र ने अपने दफ्तर में मेरी आलोचना करते वक्‍त मुझे एक अभद्र, अश्‍लील और असामाजिक व्‍यक्ति के तौर पर संबोधित किया। यह वह सज्‍जन हैं, जिनके किसी भी दायित्‍व पर वे मुझे सबसे ज्‍यादा भरोसा रखते हैं, और उनका कहना होता रहा है कि आड़े वक्‍त-जरूरत पर मेरे अलावा कोई बेहतर नहीं। कहने की जरूरत नहीं कि वे अपने किसी भी सार्वजनिक, पारिवारिक और व्‍यक्तिगत प्रकरणों पर केवल मुझसे ही संपर्क रखते हैं। लेकिन जब सार्वजनिक क्षेत्र में उन्‍हें मेरा नाम सुनाई पड़ता है, तो वे किसी बड़बोले व्‍यक्ति की तरह मेरी कटु निंदा-आलोचना से परहेज नहीं करते। मैंने भी साफ कह दिया कि तुम मेरी हर बात की निंदा करते हो, जबकि मैं तुम्‍हारी हर बात को पसंद करता हूं। लेकिन यह केर-बेर संबंध क्‍यों, कैसे और कब तक जारी रह सकते हैं?
राष्‍ट्रीय दैनिक समाचारपत्र के देशबंधु के राजनीतिक संपादक थे शेषनारायण सिंह। पिछले बरस सात मई को पहले उनका देहावसान हो गया। देश के नामचीन पत्रकारों में उनका नाम शुमार था। एबीपी चैनल और विभिन्‍न अखबारों में राजनीतिक विषयों पर उनकी नियमित चर्चाओं को देखना लोग गर्व के साथ पसंद करते थे। बातचीत का लहजा बेहद आत्‍मीय और हल्‍की-फुल्‍की कद-काठी भले ही उनकी हो, लेकिन अपने अंदाज, और विषयों पर उनकी गहराई में वे किसी भी अन्‍य पत्रकार पर 21 ही पड़ते थे। हालांकि वे सुल्‍तानपुर के मूलत: निवासी थे, लेकिन दशकों से दिल्‍ली में ही बस चुके थे।
तीन बरस पहले शेष नारायण सिंह जी ने मेरे व्‍यक्तित्‍व का “पोस्‍टमार्टम” टाइप विश्‍लेषण कर डाला। शेष जी ने अपनी वाल पर बिना किसी संदर्भ के मुझ पर एक टिप्‍पणी लिखी कि, “कुमार सौवीर का लिखा हुआ पढ़ते हुए मुझे संत कबीर साहेब की कई रचनाओं की याद क्यों आती है ! शायद इसका कारण यह है कि मैं कुमार सौवीर को पसंद करता हूँ . हालांकि मैं यह भी जानता हूँ कि उनको नापसंद करने वालों की भी कमी नहीं है .”
शेष नारायण सिंह की यह टिप्‍पणी मेरे लिए किसी भारत-रत्‍न से कम नहीं है।
इससे क्‍या फर्क पड़ता है कि कई लोग मुझे नापसंद करते हैं, मुझे तो इस बात की तसल्‍ली है कि मैं सच बोलता-लिखता हूं। अब लोग मुझे नापसंद करते हैं, तो यह उनका फैसला है। लेकिन मुझे नापसंद करने वाले वही लोग मेरे पास उस वक्‍त आ जाते हैं, जिन्‍हें मेरी सख्‍त जरूरत होती है, मेरी तल्‍खी के बावजूद। लेकिन तब वे मेरे लहजे को भुला देते हैं, लेकिन उसके बाद वे लोग मुझे खारिज कर मेरी लानत-मलामत करना नहीं भूलते। यह जानते-समझते भी मैं उनके साथ भी खड़ा हो जाता हूं। उनकी मदद में आगे बढ़ जाता हूं। लेकिन अपनी जिन्‍दगी के उसूलों को तिलांजलि देकर मैं दूसरों के रेवड़ में हांका जा पाना नापसंद करता हूं। आप खुद बताइये न कि मैं क्‍या करूंगा भेंड़-तंत्र वाली भीड़ का अंग बन कर? मैं तो अपनी राह पर हूं, और रहूंगा भी।
मैंने अपना काम किया है। अधिकांश तो नहीं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मुझे प्‍यार करते हैं। कोई बीस बरस पहले पाली-मारवाड़ के बड़े व्‍यवसायी ओम टॉक ने सरेआम कहा था कि मैं कुमार सौवीर को बेहद प्‍यार करता हूं। पाली के ही एक दर्जी हैं हाजी जीलानी। पाली छोड़ते वक्‍त भावुक जीलानी ने मुझे एक शर्ट खुद सिल भेंट की। बहुत पहले जौनपुर के अप्रतिम शख्सियत रहे रत्‍नेश तिवारी ने मेरे बारे में ऐलान किया था कि जौनपुर में केवल दो ही वीर हैं। एक तो गोमती नदी के दूसरे किनारे किले वाले देव-जिन्‍न केरारबीर, और दूसरे वाले हैं इस पार रहने वाले हिस्‍से के कुमार सौवीर। शिक्षक, सामाजिक नेता और लेखक डॉ ब्रजेश यदुवंशी ने भी तब यही कहा था कि:- जौनपुर का फक्‍कड़ कबीर है कुमार सौवीर। टीडी पीजी कालेज के पूर्व प्रधानाचार्य प्रो अरुण कुमार सिंह मुझे किसी थाती की तरह महसूस करते हैं। प्रो अरुण सिंह और वहीं पर भूगोल में तब विभागाध्‍यक्ष रहे श्री आरएल सिंह ने मेरी तबियत खराब होने की खबर सुनी तो वे सीधे मेरे दफ्तर पर आये और बोले कि आप इलाज कराइये, जो भी खर्च होगा हम दोनों करेंगे। कलेक्‍ट्रेट बार एसोसियेशन के अध्‍यक्ष रहे यतींद्र नाथ त्रिपाठी और उद्योग-व्‍यापारी नेता इंद्रभान सिंह इंदू समेत अधिकांश लोगों की निगाह में मेरा मूल्‍यांकन अघोरी या नंगा अवधूत की तरह है। मिर्जा दावर बेग और अहमद निसार ने मुझे बौद्धिक क्षमता दी। जेपी होटल और खाना-खजाना का दरवाजा हमेशा मेरे लिए खुला रहता है। वहां डॉ एचडी सिंह, डॉ डीपी सिंह और डॉ रजनीश द्विवेदी हमेशा आड़े वक्‍त में सामने रहे। काशी में एक कमरे का फ्लैट खरीदने के लिए एक महिला मित्र समेत तीन लोगों ने मुझे बड़ी रकम दी थी, उसका अहसान कैसे भूल सकता हूं। मेरी हर दिक्‍कत पर हमेशा सामने रहे दिल्‍ली निवासी पारिवारिक मित्र एसबी मिश्र, सगे भाई से लाख दर्जा श्रेष्‍ठ। एक आवाज पर मेरे पास तत्‍काल पहुंच सकने वाले बीएसएफ वाले जनार्दन यादव मेरे पास हैं। सन-06 में जब वाराणसी में मैंने बनारस का त्रिलोचन शास्‍त्री मेरा अभिन्‍न है, सुधीर दुबे मेरे लिए कुछ भी कर डालने पर आमादा। संकट के दौर में चौसट्ठी घाट के सीता होटल में गोकुल शर्मा ने न जाने कितने दिनों तक नि:शुल्‍क रहने की व्‍यवस्‍था की। लखनऊ में शुभम, रजनी और रंजीत तथा देवरिया के पत्रकार गोविंद मौर्या और गौरव कुशवाहा मुझमें अपना पिता देखते हैं। जब भी मैं संकट पर आया, तो दिल्‍ली का पत्रकार शीतल पी सिंह हमेशा मेरे साथ खड़ा मिला। वकालत में एलपी मिश्र, आईबी सिंह, आरडी शाही के साथ जीएल यादव और जौनपुर वाले कामरेड जयप्रकाश बेमिसाल मिले। ऐसे ही एक हैं देवेंद्र दुबे। कहां तक सबके नाम गिनाऊं? ऐसे लोगों की तादात शायद हजारों में है। अब उनके ऐसे कितने हैं, जो मेरे होने के बावजूद मेरे घोर निंदक हैं, यह शोध का विषय मैं नहीं मानता। लेकिन सोचता जरूर हूं कि जब अपनों की तादात हजारों में है, तो विरोधियों की तादात तो लाखों में होगी। चलो ठीक है, विरोधी और निंदक होने के बावजूद कम से कम इतने लोग मुझे जानते तो हैं।

मेरे लिए यही बहुत है मेरे दोस्‍त। जिन्‍दगी का असली अर्थ तो यही है मेरे यार, और उसका मूल्‍यांकन इससे बेहतर और क्‍या हो सकता है मेरी जान ?

बकौल शेषनारायण सिंह भी, मुझे कई लोग पसंद नहीं करते। कुछ की निगाह में मैं बदतमीज भी हूं, नंगई करता हूं। शऊर नहीं है बातचीत का।

लेकिन जो भी लोग मुझसे असहमत रहते हैं, वे भी कम से कम इतना तो मुझे मानते ही हैं कि कुमार सौवीर बेलौस हैं, बेदाग हैं, छिछोरे नहीं। साफ बात करते हैं। न बेईमानी, न लुकाछिपी। सीधे भिड़ जाते हैं, लेकिन जायज मसलों पर।

दलाली नहीं, लोगों से भिक्षा मांगते हैं कुमार सौवीर। मगर अधिकांश लोग भिक्षा देने में भी नाक-मुंह छिपाये पिछली वाली गली में घुस जाते हैं। अब सच बताइयेगा, कि आपने कितनी बार कुमार सौवीर को भिक्षा दी ?

हा हा हा

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *