पत्रकारिता में “फेल्‍ड-जीनियस” थे प्रमोद झा, नहीं रहे

बिटिया खबर

: अमृत प्रभात से मैं उनको जानता हूं, मिलते ही तपाक से गले लगाते : खबर की समझ तो वाकई प्रभात झा को थी, आरएसपीआई एमएल से जुटे थे : पत्रकारिता में बेरोजगारी का दंश कुछ लोगों के व्‍यवहार के चलते पीड़ाजनक न बन पाया :

कुमार सौवीर

लखनऊ : पत्रकारिता में बेरोजगारी हमेशा बहुआयामी संकट लेकर आती है। घर में चूल्‍हा-चौका और बच्‍चों के खर्चे तो दीगर बात है। लेकिन सबसे पहले तो होती है अपमान और उपेक्षा। अक्‍सर उनके द्वारा भी, जो आपके जूनियर रहे हैं, या समकक्ष रहे हैं। सबसे पहले तो अपने लोग ही पल्लू छोड़ कर किनारे हो जाते हैं। विद्रूप हास्य और तीखे व्यंग्योक्तियों के तीर अपने जहर-बुझे तरकश से निशाने पर लगाते रहते हैं।
मैंने अपने चार दशक की पत्रकारिता में भले ही नौकरी सिर्फ 16 साल ही की हो, लेकिन पत्रकारिता और बेरोजगारी का दंश लगातार और स्थाई रूप से भोगने का पिंड नहीं छोड़ा। साप्ताहिक शानेसहारा से 660 रुपये की नौकरी से निकाले जाने के बाद मुझे एक मित्र बिल्डर ने डेढ़ हजार रुपये महीने की नौकरी ऑफर की थी लेकिन मैंने नवभारत टाइम्स के सांध्य सेवा समाचार में फकत डेढ़ सौ रुपये महीने की नौकरी कर ली।
वजह साफ थी, कि जीवन में मेरा मकसद सिर्फ पत्रकारिता करना ही था। लोगों में उनकी समझ, उनकी पीड़ा, उनकी वेदना और उनकी समस्याओं को उजागर करना ही नहीं, जीवन को समझना भी था। उसकी वजह मेरा बचपन ही रहा है। सम्‍भवत:। मैंने अपना जीवन निर्वहन करने के लिए अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ा। लगातार पत्रकार ही बना रहा हूं। आज भी। आर्थिक संकट से निपटाने के लिए मैंने भिक्षा मांगने की सतत कोशिश की। लेकिन अधिकांश लोग काम निकालने के लिए तो पैसा दे सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता के मूल्‍यों पर अडिग लोगों की मदद नहीं करना चाहते। हां, मैंने कई लोगों को देखा है कि अपना काम फंसने पर वे मिमियाते हुए पैसों का ढेर लगा देते हैं।
यह सन-82 का दौर था। हिन्‍दी पत्रकारिता में जुटे लोग वैसे भी संकट में रहते थे। लेकिन वहां भी बेरोजगार लोगों के प्रति सम्‍मान का भाव जरा कम ही था। लेकिन अमृत प्रभात में मंगलेश डबराल, अनिल सिन्हा, अजय सिंह, प्रद्युम्न तिवारी और ओपी सिंह कंपोजीटर बेहद सहज ही रहे। इनमें शीर्ष रहे प्रमोद झा। मैथिल ब्राह्मण थे। आरएसपीआई एमएल से जुटे थे झा जी। सामाजिक क्रांति के लिए सतत तैयारी कर रहे थे। अमृत प्रभात उनका ठिकाना था। बेहद सहज और सरल। दम्‍भ तो कोसों नहीं, जैसा आज के बड़े पत्रकारों में कूट-कूट कर भरा है। लेकिन करीब 25 साल पहले उन्‍होंने एक मैथिल ब्राह्म्‍ण युवती से विवाह कर लिया। यह विरोधाभास था। एक ओर प्रमोद झा सामाजिक क्रांति के अगुआ होने की राह पर थे, और कहां उनकी पत्‍नी परम्‍परागत मैथिल आचार-विचार की। उसके बाद से ही प्रमोद झा ही लगातार सिमटते ही जाते रहे। श्‍याम अंकुरम ने दोलत्‍ती से बातचीत में बताया कि करीब 15 बरस पहले उनकी मुलाकात तो हुई, लेकिन उन्‍होंने ऐसा व्‍यवहार किया मानो वे मुझे जानते तक नहीं।
अमृत प्रभात में रह चुके प्रद्युम्न तिवारी ने लिखा है कि मन बहुत उचाट है। कुछ मिनट पहले एक मनहूस खबर ने अंदर तक हिला दिया। बज्रघात सी खबर यह है अमृत प्रभात में हमारे वरिष्ठ रहे प्रमोद झा अब हमारे बीच नहीं रहे। उन्हें हम सभी प्यार से भी और आदर से भी दादा कहकर संबोधित करते थे। मैं तो यह कह सकता हूं कि पत्रकारिता के मेरे पहले गुरु वही थे। कैसे खबर को बेहतर बनाना है, एजेंसी की कापी को भी कैसे रिराइट कर देना है, विश्लेषण, लेख की क्या धार होनी, बहुत कुछ सीखा उनसे। उनकी लेखनी के सब कायल थे। फिल्मों के गजब के शौकीन और उसी शिद्दत से उसकी गहन समीक्षा करते थे। जिस विषय पर लिखते, पढ़कर लगता था कि मानो उन्होंने इस पर शोध किया हो। धर्म, अध्यात्म, राजनीति, समाज और साहित्य, शायद ही कोई विशेष उनसे अछूता रहा हो। हर विषय पर गजब की पकड़। मानवीय संवेदनाओं से भरपूर और मनुष्यता की मिसाल थे।
स्वभाव सरल। जूनियर, सीनियर में भेद नहीं। कितनी यादें हैं, क्या क्या लिखूं जैसे समझ ही नहीं आ रहा। अभी हफ्ते भर पहले फोन पर बात हुई थी। थोड़ा बहुत सर्दी जुखाम की बात कर रहे थे। पर कल रात में ही तबियत बिगड़ी। सुबह दिल्ली में ही कुछ साथियों ने अस्पताल में भर्ती करवाया लेकिन वहीं गंभीर हार्ट अटैक पड़ा और दादा अंतिम विदा कह गये।
दादा रुला गये। बहुत याद आओगे
उधर सहारा के दौर के बाद मेरे साथ ही बेरोजगार रहे श्‍याम अंकुरम ने लिखा है कि प्रद्युम्न जी बहुत दिनों से प्रमोद झा जी के बारे में बहुत दिनों से सोच रहा था कि वे कहां होंगे कैसे होंगे ? उनके कई निकटतम मित्रों खासकर गोरखपुर के उनके सहकर्मी मित्रों से पूछा भी किंतु उनके बारे में कुछ भी नहीं बता पाए। आज आपके वाल से उनकी मृत्यु की खबर पढ़ कर मैं स्तब्ध और पीड़ा से भर गया । मेरे लिए यह सूचना हिला देने वाली है। उनके साथ हुई तमाम बहसें ,उनका प्यार उनकी सीख और उनकी प्यार भरी डांटे भी मुझे बहुत याद आ रही है , मुझे मर्माहत कर रही हैं। प्रमोद झा जी मेरी सादर श्रद्धांजलि।

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