दीन के संत शेख फरीद

मेरा कोना

रूखा-सूखा खाय कै ठंडा पानी पीउ, फरीदा, देखि पराई चोपडी ना तरसाए जीउ।

हम तो उस उसके बंदे हैं जो देता है, मगर एहसान नहीं जताता
फकीर ने ठुकरा दिये सुल्‍तान बलबन के सोने-चांदी का टोकरे
बनजारे की तरह तसला भर कर चल देने के बजाय भक्ति कर
यह कहानी है उस फकीर की जिसने सुल्‍तान बलबन को टका सा जवाब दे दिया और बलबन ने आजीवन उसके आगे शीश झुका दिया। धर्म को बिलकुल नये अंदाज में दिखाने वाले ने अद्वैत की वकालत की और भगवान और अल्‍लाह को एक ही बताया। अपनी दरियादिली और बेलौस बात कहने के लिए उन्‍होंने शेर और पदों का सहारा लिया। सन 1188 में मुल्‍तान के कोठेवाल गांव में जन्‍मा इस फकीर का यह तरीका इतना नायाब और असरदार निकला कि उनके 400 साल बाद सिखों के आदिगुरूग्रंथ साहिब में उसे शामिल कर लिया गया। सन 1280 में देह-त्‍यागने वाले इस फकीर का नाम था शेख फरीद।
जमालुद्दीन सुलेमान और करसूम बेगम के इस बेटे का नाम था मसऊद। मां के निर्देश पर उसने पहले मुल्‍तान की मस्जिद के मकतब में शुरूआती और फिर बगदाद में धर्मविज्ञान की पढाई की। वे मानती थीं कि बिना पढालिखा इंसान शैतान का मसखरा होता है और चाहती थीं कि वे तब के प्रसिद्ध विद्वान शेख बख्तियार काकी की शिष्‍यता ग्रहण कर हिन्‍दुस्‍तान जाएं। हिन्‍दुस्‍तान तब आध्‍यात्मिक शिक्षा का केंद्र माना जाता था। लेकिन इसके पहले तप करने के लिए फरीद ने कुएं में उल्‍टा लटक कर कई दिनों तक खुदा की इबादत की। कमर में बंधी थी काठ की रोटी। बदन सूख कर कंकाल होते ही उन्‍हें प्रज्ञा मिल गई और वे रवाना हो गये हिन्‍दुस्‍तान। पहला पडाव बना हरियाणा का हांसी इलाका। फिर आये फरीदकोट। लेकिन इसी बीच वहां के राजा ने अपना किला बनवाने के लिए मजदूरों को पकडना शुरू किया था। फरीद भी पकडे गये। किंवदंती है कि कृषकाय फरीद ने जिस ईंटों भरे टोकरे को उठाया, वह उनके सिर के ऊपर ही रहा। बस फरीद इसके बाद बाबा के रूप में विख्‍यात हो गये। नाम इतना बढा कि मोकलपुर नामक उस जगह का नाम ही फरीदकोट हो गया। इतना ही नहीं, जंगल में रहने वाले इस फकीर से लोगबाग इतने प्रभावित हुए कि उन्‍हें पातनी यानी मल्‍लाह कहना शुरू कर दिया। मतलब यह कि फरीद ही उन्‍हें भवसागर पार करा सकते हैं। ख्‍याति बढते ही अमीर और राजाओं-सुल्‍तानों ने मत्‍था टेकना शुरू कर दिया, लेकर दान को फरीद ने पूरी तरह ठुकरा दिया। बोले- जिन लोगों की जरूरतें जनता पर कर लगाकर पूरी होती हों, उसकी आस करना गुनाह है। फरीद ने कल के लिए कभी कुछ नहीं बचाया। रोज का हिसाब रोज। उनका कहना था कि कल की आशा करने का मतलब है परवदिगार पर अनास्‍था। और बोल पडे-
रूखी सूखी खाई कै ठंडा पानी पीउ,
फरीदा, देखि पराई चोपडी ना तरसाए जीउ।
पंजाब और हरियाणा के चलते फरीद पर हिन्‍दी और संस्‍कृत के शब्‍दों का खूब असर रहा। एकेश्‍वरवाद पर आस्‍था के लिए बाबा ने कहा-
फरीदा खाकु न निंदीए खाकू जेड न कोई,
जीब दिया पैरा तलै मुइआ उपरि होई।
वे नैतिकता और ईमान के पक्षधर रहे। केवल मुसलमान कुल में जन्‍मने से कोई मुसलमान नहीं हो जाता। फरीद तो सभी धर्मों की जरूरत मानते थे। उनका मानना था कि सारा संसार किसी भी समय एक ही धर्मावलम्‍बी नहीं हो सकता। हर मनुष्‍य में भाव अलग है, इसीलिए धर्म के प्रति उसका नजरिया भी अलहदा होता है। और यही वैचारिक भिन्‍नता ही मनुष्‍य को महान और संसार को खूबसूरत बनाती है। उनकी प्रार्थना था कि हे, ईश्‍वर, जगत कभी एक धर्मावलम्‍बी मत बनाना। ऐसा हुआ तो संसार का सामंजस्‍य बिगड जाएगा और विश्रृंखलता आ जाएगी। वे कहते हैं कि मुसलमान वह है जो राह-ए-दीन पर चले, अहंकारमुक्‍त हो, जो मुक्‍का मारे उसे पलटकर मुक्‍का मारने के बजाय प्‍यार दो और पूरी श्रृद्धा के साथ उसके चरणों की धूल लेकर घर चले जाओ। बाबा ने साफ कहा-
मुसलमान कहावणु मुसकलु
जा होई ता मुसलमान कवावै,
अर्बल अउलु दीनु करै मिठा
मसकल माना मानु मुसावै।
होई मुसलिमु दीन नुहाणै
जीवन मरण का मरम चुकावै,
रब की रजाई रखे सिर ऊपरि
करता मने आयु गवावै।
बाबा का कहना था कि दूसरों के दोष देखने में वक्‍त जाया करने के बजाय अपने दोषों को सुधारो। अपना आचरण सुधारो तो संसार अपने आप ही सुधर जाएगा। फरीद का प्रेम धर्म और संप्रदाय-पंथ से कोसों दूर रह कर सभी इंसानों पर समान रूप से बरसा। हर इंसान को वे अनमोल मोती मानते रहे जिसे तोडना सर्वथा अनुचित बताया। उनका कहना था कि अगर परमात्‍मा से मिलन चाहते हो तो कभी किसी का दिल मत तोडो, खुदा अपने आप ही तुम्‍हारे पास आ जाएगा।
सभना मन माणिक ठाहुण मूलि मचांग वा,
जे तउ पिरीया दीस सिक हिआउ न ठाहे कहीदा।
हालांकि अपनी फक्‍कडी के चलते उनके एक बेटे की भूख से मौत हो गयी। लेकिन बाबा ने विलाप करती अपनी पत्‍नी को समझाया कि खुदा का गुलाम शेख फरीद खुदा के हुक्‍म को रोकने का साहस कैसे कर सकता है। तेरा बेटा जहान-ए-फानी से कूच कर ही गया है तो अब इसे सिपुर्द-ए-खाक कर दो।
जैसे विद्यापति को मैथिल भाषा का पहला कवि कहा जाता है, ठीक वैसे ही फरीद भी पंजाबी के प्रथम कवि माने जाते हैं। पंजाब के श्रेष्‍ठतम कवि कहे जाने वाले वारिस शाह ने किस्‍सा हीर का नामक अपनी मशहूर रचना के मंगलाचरण में फरीद बाबा को कामिल-पीर कहकर उनकी वंदना की है। इतना ही नहीं, सिख गुरू नानक देव भी फरीद की बानी से इतने प्रभावित थे कि वे फरीद के काफी बाद उनके सज्‍जादानशीन शेख इब्राहिम से दो बार मिले और बाबा की पंजाबी रचनाओं की मूलप्रति हासिल कर अपनी पोथी में समेट लिया। बाद में नानकदेव के इसी संकलन को सिखों के पांचवें गुरू अर्जुनदेव ने सन 1604 में अपने आदिगुरूग्रंथ साहिब में शामिल कर लिया। गुरूग्रंथ साहिब में शेख फरीद के 112 श्‍लोक और 4 पद शामिल बताये जाते हैं। इनके अनेक शिष्‍यों में फतेहपुरी वाले शेख सलीम चिश्‍ती का नाम प्रमुख रहा है।
बाबा ने कहा- चिंता मेरी खाट है, बान दुख और विरह मेरा बिछावन मेरा गदेला है। यही मेरा जीवन है। इसलिए ऐ मेरे मौला, थोडा मेरी ओर भी नजर डाल लीजिए।
फरीदा चिंत खटोला, वाणु दुखु, बिरहि बिछावणु लेफु,
एह हमारा जीवणा तू साहिब सचे देखु।
मौत पर वे बोले कि आज रंगीन मटकी फूट गयी। जो डोरी कुंए से पानी निकालती थी वह टूट गयी। अजराइल फरिश्‍ता यानी मृत्‍यु का देवता महाकाल आज किसके घर का मेहमान बनेगा। सन 1280 में फरीद ने अपने जीवन की यह डोर इस नश्‍वर जगत से तोडकर सीधे खुदा से जोड लिया।
फरीदा भन्‍नी घडी सुवन्‍नवी टूटी नागर लजु,
अजराईल फरेसता कै धरि नाठी अजु।
लेखक कुमार सौवीर वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों महुआ न्यूज के लखनऊ में यूपी ब्यूरो चीफ हैं. उनका यह लेख लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स अखबार में छप चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है.

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