राम राम अयोध्‍या। हम चले। अब कभी न लौटेंगे

बिटिया खबर

: लसोढ़ा तो धर्म अनुयाइयों को जोड़ता है, लेकिन धर्म-नगरी के पत्‍थरों पर नहीं : अयोध्‍या के महन्‍थों की एक बड़ी आमदनी है सूदखोरी : बहराइच के मीहींपुरवा के रहने वाले थे मुन्‍ना यानी मदन, सड़क पर भीड़ के बावजूद महन्‍थ ने बड़ी देर तक पीटा : रात में ही चुपचाप सपरिवार लापता हो गये मदन भइया :

कुमार सौवीर

लखनऊ : धर्म का सबसे बड़ा तत्‍व होता है दिलों और दिमागों को एकजुट कर देना। एक जुनून सा पैदा कर देना। अपने लोगों में आध्‍यात्मिक ज्‍योति पैदा कर देना, जहां मन चित्‍त शांत हो जाए। और सबसे बड़ी बात यह कि अपने आसपास के पूरे इलाके को एक अद्भुत दैवीय माहौल में बांध कर उसे एक सशक्‍त परिवार की तरह तैयार बन जाए। समरसता का माहौल तैयार हो जाए। दरअसल, किसी मजबूत लसोढ़ा की तरह अपने धर्म के अनुयाइयों को मजबूती के साथ जोड़े रखने का दायित्‍व सम्‍भालता है।
लेकिन अयोध्‍या के मुन्‍ना यानी मदन भइया के साथ ऐसा नहीं हो पाया। मदन भइया का परिचय हम आपको बता देते हैं। यह बहराइच के मीहींपुरवा बाजार के आसपास के किसी कस्‍बे के रहने वाले थे। एक बेटी, एक बेटा, पत्‍नी और मदन भइया। हालांकि मदन भइया ने अपने मुंह से कोई बात नहीं की, लेकिन उनके हावभाव से साफ अहसास हो जाता है कि बहराइच वाले मीहीं पुरवा वाली जिन्‍दगी से मदन भइया संतुष्‍ट नहीं थे। वजह न तो उन्‍होंने कभी बतायी, और न ही हमने पूछने की हिम्‍मत ही जुटायी। जानकारी सिर्फ इतनी भर थी मदन भइया अयोध्‍या की एक गली में अपनी दूकान और उससे जुड़े एक कमरे में ही अपना डेरा डाले हुए थे। दूकान किराने वाले थी, जिसमें आटा, चावल, दाल और मसाले के अलावा नमक, मसाला, डली, कत्‍था जैसे सैकड़ों सामान बिकते थे। छोटी दूकान थी, लेकिन छोटा-छोटा डब्‍बा, बोरी या पुडि़या में मदन भइया ने सब कुछ समेट लिया था। किसी को कुछ भी जरूरत हो, किसी भी वक्‍त हो, तड़ से मदन भइया बिना किसी त्रुटि के उस माल को निकाल कर अंदाजा से ही निकाल कर ग्राहक को थमा देते थे। दाल, चावल, आटा जैसे सामान को तौलने के लिए मदन भइया ने एक तराजू भी रख देता था। बेईमानी से कोसों दूर रहने वाले मदन भइया की ईमानदारी की ख्‍याति काफी दूर तक थी।
ऐसा नहीं कि मदन भइया हमेशा अपनी दूकान में ही सरकारी कामकाज की तरह सिस्‍टमेटिक अंदाज में खोलते या बंद करते हों और पूरे दौरान दूकान में ही सालिगराम-पिण्‍ड की तरह ही स्‍थापित रहते हो। बल्कि उनका काम धंधा के बजाय, जनसेवा से ज्‍यादा था। उसकी वजह भी थी। दरअसल, जिस गली में मदन भइया का डेरा था, वह घनी आबादी हुआ करती थी। पास ही हनुमान गढ़ी, रामजन्‍म स्‍थल वगैरह-वगैरह। धंधा ज्‍यादा तो नहीं चलता था, लेकिन कम भी नहीं था। बस, दिक्‍कत इतनी भर जरूर थी कि मदन भइया किसी भी ग्राहक को मना नहीं कर पाते थे। चाहे उधार देना हो, या फिर दूसरे की मदद। उधार देना तो उस पूरे अयोध्‍या में एक सहज से बात थी, लेकिन दूसरे की मदद के लिए हमेशा तत्‍पर रहने वाले मदन भइया पूरे इलाके में अपने आप में बेमिसाल हुआ करते थे। कोई किसी भी दिक्‍कत में हो, किसी को कोई सामान उठाना हो या किसी को कोई जरूरत पड़ गयी हो, दूकान अपनी पत्‍नी के हवाले कर मदन भइया हमेशा तैयार।
चूंकि उधारी देना उनके धंधे और आसपास की आबादी का अहम हिस्‍सा होता है। यह प्रथा आज भी जारी है, इसलिए वक्‍त-बे-वक्‍त मदन भइया को पैसों की जरूरत पड़ती ही रहती थी। वैसे भी उधारी करना और उधारी लेना किसी भी धंधे का बड़ा अहम रिश्‍ता होता है। इसलिए मदन भइया जबकि अपने पड़ोस के एक बड़े मठ के महन्‍थ से उधार मांग लिया करते थे। लेकिन जैसा कि अयोध्‍या की परम्‍परा थी, कोई भी महन्‍थ बिना किसी लाभ कोई भी दमड़ी तक किसी को नहीं देता था। धर्म-कर्म अलग बात है, लेकिन पुरुषोत्‍तम श्रीराम की धर्म-नगरी अयोध्‍या में कोई भी महन्‍थ बिना ठोस लाभ के कटे पर पेशाब तक नहीं करता। बड़ा संकट था। ग्राहक जब उधार मांगेगा, तो वापसी में दिक्‍कत तो होगी, लेकिन उसकी अदायगी में कोई अतिरिक्‍त फायदा नहीं होगा। इस बात की भी गारंटी नहीं कि वह उधारी समय से होगी या नहीं, या उधारी की मियाद क्‍या होगी। लेकिन इतना जरूर तय है कि जब महंथ से पैसा मांगा जाएगा, तो वह भारी ब्‍याज पहले काट कर ही पैसा देगा, और साथ ही ताकीद भी कर देगा कि उसका ब्‍याज बिलकुल ठीक टाइम पर उसके पास पहुंच जाना चाहिए। शर्त यह भी जरूर थी कि एक महंथ से अगर पैसा ले लिया, तो दूसरा वाला महन्‍थ कभी भी उसे उधारी नहीं देगा। यह अलिखित कड़ा अनुबंध था। लेकिन हैरत की बात है कि यह अनुबंध देनदार और लेनदार के बीच होता है। बल्कि यह अनुबंध महन्‍थों के बीच हुआ करता था कि एक के आसामी को दूसरा महन्‍थ नहीं तोड़ेगा।
लेकिन मदन भइया पर इस तरह के अनुबंधों की शर्तें बहुत भारी पड़ जाती थीं। खास कर तब, जब अनुबंध के दूसरों के शर्तों से इतर भी वे मुताबिक पूरी सरलता और सहजता के साथ उधार दे दिया करते थे, बिना इस तरह की सोच-बिचार के, कि उधारी कब मिलेगी। हमेशा तनाव में ही रहते थे मदन भइया, लेकिन इसके बावजूद उनका व्‍यवहार अलग ही था। दूसरों की मदद करते रहना और उधारी में कभी भी मना नहीं करना ही तो उनके जी का जंजाल बना रहता था। वे जितना भी अपने को सम्‍भालने की कोशिश करते, नीयत उनको लगातार दलदल में धंसाने में जुटा रहती। महंथ ने भी उनको भी धमकाना शुरू कर दिया था।
एक दिन संयम टूट गया महंथ का। उधार काफी बढ़ गया था, कई बार कहने और ब्‍याज तक वापस कर पाने की शर्तों को वे कई बार तोड़ चुके थे। उसके लिए महंथ ने उन्‍हें कई बार बुरी तरह धमकाया भी था, लेकिन महन्‍थ के चरणों में अपना सिर झुका कर मदन भइया ने उनसे हर बार मोहलत मांग रखी थी। लेकिन मदन भइया अपना वायदा समय से नहीं कर पाते थे, अक्‍सर ही। आखिर मदन भी क्‍या करते, कहां से डिमांड और सप्‍लाई की कड़ी तैयार कर पाते। दिनरात अपने परिवार, दूकान, ग्राहकों और दूसरों की जरूरत पर खड़े होने के बीच मदन भइया बिलकुल चकरधिन्‍नी बन गये थे। जब देखो, महंथ का आदमी उनकी दूकान पर पहुंच कर बीस बातें सुना देता था। धमकी घाते में, कि अगली महन्‍थ जी अगर आ गये, तो तुम्‍हारे के पिछवाड़े में बिना छीला बांस घुसेड़ देंगे कि जिन्‍दगी भर चूतर चियार-चियार कर ही सहारा इंडिया वाले सुब्रत राय की तरह ही चलते रहोगे।
एक दिन आखिरकार इंतिहा हो ही गयी। महंथ जी एक दिन शाम को मदन भइया की दूकान के सामने आ गये। मदन भइया ने लपक कर उनका चरण-स्‍पर्श करना ही चाहा था कि महन्‍थ ने उनको टांगों में खींचा और दे मारा सड़क पर। देखते ही देखते लोगों की भीड़ जुट गयी। फुटबाल की तरह मदन भइया उस महन्‍थ के पैरों, हाथों में पीटे जा रहे थे। करीब 20 मिनट तक यही सब चलता रहा। भीड़ जमी रही, लेकिन उसके बाद महन्‍थ जी दो दिन की चेतावनी देकर अपने मठ की ओर चले गये, कि उसके बाद जिन्‍दा नहीं छोड़ेंगे। महन्‍थ जी चले गये, भीड़ भी छंटने लगी। मदन भइया सड़क पर बुरी तरह चोटहिल हुए पड़े रहे। शायद बेहोश रहे होंगे। उनकी पत्‍नी और बच्‍चे मदन भइया पर सड़क पर ही लिपटे ही रहे। रात हो गयी। कब मदन भइया सड़क से उठे, कब दूकान के भीतर अपने कमरे में गये और कब सोये, पता ही नहीं चला।
लेकिन सुबह लोगों ने पाया कि मदन भइया अपनी पत्‍नी और अपने दोनों बच्‍चों के साथ हमेशा-हमेशा के लिए अयोध्‍या से चले गये हैं। कहां गये हैं, किसी को पता ही नहीं। घर का सामान भी वहीं पड़ा था। दूकान जस की तस पडी थी। शायद मदन भइया जी पूरा हिसाब महन्‍थ जी को सौंप गये थे कि मेरे पास इससे ज्‍यादा कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है, इस दूकान में ही है। कपड़े भी हैं, जो भी समझ में आये, उसे अपनी उधारी में एडजेस्‍ट कर देना। बेईमान कौन है, हमें नहीं पता, और न ही हम किसी पर कोई आरोप ही लगाना चाहते हैं। हम तो सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि कम से कम हम बेईमान नहीं थे। लेकिन इंसानी रिश्‍तों में मानवीय संबंधों में तो लसोढ़ा की गोंद तो रिश्‍तों को मजबूत कर देती है, लेकिन निष्‍ठुर पत्‍थरों को कत्‍तई नहीं।
अब हम तो चले पता नहीं किस ठौर। राम राम अयोध्‍या। अब कभी भी अयोध्‍या नहीं आयेंगे।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– नौ )

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