पुत्री-वत युवती से इश्‍क लड़ा बैठे संपादक, थूथुन लटक गया

दोलत्ती

: न घर के रहे, न दफ्तर के, कामधाम दक्खिन : सिर्फ सिसकियां-सुबकियां भरते हैं, फूले गुब्‍बारे जैसे थे, अब चियां सा लटक गया मुंह : युवती के बाप की उम्र जितनी है चण्‍डूल सम्‍पादक जी की :

कुमार सौवीर

लखनऊ : इश्‍क एक दिलचस्‍प शै है। कुदरत ने इंसान की फितरत में अपलोड कर रखी है। क्रिकेट की शुरुआत में होने वाले टॉस यानी सिक्‍के की तरह, जैसे सिर-पुतली। इधर पलटी तो जिन्‍दगी को जिन्‍दगी मिल गयी, और लगे दनादन बैटिंग में क्रीज पर खड़े कर छक्‍का-चौवा लगाने। लेकिन अगर तनिक भी चूक गये, तो समझो मामला ढक्‍कन। ऐसी हालत में ढक्‍कन का अर्थ होता है दक्खिन हो जाना।

लखनऊ के एक बड़े पत्रकार आजकल इसी तरह के भाव में दक्खिन हो चुके हैं। वजह है इश्‍क में गिरफ्तार हो जाना। वैसे इश्‍क के जंजाल यानी प्रेम-जाल में फंस जाना न कोई अपराध है और न ही कोई अनैतिक कर्म। लेकिन यहां मामला पलटा हुआ है। यह पत्रकार साहब बाकायदा शादी-शुदा हैं, और बाल-बच्‍चों के साथ पत्‍नी के साथ सुखद दाम्‍पत्‍य जीवन में झकाझोर जुटे हैं। लेकिन इश्‍क ने उनकी जिन्‍दगी को फिलहाल तबाह-बर्बाद करना शुरू कर दिया है।

यह हैं एक दैनिक समाचारपत्र के संपादक। उम्र अब रिटायरमेंट जितने भर की हो चुकी है। नाम भी माशा-अल्‍लाह खूब कमा लिया। धन-दौलत भी बेशुमार हैं। वे अब खुद को स्‍कूल ऑफ थॉट के तौर पर विख्‍यात करने में जुटे रहते हैं, ताकि चेले-चपाटों की सेवा-सुश्रुषा का दैवीय सुख मिलता ही रहे। सुख-सुविधा स्‍वत: लपक कर आ जाएगी, जैसे वह तन्‍वंगी गंगा सी हरहराती युवती। छरहरी, दुग्‍ध-स्‍नान के बाद प्रतीक्षा-विश्राम की शैया पर आह्वान कर रही हो। उसकी शैली को देखता तो हनुमान-गोत्र की तरह के सजातीय लोग उचक कर यौवन-मद में मस्‍त हो गये। जैसे सुमित्रानंदन पंत की लेखनी अचानक कूद कर नौका-विहार लिखने लगी।

शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,
लहरे उर पर कोमल कुंतल।
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,
सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर। वगैरह-वगैरह।

इसे देखते ही सम्‍पादक ने पाया कि उनका बदन थरथराने लगा है। कंपकंपाने लगा अन्‍तर्मन। जीवन में अब तक जुटायी गयी सारी दौलत, ऐश्‍वर्य, नाम, धर्म आदि सब कुछ निरे आडम्‍बर की तरह निर्मूल्‍य लगने लगे। व्‍यर्थ की तरह। साफ लगा कि अब इसी षोणशी ही तो उनके जीवन काअंतिम ध्‍येय है, जिसको न मिल पाने से ही मैं बचपन से ही स्‍वयं में रीतापन महसूस करता रहा हूं। चलो, अच्‍छा ही हुआ कि अब इस रीते भृड़भाण्‍ड में अमृत तो भर जाएगा। उन्‍हें साफ लगा कि इस पूर्णता की प्राप्ति होने के बाद अब वे अपना जीवन सार्थक कर चुके हैं। बधाई, स्‍वयं को बधाई।

दरअसल, यह षोडशी उनके दफ्तर में ट्रेनी पत्रकार के तौर पर आयी थी। लेकिन एक ही नजर में संपादक जी की जिन्‍दगी बन गयी। पात्र को अमृत मिल गया, तो दोनों ही अपना जीवन सार्थक साबित करने लगे। लेकिन उन राहु-केतु जैसे नराधमों का क्‍या कहा जाए कि उन्‍होंने इन दोनों की प्रेम-गाथा में विष भरना शुरू कर दिया। चर्चाओं की खुसफुस का लीकेज बहुत जल्‍दी ही किसी बड़े पनाले-झरने की तरह फैलने लगा। शीरीं-फरहाद, लैला-मजनूं, और लौर-लफण्‍डरों की गाथाएं बाजार से होते हुए संस्‍थान के मुख्‍यालय में मशहूर हो गयी।

संपादक के करीबियों ने मोर्चा खोला और लखीमपुरी-विष का दंश का इलाज कर उसे किसी दूसरी यूनिट में भेज दिया।

लेकिन अब संपादक जी की हालत खुजैले कूकुर की तरह हो गयी है। उन उठ पार रहे हैं, और न ही विश्राम। नींद चली गयीं है तेल लेने। नींद की दवाओं घर में झंझट ने किक-पर-किक मारना शुरू कर दिया है। दफ्तर में मन नहीं लगता है। बात-बात पर झुंझला उठते हैं। दफ्तर का काम ही दक्खिन होता जा रहा है। पहले जिस ब्रीफकेस में ताकत वाली दवाओं का भंडार हुआ करता था, वहां अब नैराश्‍य, अनमनापन, अवसाद, गुस्‍सा, ब्‍लडप्रेशर, तनाव और अन्रिद्रा की बाकायदा दूकान खुल जाने जैसा माहौल होने लगा है।

अब तो लोग यह तक कहने लगे हैं कि:- काम लग गया इस संपादक का

1 thought on “पुत्री-वत युवती से इश्‍क लड़ा बैठे संपादक, थूथुन लटक गया

  1. गुरुवर। सादर साष्टांग दंडवत् प्रणाम्–समा बांध दिया संपादक का –@आंख खुल जाये अपने हाथ जगन्नाथ की—थू थू से बच जाये जिंदगी–
    ये मन की गति थम जाय —-

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