: बुर्का-घूंघट को लेकर मचे बवाल से अब आजिज हो गया हूं मैं : कपड़ा पहनने-बदलने का काम अब ड्राइंग-रूम के बजाय अब अंखाड़े पर पहुंचा : किसी कपड़े से लूज या टाइट करेक्टंर का पता लगाया जा सकता है :
कुमार सौवीर
लखनऊ : कपड़ा उतारने-पहनाने का काम ड्रेसिंग-रूम के बजाय अब अखाड़ा-दंगल तक पहुँच गया है। रोज-ब-रोज नयी सलाहें-सिफारिशें और कायदे-कानून। बुर्का समर्थक कहते हैं टाइट कपड़ों से करेक्टर ढीला हो जाता है, शर्म डूब मरती है, धर्म-भ्रष्ट और ढीले कपड़ों से करेक्टर टाइट हो जाता है। उधर बुर्का-विरोधी कहते हैं कि टाइट कपड़ों से प्रगतिशीलता आती है, विकास व नई सोच के झोंके आते हैं और माहौल बनता है इंसानियत के लिए।
दोस्तों ! मैं कंफ्यूजियाय गया हूँ। बुर्का और ढीले कपडे से करेक्टर की टाइटनेस कैसे, और टाइट कपड़ों से ढीला चरित्र कैसे उठता-गिरता है?
हे ईश्वर ! इस झगड़े से बेहतर तो यह होता कि अल्लाह कपड़े ही नहीं देता। कम से कम कपड़ों को लेकर ऐसा कुकुर-झौझौ तो नहीं होता।
ख़ैर, मैं तो सोच रहा हूं कि छाती ढांपने के लिए कोई दुशाला खरीद लूं और नीचे के लिए कोई मस्त-मस्त ढीला-ढाला जम्फरनुमा पेटीकोट। कम से कम करेक्टर के टाइटनेस का प्रमाणपत्र तो मिल जाएगा। है कि नहीं?
बुर्का-विरोध भी हो जायगा और ढीला कपड़ा पहनने की परंपरा का पालन भी।
अब सलाह यह दीजिये कि मारकीन या लट्ठा का पेटीकोट बनवाना बेहतर होगा या फिर कोई साटन या रेशमी? जब भी मन चाहा तो पिंडली तक पेटीकोट उठा कर मुंह पोंछ लिया, तो कभी चश्मा साफ़ कर लिया। न न न, अरे यार टेरीलीन हर्गिज नहीं। खजुआते-खजुआते तो करेक्टार की तेरहवीं-बरसी हो जाएगी।