: मीडिया की नजर में लावारिस लाशों का धाम है अयोध्या : 30 बरस पहले इसी मीडिया ने जहर फैलाया था कि सरयू का जल खून से रंग गया : झूठे आंकड़े परोसने में हिन्दू-वादी टीवी चैनल और अखबार अव्वल : मूर्खताओं को सच का मुलम्मा पहनानाने वास्तविकता कराहने लगती :
कुमार सौवीर
फैजाबाद : किसी भी बेहतरीन काम की वाहवाही करना एक पवित्र धर्म है। लेकिन दिक्कत तो तब होने लगती है, जब ऐसी वाहवाही में झूठ की चाशनी परोसने की कोशिशें होती हैं। ऐसी हालत में मूर्खताओं को सच का मुलम्मा पहनाना जाता है, जबकि वास्तविकता कराहने लगता है, जबकि समाज में कठोर परिश्रम और सच की लहलहा सकने वाली फसल पर माहू लगने लग जाता है। वे बढ़ने से पहले ही मुरझा जाती हैं।
अयोध्या में यही हुआ। यहां के एक महान समाजसेवी मोहम्मद शरीफ को हाल ही राष्ट्रपति ने पद्मश्री सम्मान दिया था। मोहम्मद शरीफ ने यहां की लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने का एक ऐसा दायित्व अपने धर्म में शामिल किया, जो सामान्य तौर पर कोई दूसरा सोच भी नहीं कर पाता। सायकिल मरम्मत से अपना आजीविका करने वाले फैजाबाद के मो शरीफ शरीफ के एक बेटे की मृत्यु हो गयी थी। पता ही नहीं चल पाया था कि उस बेटे की अन्त्येष्टि किस तरह की गयी। मर्माहित मो शरीफ ने तय किया कि अब वे ऐसी हर लाश की अन्त्येष्टि करेंगे, जिसका अन्तिम संस्कार करने वाला कोई न हो। यह बात करीब 28 बरस पहले की है।
फैजाबाद के डीएम रह चुके डॉ अनिल पाठक बताते हैं कि अपने इस दायित्व के तहत मो शरीफ ने करीब ढाई हजार लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार किया है। नवभारत टाइम्स के वीएन दास बताते हैं कि मो शरीफ ने करीब एक हजार हिन्दू और करीब दो हजार मुसलमान लाशों का अंतिम संस्कार किया है। उधर भास्कर डॉट कॉम के रमेश मिश्र के मुताबिक मो शरीफ ने करीब साढ़े तीन हजार लाशों की अन्त्येष्टि की है। फैजाबाद के जमीनी महक सूंघने वाले पत्रकार राजेंद्र सोनी का भी आंकड़ा साढ़े तीन से चार हजार तक है।
लेकिन बाकी चैनलों और अखबारों ने तो मो शरीफ के ऐसे अभियान पर झूठ की ऐसी पॉलिश कर दी, कि इस पुनीत दायित्व का कचूमर ही निकल गया। चाहे वह दैनिक जागरण हो, अमर उजाला हो, पंजाब केसरी हो, जी न्यूज चैनल हो, एबीपी हो, पत्रिका हो या फिर कोई दीगर अखबार या चैनल। इन सब मीडिया संस्थानों ने मो शरीफ के इस धर्म को पचीस हजार लाश तक उचका दिया। उन्होंने अयोध्या को लावारिस लाशों की मंडी बना कर वहां संख्याओं की बोलियां लगाना शुरू कर दिया। इतना कि, इस मामले में अब मोहम्मद शरीफ और उनके परिवारी जन कोई जवाब देने में ही हिचकने लगे हैं। आखिर जब कोई चादर ढाई हजार से पचीस हजार लाश तक फाड़ दी गयी हो, तो रफूगर उसे कितना और कितना रफू कर सकता है। बेहतर है कि खामोश ही रहो। इसके तीस बरस पहले भी फैजाबाद के अखबारों ने अपनी नंगई का खुला प्रदर्शन किया था। दो नवम्बर-90 में यहां हुई पुलिस फायरिंग में मारे गये कारसेवकों की संख्या को एक अखबार ने एक सौ, दूसरे अखबार ने पांच सौ,और एक तीसरे ने एक हजार लाशों का दावा किया था। इतना ही नहीं, बेशर्मी की हालत तो उससे भी ज्यादा तब हुई, जब एक अखबार ने यह दावा कर दिया कि अयोध्या की फायरिंग में हुई लाशों के खून से सरयू नदी का पानी ही लाल हो गया था।
लेकिन मीडिया की ऐसी बेहूदगियों ने समाज में जहां-तहां उगे दरख्तों की अनदेखी कर दी। प्रदेश के अधिकांश जिलों में कई सामाजिक संगठन या समाजसेवी लोग ऐसे दायित्वों को सम्भालते हैं। एक राष्ट्रीय दैनिक समाचार तरुणमित्र के संस्थापक-संपादक कैलाशनाथ सिंह के बारे में दोलत्ती डॉट कॉम ने विस्तार से खबर लिखी थी। स्वर्गीय कैलाशनाथ ने अपने साथियों के साथ जौनपुर में पिछले करीब 25 बरसों के बीच 1965 लावारिस लाशों की अन्त्येष्टि करायी है। लेकिेन पत्रकार होने के बावजूद कैलाशनाथ को वह पहचान नहीं मिल पायी, जो फैजाबाद वाले मो शरीफ को। वजह थी समाज के विभिन्न सामुदायों का चरित्र और उसके दुराग्रहों से लिथड़ी मीडिया। यही वह कारण था कि सामाजिक पीड़ा से उठे कैलाशनाथ और बेटे की मौत से आहत मो शरीफ के अभियान में भी समाज और मीडिया ने निहायत बेहूदी खाई खोद दी। जौनपुर में खुद को बड़ा दिग्गज जाति-प्रमुख गिरोहों ने कैलाशनाथ के निस्वार्थ दायित्वों को पहचान देने से ही इनकार कर दिया, बल्कि कई मौकों पर उनको नीचा दिखाने तक की कोशिश कर दी, उन्हें अपमानित किया। जबकि मो शरीफ के दायित्व को फैबाजाद के सभी समाज ने हाथोंहाथ लिया। इसका मौका उठाया मीडिया ने, जिसने मो शरीफ के इस दायित्वों पर दस गुना झूठ पोतना शुरू कर दिया।