सूचना का जमीनी पुर्जा है मुखबिर, लेकिन उसका भुगतान कौन करेगा

मेरा कोना

: किसी पर एनएसए तामील करना हो तो उसका खर्चा कम से कम तीन हजार रूपया, लेकिन मिलता एक धेला तक नहीं : हर खबर तत्‍काल चाहता है हर अफसर, लेकिन मोबाइल का खर्चा सिपाही-दारोगा के माथे पर : थाना के सारे खर्चे एसओ के खाते में, लेकिन अब क्‍या डकैती डाल दे पुलिसवाला : अंक-तीन

पुलिसवाला

लखनऊ : (गतांक से आगे) इसके अलावा पुलिस विभाग का सूचना-तंत्र काफी हद तक स्थानीय मुखबिरों पर ही निर्भर होता था. लेकिन चूंकि मुखबिरों को देने के लिए विभाग के पास अपना कोई फंड नहीं होता इसलिए अच्छे मुखबिर मिलना अब मुश्किल होता है. वही व्यक्ति अब पुलिस को सूचना देने में रुचि रखता है जिसका अपना कोई स्वार्थ हो.

पिछले वर्ष पुलिस विभाग से रिटायर हुए इंस्पेक्टर नरसिंह पाल बताते हैं, ‘कोई भी भ्रष्टाचार का आरोप बड़ी आसानी से लगा देता है, लेकिन भ्रष्टाचार के पीछे कारण क्या है, इसे जानने की कोशिश न तो अधिकारियों ने कभी की और न ही किसी सरकार ने. चाहे जिसका शासन हो, सबकी मंशा यही होती है कि अधिक से अधिक अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई हो. ठीकठाक अपराधियों पर एनएसए लगाने के लिए अधिकारियों का दबाव भी होता है. एक एनएसए लगाने में थानेदार का करीब तीन चार हजार रुपये खर्च हो जाता है. इस खर्च में 100-150 पेज की कंप्यूटर टाइपिंग, उसकी फोटो कॉपी, कोर्ट अप्रूवल और डीएम के यहां की संस्तुति तक शामिल होती है. पुलिस विभाग तक की फाइल जब सरकारी कार्यालयों में जाती है तो बिना खर्चा-पानी दिए काम नहीं होता. यह खर्च भी थानेदार को अपनी जेब से देना पड़ता है.’

न्‍यूज पोर्टल www.meribitiya.com से बातचीत के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश में तैनात एक डीआईजी कहते हैं, ‘विभाग में हर कदम पर कमियां हैं. योजनाओं को ही लीजिए. सरकार योजना शुरू तो कर देती है लेकिन उसे चलाने के लिए भविष्य में धन की व्यवस्था कहां से होगी इस बारे में नहीं सोचती.’ उक्त डीआईजी एक उदाहरण देते हुए बताते हैं कि सरकार की ओर से प्रदेश भर के थानों को कंप्यूटराइज्ड कराने के लिए बड़ी तेजी से काम हुआ. जिन थानों में ठीक-ठाक कमरों की व्यवस्था तक नहीं थी उन जगहों पर थाना प्रभारी ने अधिकारियों के दबाव में किसी तरह व्यवस्था कर कंप्यूटर लगवाने के लिए कमरे दुरुस्त कराए. लेकिन कंप्यूटरों के रखरखाव के लिए कोई बजट नहीं मिला. मतलब साफ है, यदि कंप्यूटर में कोई खराबी आती है तो थानेदार या मुंशी अपनी जेब से उसे सही करा कर सरकारी काम करें.

उक्त डीआईजी कहते हैं, ‘सूचना क्रांति का दौर है, हर अधिकारी चाहता है कि उसके क्षेत्र में कोई भी घटना हो, सिपाही या दारोगा उसे तत्काल मोबाइल से अवगत कराएं. लेकिन समस्या यह है कि पुलिस कर्मियों को मोबाइल का बिल अदा करने के लिए एक रुपया भी नहीं मिलता. थानों में स्टेशनरी का बजट इतना कम होता है कि यदि कोई लिखित शिकायत थाने में देना चाहता है तो मजबूरी में मुंशी पीड़ित से ही कागज मंगवाता है और उसी से फोटोस्टेट भी करवाता है. कभी-कभी मुंशी यह सुविधाएं अपने पास से शिकायती को दे देते हैं तो सुविधा शुल्क वसूल करते हैं. ऐसे में आम आदमी के दिमाग में पुलिस के प्रति गलत सोच पनपना लाजिमी है.’(क्रमश:)

पुलिसवाला। यह शब्‍द ही हमारे समाज के अधिकांश ही नहीं, बल्कि 99 फीसदी जनता की जुबान पर किसी गाली से कम नहीं होता है। लेकिन इस गाली के भीतर घुसे उस इंसान  के दिल में कितनी पीड़ा के टांके दर्ज हैं। पुलिसवाला कि नर्क या दोजख का बाशिंदा नहीं होता है। परिग्रही भी नहीं होता। वह भी इंसान होता है। जैसे हम और आप। लेकिन हालात किसी को भी कितना तोड़-मरोड़ सकते हैं, इसे समझने के लिए आइये, यह दास्‍तान पढि़ये। यह पीड़ा है, जो खबर की तर्ज पर है। एक संवेदनशील पुलिसवाले ने इस रिपोर्ताज नुमा इस लेख श्रंखला को मेरी  बिटिया डॉट कॉम को भेजा है। यह हम इसे चार टुकड़ों में प्रकाशित करने जा रहे हैं। इसकी अन्‍य कडि़यों को देखने-पढने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:- दारोगा जी ! सूजी है ?

जो रकम मुखबिरों के हिस्से की थी, अफसरों ने डकार लिया

तबाह मुखबिर-तंत्र ने अफसरों को मालामाल और समस्या को विषम बनाया

अब सिर्फ मोबाइल सर्विलांस तक ही सिमटे हैं ”नयनसुख” अफसर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *