: आगरा के बच्चे के अपहरण को दबोचने के लिए राजस्थान गयी पुलिस टीम, खर्चा धेला तक नहीं मिला : चौबीस घंटे तक आप मुल्जिम को थाने पर दबोचे रखेंगे, उसके भोजन की व्यवस्था कहां से आयेगा, सोचा किसी ने : यहां दारोगा का नाम पाण्डे नहीं, पासवान भी हो सकता है, लेकिन समस्या यथावत है : अंक-दो
पुलिसवाला
लखनऊ : (गतांक से आगे) इनमें पहली जरूरत है संसाधनों की. आप जरा इस समस्या को आगरा में हुए एक हादसे से जोड़ कर देखिये तो आपको पता चलेगा कि दरअसल यह मामला कितना संगीन और संवेदनशील है।
जैसा कि आगरा में तैनात रहे एक थानेदार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘हमारे यहां से एक बच्चे का अपहरण हो गया. सर्विलांस से पता चला कि अपहरणकर्ता बच्चे को राजस्थान लेकर गए हैं. बदमाशों का पता लगाने के लिए कई टीमों को लगाया गया. सभी टीमें निजी वाहनों से राजस्थान के शहरों की खाक छानती रहीं. सफलता भी मिली. लेकिन पूरे ऑपरेशन में 50 हजार से ऊपर का खर्च हुआ. गाड़ियों में डीजल डलवाने से लेकर टीम के खाने-पीने तक का जिम्मा थाने के मत्थे रहा. इसमें कुछ दरोगाओं ने भी अपने पास से सहयोग किया. आप ही बताइए, जिस पुलिस विभाग के कंधों पर सरकार ने गांव से लेकर शहर तक शांति, अपराध रोकने और लोगों के जानमाल की सुरक्षा का जिम्मा दे रखा है उसे क्यों इतना भी बजट और अन्य संसाधन नहीं दिए जाते कि वह किसी अपराधी को पकड़ने के लिए बाहर जा सके?’
यह अकेला उदाहरण नहीं. न्यूज पोर्टल www.meribitiya.com से बातचीत के दौरान सब इंस्पेक्टर अजय राज पांडे बताते हैं कि संसाधनों से जुड़ी दिक्कतें कई मोर्चों पर हैं. वे कहते हैं, ‘यदि कोई दरोगा या सिपाही किसी मुल्जिम को पकड़कर थाने लाता है तो मुल्जिम की खुराक का जिम्मा थाने का होता है. पूछताछ के बाद 24 घंटे में उसे न्यायालय में पेश करना होता है. 24 घंटे यदि मुल्जिम को थाने में रखा गया तो दो बार खाना तो खिलाना ही पड़ेगा. इसमें एक मुल्जिम पर गयी-बीती हालत में भी कम से कम सौ-पचास रुपये खर्च हो जाते हैं. जबकि सरकार की ओर से हवालात में बंद होने वाले मुल्जिम की एक समय की खुराक पांच रुपये ही निर्धारित है.
ऐसे में पुलिसकर्मी या तो अपनी जेब से यह रुपये मुल्जिम पर खर्च करें या थाने के आसपास के किसी ढाबेवाले पर रौब गालिब कर फ्री में खाना मंगवा कर मुल्जिम को खिलाएं. पुलिस यदि फ्री में खाना मंगवाती है तो कहा जाता है कि वह वसूली कर रही है. लेकिन अपने पास से खाना खिलाएंगे तो कितना वेतन घर जा पाएगा? इसके अलावा सब इंस्पेक्टर को गश्त के लिए सरकार की ओर से मात्र 350 रुपये प्रतिमास ही भत्ते के रूप में मिलता है. जिससे सिर्फ सवा छह लीटर तेल ही आ सकता है. जबकि एक सब इंस्पेक्टर प्रतिदिन गश्त में कम से कम डेढ़ लीटर तेल खर्च करता है.’
विभाग का जो कर्मचारी (सिपाही) सबसे अधिक भागदौड़ करता है उसे ईंधन के लिए एक रुपया भी नहीं मिलता. जैसा कि पांडे कहते हैं, ‘सिपाही को आज भी साइकिल एलाउंस ही मिलता है. यह हास्यास्पद है कि अपराधी एक ओर हवा से बातें करने वाली तेज रफ्तार गाड़ियों का इस्तेमाल कर रहे हैं और दूसरी ओर अधिकारी व सरकार इस बात की उम्मीद करते हैं कि सिपाही साइकिल से दौड़ कर हाइटेक अपराधियों को पकड़े.
नाम न छापने की शर्त पर पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (एसओजी) में तैनात एक कांस्टेबल बताते हैं कि अधिकारियों से लेकर दरोगा तक का दबाव होता है कि सिपाही भी ‘गुडवर्क’ लाकर दे. वे कहते हैं, ‘गुडवर्क के लिए गली-मोहल्लों की खाक छाननी पड़ती है जो साइकिल से संभव नहीं है. थाने में तैनात एक सिपाही भी गश्त के दौरान करीब 45 लीटर तेल महीने में खर्च कर देता है, जबकि उसे मिलता एक धेला भी नहीं. थानों में तैनात कुछ सरकारी मोटरसाइकलों को ही महीने में विभाग की ओर से तेल मिलता है. लेकिन इनसे केवल 8-10 सिपाही ही गश्त कर सकते हैं, शेष को अपने साधन से ही गश्त पर निकलना पड़ता है. ऐसे में नौकरी करनी है तो जेब से तेल भरवाना मजबूरी है.’ (क्रमश:)
पुलिसवाला। यह शब्द ही हमारे समाज के अधिकांश ही नहीं, बल्कि 99 फीसदी जनता की जुबान पर किसी गाली से कम नहीं होता है। लेकिन इस गाली के भीतर घुसे उस इंसान के दिल में कितनी पीड़ा के टांके दर्ज हैं। पुलिसवाला कि नर्क या दोजख का बाशिंदा नहीं होता है। परिग्रही भी नहीं होता। वह भी इंसान होता है। जैसे हम और आप। लेकिन हालात किसी को भी कितना तोड़-मरोड़ सकते हैं, इसे समझने के लिए आइये, यह दास्तान पढि़ये। यह पीड़ा है, जो खबर की तर्ज पर है। एक संवेदनशील पुलिसवाले ने इस रिपोर्ताज नुमा इस लेख श्रंखला को मेरी बिटिया डॉट कॉम को भेजा है। यह हम इसे चार टुकड़ों में प्रकाशित करने जा रहे हैं। इसकी अन्य कडि़यों को देखने-पढने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिए:- दारोगा जी । सूजी है ?