मर्द की औकात तो उसके घर की नेमप्‍लेट तक है। उसके बाहर …

बिटिया खबर

: आप कभी मिले हैं अमृतलाल नागर जी से ? आइये, उनसे मिलिए : प्रो अरुण कुमार सिंह को सब कुछ मुंहजुबानी याद है, जैसे नागर जी : मेधा के साथ याददाश्‍त का बेमिसाल मिश्रण हैं प्रो सिंह : गृह-लक्ष्‍मी का नाम लिखने तक में हेठी समझते हैं अधिकांश पुरुष : नागर जी को भांग प्रिय था, अरुण जी नशा से कोसों दूर : नेमप्‍लेट तो महिलाओं के प्रति मर्द के घमंड और अधिपत्‍य का प्रतीक होती है, नौकर से बदतर :

कुमार सौवीर

लखनऊ : यह सन-85 के अप्रैल महीने की बात है। साप्‍ताहिक सहारा बंद कर दिया था सुब्रत राय की करतूतों ने। उसमें आंदोलनकारी कर्मचारियों और पत्रकारों के खिलाफ वहीं के कुछ पत्रकारों ने भी पीठ-पीछे सुब्रत राय की साजिशों को साकार करने के लिए जी-जान लगा रखी थी। तब तक अपनी छाती पर सहाराश्री का तमगा नहीं टांग पाया थे सुब्रत राय। मैं उस अखबार में प्रूफ रीडर था। वेतन था 660 रुपये महीना। लेकिन अखबार बंद होने के बाद जब मैंने नयी नौकरी खोजनी शुरू की, तो टाइम्‍स आफ इंडिया समूह के सायंकालीन अखबार सान्‍ध्‍य समाचार के साथ जुड़ गया। वेतन तय हुआ 150 रुपये महीना। यह मेहताना तय किया था संपादक घनश्‍याम पंकज ने।
पंकज जी चाहे कैसे भी रहे हों, लेकिन उन्‍होंने मेरी न्‍यूनतम तन्‍ख्‍वाह के बावजूद मुझे जो दायित्‍व सौंपे, वह वाकई अकल्‍पनीय थे। उन्‍होंने लखनऊ विश्‍वविद्यालय और उससे सम्‍बन्‍द्ध महाविद्यालयों की गतिविधियों पर रिपोर्ट करने का दायित्‍व सौंपा ही, साथ ही मुझसे यह भी चाहा गया कि मैं लखनऊ में रहने वाले देश के विभिन्‍न क्षेत्रीय समूहों-समुदायों पर रिपोर्ट तैयार करूं। हालांकि यह बेहद दुष्‍कर कार्य था, लेकिन मेरे लिये तो यह था निहायत रुचिकर कर्म। फिर क्‍या था। मैंने अपनी सायकिल पर पूरे लखनऊ को छानना शुरू कर दिया। कभी केरल, कभी नेपाली, कभी बंगाली, कभी उड़ीसा वगैरह-वगैरह। हर दो-तीन दिनों में किसी समुदाय पर मैंने लिखना शुरू कर दिया। पंकज जी मेरे काम को सीधे देखते और पेज पर सजाने के लिए अखबार में दूसरे नम्‍बर पर बैठे सुधांशु श्रीवास्‍तव को समझाते थे।
उसी दौर में एक दिन मैं गुजराती समाज को समझने में जुटा। चौक में पहुंच गया अमृतलाल नागर जी के पास। दुआ-सलाम और अपने काम, धाम और अखबार का परिचय दिया। लेकिन इसके बावजूद उन्‍होंने अपनी दिक्‍कत बतायी। बोले कि अव्‍वल तो यह दोपहर का वक्‍त हो चुका था, दूसरा यह कि उनके विश्राम का समय हो चुका है। ऐसी हालत में उन्‍होंने अपनी मजबूरी बतायी और बोले कि अगले दिन आ जाओ।
धत्‍त तेरी की। आने-जाने में कुल 25 किलोमीटर की दूरी सायकिल से पैडल मारते हुए। जाहिर है कि अमृतलाल नागर जी के घर मैं हांफते हुए पहुंचा था। मैंने एक जोरदार दांव लगाने की कोशिश की। मैंने सहमति दी कि अगले दिन मैं उनके पास समय से पहुंच जाऊंगा। लेकिन उसके साथ ही अपना परिचय देते हुए मैंने नागर जी को बताया कि मैं स्‍वर्गीय सियाराम शरण जी का सबसे छोटा पुत्र हूं।
स्‍वर्गीय सियाराम शरण त्रिपाठी जी का नाम सुनते ही नागर जी चौंक और विह्वल हो पड़े। वजह यह कि अभी तीन महीना पहले 27 जनवरी-85 को ही स्‍वर्गीय त्रिपाठी जी का निधन हो गया था। नागर जी स्‍वर्गीय त्रिपाठी जी को बहुत स्‍नेह करते थे। वे कई बार त्रिपाठी जी के घर जा चुके थे। हालांकि मैं चूंकि जन्‍मना विद्रोही रहा हूं और बचपन से ही घर से भाग कर कानपुर चला गया था। वहीं होटल में बर्तन, रिक्‍शा-चालन, बस-ट्रेन में कंघी, नेलकटर, नेल-पॉलिश वगैरह बेच कर इस मुकाम तक पहुंचा हूं। पापा के कुछ महीना पहले ही मैं पापा के अनुरोध पर उनके साथ घर में लौटा था। बहरहाल, मैं आपको बता दूं कि त्रिपाठी जी उस समय लखनऊ के सबसे बड़े हिन्‍दी अखबार दैनिक स्‍वतंत्र भारत में बड़े ओहदे पर थे, और पत्रकारों की राजनीति में एक अहम शख्सियत माने जाते थे।
यह परिचय अदभुत प्रभाव डाल गया। नागर जी भावुक हो गये और मुझको लिपटा लिया। उनसे रिश्‍तों को बातचीत में ताजा करते रहे। काफी देर बाद घर के सहन में सिल-बट्टे पर भांग पीस रहे अपने सेवक को आवाज दी, और उन्‍हें राधे-मिष्‍ठान का डिब्‍बा लाने को कहा। मुझे ढेर सारी मिठाई खिलायी। हचक कर खाया मैंने। वे लगातार बोलते रहे। इसी बीच उनका सेवक उनके लिए भांग का एक बड़ा गोला और ग्‍लास भर पानी थमा दे गया। नागर जी ने वह उदरस्‍थ किया। उसके बाद सेवक से कहा कि, सामने की बुक-शेल्‍फ की पिछली तीसरी रैक के छठे खांचे में पहली, दूसरी और आठवीं किताब निकाल लाओ। कहने की जरूरत नहीं कि यह तीनों किताबें गुजराती समाज को लेकर थीं। नागर जी ने वह किताबें मुझे थमायीं और बोले कि यह सारी किताबें पूरी शराफत के साथ मुझे एक हफ्ते भर में वापस कर देना।
मैं स्‍तब्‍ध। वजह यह कि तब तक नागर जी की नजरें काफी कमजोर हो चुकी थीं। तब वे लिखते नहीं, लिखवाते थे। बोलते रहते थे, और उनका सेवक उसको लिपिबद्ध करता रहता था। उसके बाद वे उसे पढ़वाते, सुनते और संशोधित करते रहते थे। कहने की जरूरत नहीं कि यह एक श्रमसाध्‍य कर्म था। लेकिन यह तो फिर ठीक था, मगर नागर जी उनकी किताबों को उनके स्‍थान यानी उसकी रैक, खांचा और उसके वास्‍तविक स्‍थान तक को इस तरह याद रखते हैं, यह आश्‍चर्यजनक था। मैं सन्निपात की हालत तक पहुंच चुका था।
लेकिन उसके करीब 36 बरस बाद नागर जी के रूप में एक अन्‍य व्‍यक्ति से भेंट हुई। इन नये अमृत लाल नागर जी का नाम है प्रोफेसर अरुण कुमार सिंह। हालांकि मैं सन-03 में प्रोफेसर सिंह से पहले भी मिल चुका हूं, जब वे टीडी कालेज यानी तिलकधारी सिंह स्‍नातकोत्‍तर महाविद्यालय के प्रधानाचार्य हुआ करते थे। छह संकायों वाला यह कालेज अपने शिक्षकों और छात्र-संख्‍या के मामले में भी यूपी में सबसे बड़ा है। पहली भेंट में ही मैं प्रोफेसर सिंह का मुरीद हो गया। उसके बाद से पचासों बार मैं उनसे मिला और पाया कि हर बार की भेंट में मैं लगातार उच्‍चीकृत होता रहा हूं। उनके पिता जी अमेठी के रहने वाले थे। ननिहाल यानी पिता जी की ससुराल बिहार के सुपौल में थी। वहां भी उन्‍हें काफी सम्‍मान और जमीन मिली। ससुराल की ससुराल भी सुपौल में थी, वहां भी वे बहुत कुछ पाये। लेकिन उसे बेचते और मौज लेते रहे। आखिरकार भदौही में आ गये। वहां भी उनका बड़ा घर था। आगरा विश्‍वविद्यालय से दर्शनशास्‍त्र से एमए किया। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ज्‍यां पाल सार्त्र पर पीएचडी करने के बाद सन-67 में वे टीडी कालेज में शिक्षक बन गये और वहीं पर प्रिंसिपल पद से सेवानिवृत्‍त।
एक व्‍युतिरोध की इजाजत चाहता हूं। सामान्‍य तौर घर में रहने वाला मुखिया का नाम ही उसके दरवाजे पर नाम-पट्टिका में दर्ज होता है। अब तो अधिकांश लोग अपने नाम के साथ गृह-लक्ष्‍मी यानी अपनी पत्‍नी का नाम भी लिखवा लेते हैं। लेकिन ऐसे मकानों की नाम-पट्टिकाओं पर सबसे पहले घर के मालिक का नाम होता है, और उसके नीचे ही मालिकिन का नाम दर्ज होता है। भले ही समाज में सबसे महत्‍वपूर्ण पहचान उस गृह स्‍वामी के बजाय उस महिला की हो। लेकिन पुरुष-मानसिकता उस नाम-पट्टिका में पुरुष अपनी पत्‍नी का नाम अपने नाम के नीचे ही दर्ज करती है।
लेकिन प्रोफेसर अरुण कुमार सिंह एक अनोखे व्‍यक्ति हैं। उन्‍होंने अपनी पत्‍नी का नाम घर के दरवाजे पर लगी नाम-पट्टिका पर सबसे ऊपर लिखवाया ही है। उसके बाद अपना नाम। लेकिन इतना ही नहीं, उस नाम-पट्टिका में निर्मला सिंह का नाम खासे मोटे हरफों में लिखवाया गया है, जबकि प्रो सिंह का नाम बहुत छोटे अक्षरों में है। मैंने पूछा तो बोले, मैं उस समाज और संस्‍कार से हूं जहां सियाराम और राधेकृष्‍ण बोला, समझा और आत्‍मसात किया जाता है।
खैर, असल बात यह कि पिछले दिनों में प्रोफेसर अरुण कुमार सिंह से बातचीत करने उनके घर गया। चर्चा का केंद्र हो गया महात्‍मा गांधी पर अचानक ही वाट्सएप-यूनिवर्सिटी से जारी हो रही अश्‍लील, बेहूदा और असम्‍मानजनक बातें। दोलत्‍ती डॉट कॉम के लिए मैंने प्रो सिंह से वीडियो पर बातचीत की। इस वक्‍त 77 बरस के हो चुके हैं प्रो सिंह। शरीर भले ही कमजोर हो रही है, लेकिन उनकी चैतन्‍यता का ग्राफ लाजवाब रूप से यौवन को मात करने लगा है। इस पूरे दौरान प्रो सिंह ने अपनी बातचीत के लिए बाकायदा दर्जनों किताबों का संदर्भ ही नहीं दिया, बल्कि अपनी बात को साबित करने के लिए उन किताबों और उनके आध्‍यायों को भी पेश किया। मेधा के साथ याददाश्‍त का बेमिसाल मिश्रण हैं प्रो अरुण कुमार सिंह।

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