मन्‍नू भंडारी को मैं कौशल किशोर से जानता हूं। वे महान थे

बिटिया खबर

: कौशल किशोर जी लिखवाते थे, लेकिन पारिश्रमिक नहीं : नरेंद्र निर्मल के माध्‍यम से परिचय हुआ, अभिन्‍न हो गये। व्‍यवहार सुभाष राय जैसा : चाय और पराठा से बोहनी हुई और मैं मस्‍त : खाली पेट में बिस्‍कुट, समोसा, पकौड़ी या भूजा, तो आत्मा तृप्त, गंगा नहा लिया : सर्दियों में बोले कि आज रवींद्रालय में नाटक है मन्‍नू भंडारी का महाभोज। कल दोपहर दो, तो परसों छाप दूं :

कुमार सौवीर

लखनऊ : यह बात सन-80 से मई-81 तक कि है। मैं पत्रकारिता में अपने पाँव जमा लेने की जुगत में रहता था। जुनून की तरह। न रहने का कोई अस्थाई स्थान, और भोजन की नियमित उपलब्धता। आर्थिक हालत गम्भीर थे। साप्ताहिक दिनमान, दैनिक अमृत भारत, अमर उजाला, स्वतंत्र भारत और नवजीवन में लिख कर कुछ व्यवस्था की कोशिश जी-तोड़ करता रहता था। पूरा लखनऊ सायकिल से ही छाना जाता था। पारिश्रमिक मिलते ही सबसे पहले तो सायकिल की मरम्मत और फिर दाल, चावल, मसाला-तेल का सामर्थ्य भर जुटा लेना।
दौर शुरुआती था, इसलिए कुछ खास काम नहीं मिल पाता था, लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में पहचान जल्द से जल्द बन जाये, इसके लिए हाथ में ज्यादा से ज्यादा काम समेटे रखता था। सवाल पैसा उतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितना काम। पहचान तो मेरी शक्ल से नहीं, मेरे काम से ही मुमकिन है, यह मैं खूब जान चुका था। ज्यादा काम मिल जाये, जल्दी से काम पूरा छप जाए इसी की छटपटाहट रहती थी, जो आज भी बनी है। एसाइनमेंट मिला, तो लपक कर उसे कर डालो। झट से लिख कर दौड़ कर किसी अखबार में पहुंच कर उसके सम्पादक के हाथ में कॉपी थमा दो। संपादक को जब फुर्सत मिलेगी, तभी तो देखेगा। तब तक उसकी ओर ताकते रहो, टुकुर-टुकुर नहीं, कनखियों से। साबित करते रहो कि संपादक को अपनी कॉपी देने नहीं, बल्कि उनसे मिलने आया हूँ। वह देख ले, संशोधन कर ले। तब तक वह खुद ही चाय-समोसा या पकौड़ी मंगवा लेता है, तो उसकी कृपा। खाली पेट को बिस्‍कुट, समोसा, पकौड़ी या भूजा मिल जाए आत्मा तृप्त, समझो गंगा नहा लिया।
लेकिन उसके छप जाने तक बिस्तर पर करवट-बाजी और कुलकुलाहट-अकुलाहट। सुबह अखबार छपी खबर जब तक देख न लो, जी नहीं जुड़ा पाता था। दिन में कुछेक लोगों से सायास कोशिश करता था कि अपने छपे आर्टिकल से उनकी बातचीत कर लूं। कुछ लोग ऐसे लोग मिल भी जाते थे कि मुझे देखते ही मेरे आर्टिकल पर मुझे बधाई दे देते थे। यकीन मानिये कि वह वक्‍त और वह व्‍यक्ति मेरे लिए महान बन जाता था। खाली वक्‍त महानगर वाले नरेंद्र निर्मल के मकान पर मेरी बैठकी अक्‍सर और खूब होती थी।
ऐसे ही लोगों में कौशल किशोर जी हुआ करते थे। नवजीवन में साहित्‍य का पन्‍ना उनके जिम्‍मे था। मौलवीगंज से थोड़ा आगे बढ़ते ही रकाबगंज की ओर बायें हाथ वाली गली पर कुछ दूरी पर उनका घर था। कौशल जी ने जहां-जहां भी नौकरी की, वहां वेतन तो उन्‍हें हमेशा किल्‍लत के तहत ही मिला, लेकिन जो स्‍नेह और प्रेम के साथ सरलता का बीज हम लोगों में बोया, वह बयान नहीं किया जा सकता। मुझसे नरेंद्र निर्मल ने मिलाया था। कौशल किशोर की तुलना आप जनसंदेश टाइम्‍स वाले सुभाष राय से कर सकते हैं, लेकिन सुभाष राय कभी-कभी सरलता छोड़ अभद्रता के सिंहासन पर बैठ जाते हैं, जबकि कौशल किशोर प्रेम, सरलता और आत्‍मीयता के प्रतिमूर्ति थे। हंसमुख और आत्‍मीय। मुझे देखते ही लगता था कि मानो उनकी लाटरी मिल गयी। उम्र में काफी बड़े थे, मैं उनको पैलगी करता था। सर्दियों में एक शाम को मैं नवजीवन गया तो उन्‍होंने मुझसे कहा कि आज रवींद्रालय में एक नाटक है। नाम है महाभोज। मन्‍नू भंडारी ने लिखा है। तुम अगर उसे कल दोपहर तक लाकर दे दो, तो मैं उसे परसों के अंक में छाप दूंगा।
दरअसल, नवजीवन अपने बुरे दौर से गुजर रहा था। कौशल किशोर जी हमसे लिखवा तो लेते थे, लेकिन दूसरे पत्र-पत्रिकाओं की तरह पारिश्रमिक नहीं दे पाते थे। लेकिन उसकी प्रतिपूर्ति के तौर पर वे अगाध प्रेम तो करते थे, कड़की की बुरी हालत के बावजूद मेरे लिए यह भी बहुत था। इतना ही नहीं, मैं अक्‍सर उनके घर चला जाता था। कांति भाभी तो दिव्‍य थी ही थीं, उनके बच्‍चे भी मुझसे खूब लस गये थे। भाभी सीएमएस में टीचर थीं, लेकिन काफी व्‍यस्‍त होने के बावजूद भाभी जी भी गजब सरलता से व्‍यवहार करती थीं। मैंने उन सब का नाम सायकिल और उसके पुर्जों के तौर पर रख दिया था। मसलन, हैंडल, गद्दी, घंटी, वगैरह। मुझे देखते ही पूरा परिवार गुंजायमान हो जाता था। उनके पास जाने का आधा मकसद भोजन था ही, यह भाईसाहब और भाभी भी खूब जानती थीं। चित्‍त गदगद।
कौशल किशोर जी से मोलभाव का रिश्‍ता था ही नहीं। यह सोचा तक नहीं कि यह काम मैं दूसरे अखबारों से बतिया कर उसे झटक लूं और 20-25 रुपयों की दिहाड़ी नक्‍की कर लूं। मैंने जल्‍द से आयोजकों का पता लिया, जाकर उनसे बाचतीत की। नाटक का कथ्‍य तो मैंने उनके माध्‍यम से काफी कुछ लिख लिया। अब रवींद्रालय पहुंच कर मैं प्रतीक्षा करने लगा। वहां मौजूद लोगों से बातचीत का खूब मौका मिला। नाटक शुरू हुआ। उसके बाद परिचितों व अपरिचितों से बतियाता रहा। लौट कर खर्रा लिख मारा। सुबह उनके घर पर दे आया। चाय और पराठा से बोहनी हुई और मैं मस्‍त।

अगली सुबह मेरी रिपोर्ट नवजीवन में छपी तो मन गदगद हो गया।

अब बात मन्‍नू भंडारी की। मैं उनसे न कभी मिला, न उसके पहले उनके बारे में कुछ जानता था। लेकिन उनको मैं जिस व्‍यक्ति के माध्‍यम से जानता हूं, उसका नाम है कौशल किशोर। मैं मन्‍नू भंडारी और कौशल किशोर को एक पायदान पर खड़ा करने का जुर्म नहीं कर रहा। लेकिन अपनी अधिकतम जानकारी को लेकर इतना तो जरूर कह सकता हूं कि अगर कौशल किशोर नहीं होते, तो मन्‍नू भंडारी जैसे लोगों को कैसे जान-पहचान सकता था। और सच बात तो यही है कि मै मन्‍नू भंडारी को इतना नहीं जानता, जितना कौशल किशोर को।

एक अद्भुत व्‍यक्तित्‍व रहा है कौशल किशोर का।

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