हमसे ही बेगारी और मजूरी भी ? : भाड़ में जाए तुम्‍हारा लेफ्टिज्‍म

बिटिया खबर

: लेफ्टिज्‍म से राइटिज्‍म तक उछले आईबी सिंह की उछालें दुश्‍मनों की छाती फाड़ देती हैं : देवरिया में बसा है युद्ध-मजदूर बघेलों का इलाका, अब लखनऊ में एकाकी जीवन : ठाकुरपन और सफलता ने एटीट्यूड को परमानेंट बनाया, अब क्‍या खाक मुसलमां होंगे : लाखैरों ने पैसा भी वसूला और टाइम भी :

कुमार सौवीर

लखनऊ : यूपी और मध्‍यप्रदेश की पुलिस में जो छह फिटा लम्‍बा, अक्‍खड़, भिड़ंत-प्रिय और बात-बात पर अपनी बाहें फड़काने वाला सिपाही से अफसर मिलेंगे, वे अधिकांशत: बघेल जाति के ही हैं। दरअसल, ठाकुरों की एक उप-जाति है बघेल। बघेलों का कोई ठीक-ठाक स्‍थापना वाला किस्‍सा नहीं मिल पा रहा है, लेकिन इतना जरूर है कि राजाओं के लिए लठैती और तलवार चलाने वालों में बघेलों की संख्‍या ज्‍यादा थी। बताते हैं कि मध्‍यप्रदेश में रीवां छात्र में किसी रियासत के राजा हुआ करते थे व्‍याघ्र देव। व्‍याघ्रदेव को कुछ लोग वाघराव भी कहते हैं। यह मूलत: बघेल और सोलंकी राजवंश से भी बताये जाते हैं, जबकि एक जानकारी के अनुसार दक्षिण भारत के चालुक्‍य क्षत्रिय वंश से भी इनका भाई-पना है। बहरहाल, उनके नाम से ही बघेलों की उत्‍पत्ति हो गयी। यह करीब एक हजार साल पहले का किस्‍सा बताया जाता है, जो गुजरात से लेकर पूरे हिन्‍दी-बेल्‍ट में टुकड़ों-टुकडों में बस गये।
लेकिन यह जरूरी तो है नहीं कि बाप अगर लठैत रहा, तो बेटा भी लाठी ही चलाएगा। यही गैर-तत्‍व था, जिसने बघेलों के मूल-चरित्र से थोड़ा खिसक कर अपनी पहचान बनायी। सबसे पहले तो अपने घर से अकेल निकल पड़ने की जरूरत। यूपी में बिहार से सटा इलाका है देवरिया, जिसके छोर पर है लार कस्‍बा। सिकंदरपुर और गुठनी के आसपास। वहीं से एक युवक इंटर पास करने के बाद लखनऊ खिसक गया। नाम था इंद्र भूषण। लखनऊ में वकालत की, और दिक्‍कतों में जीवन-निर्वाह करने लगे। सम्‍पर्क हुआ मार्क्सवादी कम्‍युनिस्‍टों से। आर्थिक रूप से सभी विपन्‍न थे। साथियों को इंद्रभूषण जैसा कानूनची मिला, तो सबकी बाछें खिल गयीं। तनिक भी अदालती दिक्‍कत हुई, तो चलो इंद्रभूषण के पास। बिजनेस से ज्‍यादा फ्री-फण्‍ड का काम मिलता था। नोटिस लिखवाना है, जमानत करानी है, मुकदमा लड़ना है तो है ना अपना इंद्रभूषण। चलो। फिर क्‍या? यह लोग पहुंचते थे। काम भी कराया और चलते समय लेवी यानी वामपंथी बोली में लेवी की वसूली, यानी आय का दस फीसदी। 15 बरस तक इंद्रभूषण यही सब करते रहे।
यह सब कोई अहसान नहीं था। सामाजिक विषयों पर किसी भी व्‍यक्ति में कुनबापरस्‍ती उसमें लेफ्टिस्‍ट बना देती है, जबकि मौकापरस्‍ती उसमें राइटिज्‍म भरना शुरू कर देती है। वामपंथियों को अपना कुनबा मानते थे इंद्रभूषण। वामपंथी थे, इसलिए लगातार आर्थिक संकट पसरा रहता था। पत्‍नी है, बच्‍चे हैं, वकालत है। वक्‍त बढ़ते वक्‍त परिवार और वकालत से अलग चीजें भारी बनी रहती थीं।

लेकिन क्‍या करते? करते रहे। लेकिन इसी बीच इस युवक को सैयद मोदी हत्‍याकांड में फंसे संजय सिंह और अमिता मोदी का मुकदमा मिला, तो रास्‍ता लेफ्टिज्‍म से खिसकने लगी। राम जेठमलानी ने उस मामले में इंद्रभूषण की कानूनी-मदद की, तो इंद्रभूषण का रास्‍ता एकांगी होने लगा। उस केस में इंद्रभूषण को बेहिसाब मेहनत पड़ रही थी, ऐसे में दीगर बातें ही धूमिल होने लगीं। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे कौन का लसोढ़ा इस्‍तेमाल करें, वामपंथ का लसोढ़ा या फिर दक्षिणवाद का। जिन्‍दगी का टॉस किया, तो जीत हो गया दक्षिणवाद।
हां, आप कह सकते हैं कि इंद्रभूषण अब मौकापरस्‍ती की ओर बढ़ने लगे, जहां से दक्षिणपंथी फिसलन बहुत तेज होती है। लेकिन क्‍या किया जाता, आखिर कब तक वकालत को तजते रहते। उनका जो भी दमखम था, वह वकालत ही था। वह ही दांव पर लगा देकर वामपंथियों और मित्रों की मदद करते, तो जिन्‍दगी घिस्‍सू ही बने रहते। उनके एक पुराने मित्र हैं शीतल पी सिंह। पत्रकार हैं। उनको जब कोई जरूरत होती है, तो छाती पर बैठ कर मुकदमा लिखवाते थे, हैं और करते रहेंगे। करीब तीस साल पहले शीतल ने उनसे दो हजार रूपया मांगा। आज तक नहीं दिया। तब बहुत बड़ी रकम है, अब दो कौड़ी की हो गयी। आजिज आकर यह रकम मांगना ही बंद कर दिया। लेकिन मित्र हैं, कि उल्‍टा मांगने से बाज नहीं आते। इंद्रभूषण को यही बात लम्‍बे समय तक सालती रही। लेकिन अब तो वे ठेंगा तक नहीं देते।
लेकिन सफलता की शुरुआती रफ्तार में आईबी सिंह ने जीत के झंडे गाड़ने शुरू कर दिये। इंद्रभूषण बोलने में ज्‍यादा टाइम लगता है, इसलिए आईबी सिंह हो गये। सेना का मुकदमा जीता, तो पुलिस और प्रशासन के लोगों के मुकदमों का अम्‍बार लगने लगा। जीत ने स्‍पीड़ पकड़ ली। डॉ संजय सिंह और अमिता मोदी का मुकदमा जीते, तो जिन्‍दगी बल्‍ले-बल्‍ले हो गयी। आज तो जहां-तहां शोहरत और दौलत पसरी रहती है। आईबी सिंह ने अपने घर को आलीशान बनाया है। लखनऊ में कई मकानों, जमीनों और फार्म-हाउस के अलावा उनकी और भी दौलतें जमीन से जुड़ी हुई हैं। मुक्‍तेश्‍वर वाले आलीशान में आप देखना जाएं, तो जाएं। लेकिन वहां से कोई सेब, या नाशपाती कोई तोड़ नहीं सकता, जब तक आईबी सिंह का हुक्‍म न हो। अब तो उन्‍होंने इस अद्भुत पहाड़ी मकान को किराये पर देना शुरू कर दिया है। लेकिन किराया या दक्षिणवाद का अर्थ यह नहीं कि वे अपने मूल से विरत हो गये हैं। आईबी सिंह के अमेरिका में बसे एक मुस्लिम मित्र की बेटी को वे अपनी ही बेटी मानते हैं। हालांकि उनकी भी बेटी अमेरिका में ही हैं, लेकिन अमेरिका जाने पर इन दोनों को भी बराबर का समय देते हैं। आज भी उनके वामपंथी मित्र जस की तस हैं, बस एटीट्यूड में व्‍यावसायिकता ने डिस्‍टेंस बना लिया है।
हालांकि वकीलों की नेतागिरी वाले अवध बार एसोसियेशन में वे असफल हो गये, लेकिन एसोसियेशन के गठन में चुनाव अधिकारी के तौर पर उनकी छवि जबर्दस्‍त बनी। कुछ लोग कहते हैं कि आईबी सिंह बहुत अहंकारी और दिखाऊ शख्‍स हैं। हों भी, तो क्‍या। ट्रक की चेसिस पर कोई स्‍कूटी का अंदाज कैसे महसूस कर सकता है। वैसे भी लखनऊ हाईकोर्ट में अगर चुनिंदा सफल और सक्रिय वकीलों में शुमार आईबी सिंह अगर बाकी लोगों को अपने छोटे भाई या बच्‍चों की तरह देखते या समझते हैं, तो उसमें किसी को दिक्‍कत क्‍या है।
एक बड़ी सल्‍तनत हैं आईबी सिंह। कोई तीन बरस पहले ही लम्‍बी पार खेलने के बाद पत्‍नी ब्रह्मलीन हो गयीं। झटका तो जबर्दस्‍त लगा, लेकिन अपनी सल्‍तनत की जिम्‍मेदारी को उन्‍होंने बहुत जल्‍दी ही लीक पर दौड़ाना शुरू कर दिया। इसीलिए तो मैं साफ-साफ कहता हूं कि आईबी सिंह केवल सिंह और भूषण ही नहीं, बल्कि राजनेता इंद्र भी हैं।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।

संवेदनाओं का लसोढ़ाबारह )

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