गंगा तो पहचान है बनारस की, इसे गंदा मत करिये प्लीजः प्रो रिजवी

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: यूरोलॉजी में फरिश्ते के तौर पर पूजे जाते हैं डा अदीबुल हसन रिजवी : निशुल्क चिकित्सा के लिए सार्क देशों का इकलौता संस्थान है स्यूट : जौनपुर के अदीबुल ने पाकिस्तान में मानव सेवा का झंडा बुलंद किया : बंटवारे में बंट गया जौनपुर के खेतासराय वाला जिगर का टुकड़ा :

कुमार सौवीर

वाराणसी : वह एक डाक्टर है। मानवता की सेवा के लिए पूरी तरह समर्पित डाक्टर। इसीलिए सिर्फ मरीज ही नहीं, यूरोलॉजी के डाक्टरों की दुनिया में इस शख्स को निर्विवाद रूप से फरिश्ते के तौर पर स्वीकार किया जाता है। उनकी मौजूदगी देश-विदेश से आये यूरोलाजी के विख्यात डाक्टरों के लिए कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, इसका अंदाजा तब देखने को मिला जब बीएचयू में चार दिनों तक चली अंतर्राष्ट्रीय यूरोकॉन में शामिल होने से वे दो दिन पिछड़ गये। मगर इस यूरोकॉन की असली शुरूआत तब ही हो पायी जब डॉक्टर सैयद अदीबुल हसन रिजवी का पदार्पण हो सका। दरअसल उनके वीजा पर उनका नाम ही गलत चढ़ गया था।

लेकिन बचपन से लेकर फरिश्ता बनने तक की उनकी यह यात्रा बेहद कष्टकारक रही है। पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर थे उनके पिता मोहम्मद हुसैन। जौनपुर में खेतासराय के निकट कलापुर में पुश्तैनी मकान राहत मंजिल आज भी है। सन 1939 की 11 तारीख को इसी घर में पैदा हुए थे सैयद अदीबुल हसन रिजवी। शुरूआती शिक्षा बनारस के ही जयनारायण हायर सेकेंड्री स्कूल से हुई। फिर क्वींस कालेज में 11 कक्षा में प्रवेश लिया। मगर हाय धर्म-जाति का झगड़ा जो एक-दूसरे को मार डालने पर आमादा था और बाकायदा देश का बंटवारा चाहता था। कौन, क्या, कहां, कैसे रहे, यह झगड़ा-टंटा हर घर में था। इसी बीच उनके माता-पिता तो खुद अपना देश नहीं छोड़ पाये, पर उन्हें अधूरी पढाई के बीच ही पाकिस्तान भेज दिया। बिलकुल अकेले। शायद तब के सामाजिक हालातों से वे बेहद सशंकित थे। चाहते थे कि हिन्दुस्तान तो उनका मातृभूमि है, लेकिन चूंकि खानदान का ज्यादा हिस्सा पाकिस्तान की ओर निकल गया था, इसलिए उन्होंने अपने जिगर के टुकड़े अदीबुल हसन रिजवी को पाकिस्तान की ओर रवाना करा दिया।

खैर, इस दर्दनाक हादसे के बाद उनकी पढाई कराची में हुई। मेडिकल डाक्टरी की और आगे की पढाई के लिए इंग्लैंड चले गये। लेकिन कर्मक्षेत्र पाकिस्तान ही बनाया। आज उनके अधीनस्थ और पटना में पैदा होकर बंटवारे के दंश के चलते पाकिस्तान गये डा एसए अनवार नकवी बताते हैं कि सन 71 में पाकिस्तान के हबीब क्षेत्र में सुजावल चूहड़ जमाली इलाके में बाढ की विभीषिका के चलते महामारी फैल गयी थी। बदहाली का मंजर रूला देने वाला था। वहां पर तैनाती नकवी को मिली तो देखा कि डा रिजवी पूरी चिकित्सा कमान सम्भाले हुए हैं। दिन रात मेहनत। खानापीना तक भूल कर। सिर्फ इंसानियत की सेवा। रोगी की देखभाल सर्वप्रथम। बस उसी समय से मैंने ही नहीं, वहां मौजूद अनेक डाक्टरों ने तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, मगर सारा जीवन अब डा रिजवी के साथ ही गुजारा जाएगा।

बहरहाल, इसी दौरान कराची में दस बिस्तरों से शुरू किये गये एक अस्पताल को इस शख्स ने आज तीन हजार बिस्तरों तक का विस्तार दे दिया। और कितना भी बड़ा ऑपरेशन क्यों न हो, किसी भी मरीज से इस अस्पताल में एक भी पैसा नहीं लिया जाता है। नाम है सिंध इंस्टीच्यूट आफ यूरोलाजी ऐंड ट्रांसप्लांटेशन। और निशुल्क सेवा का पूरे सार्क देशों में यह इकलौता संस्थान है। डा रिजवी यहां आजीवन निदेशक और प्रोफेसर हैं।

डॉक्टर सैयद अदीबुल हसन रिजवी पर प्रकाशित रिपोर्ट के अगले अंक को देखने के लिए कृपया क्लिक करें:- खतना तो सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान है, रोगों का इलाज नहीं

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