डॉक्‍टर अखिलेश दास: जिसका हर मित्र क्रीत-दास था। यानी खरीदा हुआ

मेरा कोना

: बैंक की सीढ़ी से बने महापौर, और नगर सेठ बने डॉक्‍टर अखिलेश दास का लखनऊ में हार्ट-अटैक से मौत : राजनीति को शौक मानने वाले अखिलेश ने सफलता के हर पाले में झांका : शिक्षा के निजीकरण की कांग्रेसी रणनीति का सबसे बड़ा फायदा अखिलेश दास जैसों ने उठाया :

कुमार सौवीर

लखनऊ : जिस भी देश का वित्‍तीय वर्ष 31 मार्च को खत्‍म होता है, वहां राजनीति और प्रशासन से जुड़े लोगों में 31 मार्च का दिन हर्ष और उल्‍लास का अवसर माना जाता है। वजह यह कि उसी दिन राजकोष में बचा हुआ सारा बजट को ऐन-केन-प्रकारण खपा डालने की आपाधापी बची रहती है। राज-सत्‍ता का हर खास-ओ-आम सारे अवशेष बजट को कैसे भी हो, शून्‍य बनाने में जुट जाता है। देर रात तक सरकारी दफ्तर और ट्रेजरी खुली रहती है। बिल तैयार किये जाते हैं, फाइलें बनती हैं, दस्‍तखतों का सैलाब उमड़ता है, और नये बजट के आगमन के स्‍वागत में पुराने बजट को खा-पी कर खत्‍म कर दिया जाता है। कहने की जरूरत नहीं कि कागजों में मुकम्‍मल हो चुकी ऐसी कास्‍तानियों की असलियत केवल धोखाधड़ी और फर्जीवाड़े पर टिकी होती है। लेकिन कुछ भी हो, केवल इसी दिन बजट में बची खरबों-खरब रूपयों का वारा-न्‍यारा हो जाता है। यही वजह है कि वित्‍तीय वर्ष के इसी अन्तिम दिन कोई भी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी कभी भी छुट्टी नहीं लेता है। डॉक्‍टर अखिलेश दास का जन्‍म सन-1961 की इसी 31 मार्च को ही जन्‍म हुआ था।

राजनीति को शौक मान कर खेलने वाले डॉक्‍टर अखिलेश दास अब स्‍मृति-शेष हो गये हैं। रक्‍त-चाप, मधुमेह जैसी अनेकानेक बीमारियों से घिरे डॉक्‍टर अखिलेश दास की तबियत खराब होने पर उन्‍हें आज लॉरी कॉर्डियोलॉजी ले जाया गया, जहां उन्‍होंने अपनी आखिरी सांस ली। अखिलेश की खबर फैलते ही उनके घर लोगों की भीड़ जम गयी। उनकी पत्‍नी उस वक्‍त दिल्‍ली में थी, जो अब लखनऊ से लौट रही हैं। उनका एक बेटा सागर और बेटी सोना लंदन में रहते हैं।

प्रदेश के मुख्‍यमंत्री रह चुके बनारसी दास के बेटे अखिलेश दास का जन्‍म बुलंदशहर में हुआ था। अपने जीवन के पहले 30 बरस तक को अखिलेश दास पुराना किला इलाके में अपने पुराने मकान में रहे। उनकी पहचान केवल एक पूर्व मुख्‍यमंत्री के बेटे के तौर पर थी, जो राजनीति के बजाय अब एक सहकारी बैंक का कर्ताधर्ता था। हैरत की बात तो यह रही कि उस बैंक का नाम तक कोई नहीं जानता था।

लेकिन अचानक कांग्रेस ने अखिलेश दास को लखनऊ के महापौर का मुकुट पहना दिया। बस फिर क्‍या था, अखिलेश की पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में पहुंच गयी। जन-चर्चाओं के अनुसार अखिलेश ने नगर निगम की जमीनों की नापजोख शुरू करायी, और फिर अचानक वे एक बड़े जमींदार की हैसियत में पहुंच गये। जिस अयोध्‍या-मार्ग अपना कर भाजपा का भगवा झण्‍डा फहरा रहा है, उसी मार्ग पर अखिलेश ने बीबीडी के नाम से शिक्षालय शुरू किया जो अब एक निजी यूनिवर्सिटी बन चुका है। लेकिन हैरत की बात तो यह है कि पिछले दस बरस पहले अखिलेश ने उसी से सटी हजारों एकड़ जमीन पर बीबीडी ग्रीन नाम की एक टाउन-शिप फ्लोट की। किसी सुनामी के ज्‍वर की तरह लक्ष्‍मी अखिलेश के चरणों में लेट गयीं, तो अखिलेश ने आला अफसरों तक अपनी गोटियां बिछाने के लिए बैडमिंटन अकादमी खोल दी। उनका कहना था कि वे बैडमिंटन के खिलाड़ी हैं, लेकिन लोगों को उनके ऐसे दावों पर तनिक भी यकीन नहीं रहा। वजह यह कि अखिलेश दास की देह-यष्टि कभी भी बैडमिंटन जैसी कभी रही ही नहीं।

कांग्रेस ने सन-96 में उन्‍हें राज्‍यसभा सदस्‍य बनाया और सन-04 में उद्योग राज्‍यमंत्री भी, लेकिन इसके पहले ही अखिलेश को पता चल गया था कि कांग्रेस व्‍हील-चेयर पर बैठ कर टिकठी पर लेटने की तैयारी में है, इसलिए उन्‍होंने बहुजन समाज पार्टी का पांव-पखार लिया। दलित-दर-दलित पहचान बन चुकी बसपा का चेहरा सुधारने के लिए मायावती को भी बनिया चेहरों की जरूरत थी, इसलिए उन्‍होंने हरदोई के नरेश अग्रवाल और अखिलेश दास को बुला लिया।  मायावती ने अपने दरवज्‍जे पर आये ऐसे हर बनिया का स्‍वागत किया और पार्टी में भारी भरकम ओहदा दिया। सिर्फ इसी उम्‍मीद में, कि ऐसे बनिया ही अनाथपिण्‍डक बन कर बसपा का मोक्ष-कारी बन जाएंगे। नरेश अग्रवाल और अखिलेश दास को मायावती ने पार्टी में महासचिव का ओहदा दे दिया। अखिलेश दास को राज्‍यसभा भेज दिया गया।

लेकिन अखिलेश दास को बसपा की नहीं, कैसे भी हो, अपने अगले चुनाव की चिंता थी। इसलिए उन्‍होंने अभियान छेड़ दिया। लेकिन यह सारे अभियान केवल मूर्खतापूर्ण ही निकले, जो उनकी तिजोरी की दर्प-घमण्‍ड से उपजे थे। अखिलेश ने होली, दिवाली, ईद, रक्षाबंधन, करवा-चौथ जैसे धार्मिक अवसरों पर मिठाई के डिब्‍बों की खेप घर-घर तक पहुंचाने का अभियान छेड़ा। कहने की जरूरत नहीं  हर घर पहुंचने ऐसे हर डिब्‍बों की कीमत कम से कम पांच सौ रूपयों तक हुआ करती थी। सन-09 में बसपा ने उन्‍हें लखनऊ से सांसदी का टिकट दिया, मगर वे मुंह के बल औंधे गिरे।

उसी दौरान कुमार सौवीर ने अखिलेश दास से एक लम्‍बा इंटरव्‍यू किया था, जो महुआ न्‍यूज चैनल में प्रसारित हुआ। उस साक्षात्‍कार को देखने और अखिलेश को समझने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

डॉ अखिलेश दास

लेकिन तब तक डॉ अखिलेश दास का कद सिक्‍कों की सबसे बड़ी ढेरी की तरह जरूर था, लेकिन उनकी छवि हमेशा दोयम दर्जे की ही रही। घमंड और बेअंदाज लहजा ने उनकी छवि को गम्‍भीर आघात पहुंचाया। यहां तक पहुंच कर अखिलेश के बारे में जन-चर्चाएं शुरू हो चुकी थीं, कि अखिलेश हर चीज का आर्थिक मूल्‍य अदा करके ही उसे हासिल करते हैं। खास कर इंसान को। अखिलेश के एक करीबी परिचित ने मेरी बिटिया डॉट कॉम को बताया कि सच बात तो यही थी कि अखिलेश का कोई मित्र ही नहीं था। जो कुछ भी था, वह खरीदा हुआ। क्रीत दास। उनकी जिन्‍दगी में जो भी आया, उसे

अचानक सन-14 के अंत तक अखिलेश दास ने मायावती पर 100 करोड़ रूपयों की उगाही करने का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दी।

लेकिन इसके पहले ही लखनऊ के पत्रकारों को खरीदने की अपनी महत्‍वाकांक्षी योजना के तहत अखिलेश ने एक अखबार भी शुरू किया, जो बाद में दो-कौड़ी का साबित हुआ। इस अखबार का नाम भी कई-कई बार बदला गया। लेकिन इस अखबार में अखिलेश की खबर और फोटो पहले पन्‍ने पर नियमित रूप से जरूर छपा करती थी। लेकिन अचानक न जाने क्‍या हुआ कि एक दिन उस अखबार में अखिलेश दास के बजाय सपा सरकार के दौरान मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव की खबर और फोटो छप गयी। और उसी नाटकीय तरीके से अखिलेश दास के करीबी रहे नवनीत सहगल को अखिलेश यादव ने अपना प्रमुख सचिव बना लिया।

अखिलेश पिछले ढाई बरस से खाली बैठे थे। राजनीति की भाषा में बोलें तो, ठेलुआ यानी निठल्‍ला। इसीलिए उन्‍होंने अपनी पूंछ वापस अपनी पुरानी कांग्रेसी मांद में घुसेड़ दी। अरअसल उन्‍हें खूब पता था कि उनकी ठौर अब कहीं भी नहीं रहेगी। केवल कांग्रेस ही इकलौता डेरा है, जहां उनका डंका भले ही न बजे, लेकिन उनकी पूंछ-किलनी सुरक्षित रहेगी।

अखिलेश दास को हर रिश्‍ते की कीमत खूब पता थी। लेकिन ऐसे मूल्‍यांकन का उनका तरीका सिर्फ एक ही हुआ करता था। वह था आर्थिक मूल्‍यांकन। पैसा फेंको, रिश्‍ता पालो। हां, कुत्‍ते पालने का भी शौक उन्‍हें था। वे घटिया प्रवृत्ति वाले कुत्‍तों को भी पाला करते थे। बैडमिंटन अकादमी में जिस डॉक्‍टर विजय सिन्‍हा को उन्‍होंने लम्‍बे समय तक पाला, उनकी इसी प्रवृत्ति का ही परिचायक है।

हां, उनकी एक डील जरूर फ्री ऑफ कास्‍ट रही। वह थी उनकी आज हुई मौत।

(अपने आसपास पसरी-पसरती दलाली, अराजकता, लूट, भ्रष्‍टाचार, टांग-खिंचाई और किसी प्रतिभा की हत्‍या की साजिशें किसी भी शख्‍स के हृदय-मन-मस्तिष्‍क को विचलित कर सकती हैं। समाज में आपके आसपास होने वाली कोई भी सुखद या  घटना भी मेरी बिटिया डॉट कॉम की सुर्खिया बन सकती है। चाहे वह स्‍त्री सशक्तीकरण से जुड़ी हो, या फिर बच्‍चों अथवा वृद्धों से केंद्रित हो। हर शख्‍स बोलना चाहता है। लेकिन अधिकांश लोगों को पता तक नहीं होता है कि उसे अपनी प्रतिक्रिया कैसी, कहां और कितनी करनी चाहिए।

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