: ज्रूस्थ, र्ईसाई, यहूदी व कुछ अफ्रीकी जातियों में भी पहले खतना खूब था, अब केवल इस्लाम तक ही सीमित : पथरी, मसाना व एड्स पर पाकिस्तान और भारत को एकसाथ काम करना चाहिए : पचास फीसदी रोग तो पथरी के रोग : पाकिस्तान में गुर्दा रोग के डॉक्टर सैयद अदीबुल हसन रिजवी से बातचीत, तीन हजार बेड का अस्पताल के निदेशक है डॉ रिजवी :
कुमार सौवीर
वाराणसी : डॉक्टर डॉक्टर सैयद अदीबुल हसन रिजवी धर्म और कर्म को अलग-अलग रखते हैं। इसीलिए सवालों के जवाब में बिलकुल बेबाकी के साथ बताते हैं कि इस्लाम समेत कई समुदायों में शिशुओं में कराया जाना खतना मूत्र-रोगों की रोकथाम का विकल्प या समाधान-इलाज नहीं। उनका कहना है कि यह पूरी तरह एक धार्मिक कृत्य है, और केवल इसलिए मैं इसे डाक्टरी निदान-उपचार से जोड़ कर कोई सिद्धांत में कैसे बदल दूं? वे बताते हैं कि ज्रूस्थ, र्ईसाई, कई अफ्रीकी जातियों के साथ ही इस्लाम में भी पहले खतना खूब प्रचलित था। लेकिन अब यह केवल इस्लाम तक ही सीमित हो कर रह गया है। डॉक्टर रिजवी बताते हैं कि खतना या शिश्नव पर चढ़ी चमड़ी को ऑपरेट करने हटाने की प्रथा के बारे में लोगों का ख्याल है कि इससे यौनरोग नहीं होते, लेकिन अब तक कोई भी शोध यह साबित नहीं कर पाया।
उनका कहना है कि शोध के मामले में भारत बेहतर है, लेकिन पर्याप्त नहीं। जरूरत है कि पथरी पर और मसाना के कैंसर पर शोध हो। बहुत से रोगों के कारणों का तो हमें पता तक नहीं है। पचास फीसदी से ज्यादा तो पथरी के रोग हैं। एड्स पर शोध की भी बेहद जरूरत है। लेकिन यह काम भारत और पाकिस्तान दोनों को मिलजुल कर करना चाहिए। इंटीग्रेटेड रिसर्च होनी चाहिए।
डॉक्टर रिजवी कहते हैं कि राजनीतिक समस्याओं के बीच हम भूल ही गये कि सन 1931 के बाद से इस क्षेत्र में ठोस शोध हुए ही नहीं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम सब मूलतः एक ही हैं। हमारा शरीर, बीमारी, समस्याएं और दिल तथा दिमाग एक जैसा ही है। अब तो बच्चों तक में स्टोन मिल रहे हैं। तो भइया, हम मुल्कों के नेता अपनी राजनीति करते रहें इसमें किसी को कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन जिन पर राजनीति पर कर रहे हो, उनके सेहत का तो ध्यान देते रहो। जनता ही नहीं बची तो राजनीति कैसे पनपेगी।
डॉक्टर रिजवी के दिल-दिमाग में काशी का विछोह अभी भी कटोचता रहता है। वे कहते हैं कि लगता है कि जैसे काशी के बिना मैं अधूरा ही रहूंगा। जिन्देगी भर। मैं कैसे भूल सकता हूं काशी और गंगा को, जहां पर मैंने इंसानियत का पहला सबक सीखा। वे कहते हैं कि काशी में एक अजीब सी लाजवाब और निहायत ही दिलकश कशिश है। हालांकि पचास सालों में पहले के हालात लगभग पूरी तरह बदल चुके हैं, लेकिन यह शहर मुझे यहीं खींच लाता है। आज जितनी संकरी सड़कें यहां हैं, पहले नहीं थीं। चलना आसान था। गंगा साफ थी। हम सीधे चुल्लू में लेकर गंगा का पानी पीते थे। पढने के लिए घाटों पर जाते थे। क्या शांति थी तब। अक्सर वहां बिस्मिल्ला खान अपनी शहनाई का रियाज भी करते थे। गंगा के नाम पर वे बहुत भावुक हो उठते हैं-यह तो पहचान है बनारस की। इसे गंदा मत करिये प्लीज।
हिंदुस्तान से उनका नाता टूटा नहीं है। वे आज भी 2-3 साल बाद काशी और जौनपुर आते हैं। और वहां पूरा वक्त मरीजों के साथ ही बिताते हैँ।
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