जन्‍माष्‍टमी: मैं अनीश्‍वरवादी हूं, लेकिन कृष्‍ण बनने को कृत-संकल्पित

दोलत्ती

: खोज रहा हूं अपनी स्‍वाहा, जिसमें खुद को स्‍वाहा कर दूं : खुद में दबे कृष्‍ण-कान्‍हा को खोजने का पर्व है जन्‍माष्‍टमी : भड़की यमुना नदी की हिलोरें और टोकरी से लटकता कृष्‍ण का पैर : संकल्‍प लेने की कोशिश करें कि हम अपने आप के भीतर कृष्‍ण, कान्‍हा को खोजेंगे :

कुमार सौवीर

लखनऊ : केवल लखनऊ ही नहीं, बल्कि पूरे देश और राष्‍ट्र में आज जमकर बारिश हुई है। और यह केवल आज ही नहीं हुआ। बल्कि जन्‍माष्‍टमी के दिन बादल तो झूम कर बरसते हैं। सदियों-हजारों बरसों से ही रिमझिम झमाझम बारिश का रूप ले लेती है। मुझे अपने पूरे जीवन में एक बार भी ऐसा नहीं महसूस हुआ कि जन्‍माष्‍टमी के दिन तूफानी बारिश नहीं हुई हो। आप जानते हैं कि इसकी वजह क्‍या है?

दरअसल, यह दैवीय घटना है। लेकिन इसके पहले आपको बता दूं कि मैं न तो कर्मकांडी-नुमा धर्म का अनुयायी हूं, और न ही पाखंड से सने कट्टरवादी अंधभक्‍तों के समुदाय का हिस्‍सा हूं। मैं अनीश्‍वरवादी हूं। अंग्रेजी भाषा के हिसाब से साफ-साफ शब्‍दों में कहूं तो मैं एथीस्‍ट हूं। लेकिन पहले इस क्षेपकनुमा कथा को समझने की कोशिश कीजिए।

ताकत रखने वाले लोगों में अराजकता और स्‍वेच्‍छारिता जब भड़कने लगती है, तो ऐसे माहौल में तानाशाह राजाओं का उत्‍पन्‍न हो जाना सहज प्रक्रिया ही है। ऐसे लोग हमेशा भयभीत रहते हैं, और तब उन्‍हें लगता है कि वे अपने डर को खत्‍म करने का सबसे आसान तरीका होता है कि हर व्‍यक्ति को खत्‍म कर देना। कंस भी ऐसा ही एक राजा था। न जाने उसे कैसे इलहाम हो गया कि उसकी बहन देविका का पुत्र ही उसका काल यानी उसकी मौत का कारण बनेगा। नारद ने भी उसे बता दिया कि देवकी की आठवीं संतान के हाथों ही कंस मारा जाएगा। यह सुनते ही कंस ने अपनी बहन देविका और बहनोई वासुदेव को कारागार की कालकोठरी में बंद कर दिया और आदेश दिया कि देवकी से जन्‍मी प्रत्‍येक संतान को पैदा होते ही मार दिया जाएगा। इसी चलते देविका की सात संतानों को कंस ने मौत के घाट उतार दिया।

अब आया आठवी संतान का नम्‍बर। गर्भवती होते ही देविका पर कड़ी निगरानी होने लगी। अष्‍टमी के दिन देविका की आठवीं संतान उत्‍पन्‍न हुई। कथा और भी लम्‍बी है, लेकिन विधाता को कुछ और ही लीला करनी थी। इसलिए सक्रिय इंद्रदेव ने दायित्‍व सम्‍भाला और बादलों को आदेश कर जबर्दस्‍त बारिश शुरू कर दी। देविका की आठवीं संतान होते ही दैवीय-क्षमता के चलते जेल के सभी बंदी-रक्षक गहरी निद्रा में चले गये। जेल के सारे कपाट स्‍वत: खुल गये। कालकोठरी का द्वार खुला और वासुदेव ने नव-जन्‍मे शिशु को एक टोकरी में लिटा लिया और कारागार से निकल कर नंदग्राम की ओर बढ़ गये। तूफानी बारिश हो रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि देविका की छातियों से धार छोड़ते दुग्‍ध-प्रवाह और झमाझम बरसते बादलों में कौन छोटा-बड़ा था।

रास्‍ते यमुना नदी मिली, जो हाहाकार कर रही थी। वासुदेव यमुना नदी में प्रवेश कर गये। नदी का प्रवाह अचानक और भड़क गया। वासुदेव समझ ही नहीं पाये कि उनके पांव पड़ते ही यमुना का आक्रोश इतना भयावह कैसे बन गया। देखते ही देखते, यमुना की लहरों ने वासुदेव को अपने आप में डुबोना शुरू कर दिया। शिशु को बचाने की प्रक्रिया में छटपटाते वासुदेव को जब कोई रास्‍ता ही नहीं मिला, तो उन्‍होंने शिशु रखी टोकरी को सिर के ऊपर रख दिया। लेकिन लहरें मानने को तैयार ही नहीं थीं। नदी का प्रचंड व्‍यवहार और वासुदेव की जिजीविषा एक-दूसरे से जूझने लगी। वासुदेव को डूब गये, लेकिन शिुश को रखी टोकरी को उन्‍होंने तनिक भी डूबने नहीं दिया।

लेकिन यमुना आज तो वाकई बेकाबू थी। बिलकुल बावली। इतनी बावली, कि दैव-लोक में हड़कंप मच गया। भगदड़ होने लगी। देवि-देवता समझ ही नहीं पाये कि इस हालत से कैसे निपटा जाए।

लेकिन अचानक जैसे चमत्‍कार हो गया। टोकरी में भीगते लेकिन किलोल करते शिशु ने अचानक अपना एक पैर टोकरी से बाहर लटकाया। शायद यमुना नदी इसी क्षण की प्रतीक्षा में थी। एकदम ही नदी से उमड़ी एक लहर एकाएक उछली और टोकरी से लटकते शिशु के एक पैर को भिगो गयी। उसके बाद से ही तेजी के साथ यमुना का जल-स्‍तर घटने लगा। सिर तक डूब चुके वासुदेव का चेहरा घटती नदी के चलते धीरे-धीरे बाहर दिखने लगा। और देखते ही देखते वासुदेव यमुना नदी से पार होकर नंदग्राम पहुंच गये। लेकिन इस पूरे दौरान किसी को भी यह पता नहीं चल पाया कि यमुना नदी का हाहाकारी तेवर अचानक इतना क्‍यों भड़क गया था और टोकरी में लेटे शिशु का पैर कैसे नीचे लटक गया और क्‍या कारण था कि शिशु का पैर छूते ही यमुना नदी का सारा आक्रोश एकदम ही शांत हो गया।

कोई समझ ही नहीं पाया कि यमुना नदी टोकरी में लेटे शिशु का चरण-स्‍पर्श करना चाहती थी, और यमुना की भक्ति के तेवर को शांत करने के लिए शिशु ने अपने चरण टोकरी से बाहर निकाल लटका लिये। ताकि यमुना का जल शिशु का चरण-स्‍पर्श कर अपना वांछित इच्‍छा को पूरा कर ले।

वही शिशु तो समस्‍त भोग के साथ ही साथ श्रेष्‍ठतम संयम, अद्भुत मैत्री-भाव, रस-श्रेष्‍ठ, समस्‍त कलाओं में निपुण, अच्‍युतानंद, अप्रतिम सहज होने के साथ ही साथ विनाशाय च दुष्‍कृताम और परित्राणाय साधूनाम की बेमिसाल जीवन-शैली को पूरे जगत को हमेशा-हमेशा के लिए जीवंत कर गया।

उसका ही तो नाम है:- कृष्‍ण।
लेकिन इसके पहले आपको बता दूं कि मैं न तो कर्मकांडी-नुमा धर्म का अनुयायी हूं, और न ही पाखंड से सने कट्टरवादी अंधभक्‍तों के समुदाय का हिस्‍सा हूं। मैं अनीश्‍वरवादी हूं। अंग्रेजी भाषा के हिसाब से साफ-साफ शब्‍दों में कहूं तो मैं एथीस्‍ट हूं। लेकिन किसी भी मान्‍यता को रुचिकर तरीके से सोचना, बुनना और उसके लिए जरूरी हवन-सामग्री यानी हवि आदि जुटाना ठीक उसी तरह है, जैसे किसी अनुष्‍ठान की पूर्णाहुति। उस हवि को स्‍वाहा को समर्पित करना के साथ ही साथ उस हवि को साक्षात स्‍वाहा द्वारा अग्नि-कुंड में प्रस्‍तुत यानी प्रगट होकर स्‍वीकार करने का क्षेपक बुनना एक अद्भुत कथानक है। जीवन में मैंने सैकड़ों-हजारों से भी ज्‍यादा बेहिसाब किताबें पढ़ी, विभिन्‍न और बहु-विचारधारों से समर्पित बेहिसाब लोगों से मैंने सीखा और समझा, लेकिन किसी भी कपोल-कल्पित क्षेपक, कथानक या गाथा को इतने सक्रिय और रुचिकर ढंग से समझने की क्षमता मुझे किसी भी धर्म समुदाय में नहीं मिली, सिवाय हिन्‍दू मतावलम्बियों के। हर क्षण में बदलती घटना में प्रत्‍येक पात्र की जरूरत, उसका औचित्‍य, उसकी उपस्थिति का कारण, उसके कार्य-कारण सम्‍बन्‍धों का जो अद्भुत विश्‍लेषण मुझे हिन्‍दुत्‍व में दिखायी पड़ता है, वह बेमिसाल है।

जरा सोचिये न कि आपके हवन-कुंड में समर्पित की जा रही हवि-सामग्री को कौन कुबूल कर रहा है, उस अद्भत क्षमता का नाम है स्‍वाहा। इसलिए ही तो आप हवि को अग्निकुंड में समर्पित करते समय स्‍वाहा का आह्वान करते हैं कि स्‍वाहा उस हवन-सामग्री को स्‍वीकार करे। जोरदार आवाज में बोलते हैं कि: स्‍वाहा।

लेकिन क्‍यों

क्‍योंकि उस हवि-सामग्री को केवल और केवल स्‍वाहा ही स्‍वीकार कर सकती है। लेकिन स्‍वाहा उसका करेगी क्‍या? क्‍योंकि सिर्फ और सिर्फ स्‍वाहा ही उस हवि-सामग्री को अग्नि तक पहुंचा सकती है। लेकिन स्‍वाहा ही क्‍यों ऐसा करेगी? क्‍योंकि अग्नि की सब कुछ होने का नाम ही है स्‍वाहा। यानी, आपके और अग्नि के बीच जो रिश्‍ता इस हवन-कुंड के माध्‍यम से बनने जा रहा है,

उसका सर्वोच्‍च पवित्र और विश्‍वसनीय माध्‍यम केवल अग्नि की सब कुछ हो चुकी स्‍वाहा से बेहतर कोई भी नहीं हो सकता।

यानी अग्नि की सब कुछ बन जाने की क्षमता रखने वाले का नाम है स्‍वाहा और अग्नि।

जैसे कुमार सौवीर। ऐसा कान्‍हा, जो शरारत और उश्रंखलता ही नहीं, बल्कि समाज को एक नये नजरिये से देखने और उसके लिए प्राण-प्रण से जुट जाने को तत्‍पर है। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्‍भवामि युगे युगे। यानी धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता रहता हूं और हमेशा जन्‍म लेता ही रहूंगा।
खैर, आज जन्‍माष्‍टमी के इस मौके पर हम यह संकल्‍प लेने की कोशिश करें कि हम अपने आप के भीतर कृष्‍ण, कान्‍हा को खोजेंगे और उसके विकसित करेंगे। समाज के लिए ही नहीं, समाज की हर एक इकाई तक के लिए।

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