मैं आशिक़ गधा। आई मिस यू, माई लव गदही।

दोलत्ती

: चल, कुछेक पप्पी मेरे गाल पर छाप दे मेरे गधे आशिक़ : अगले जन्म में तेरी टोटल समर्पित गदही बनूंगी। प्रॉमिस : महान बुद्ध की राह पर है गधा, सम्मान जरूरी : हुस्न की खुशकिस्मती है कि उसका आशिक कुत्ता नहीं, गधा है : हुस्न अपने पेट में 14 इंजेक्शन लगवाती, मेरी भौंक से मोहल्ला चौंक जाता : 

कुमार सौवीर

लखनऊ : गदहा और वकील में कोई खास फर्क नहीं होता है। सिवाय चंद फर्क के। पहला कि गधा का बच्‍चा बहुत क्‍यूट होता है। दूसरा, गधे के बच्‍चे को पंजाबी बोली में खोता द पुत्‍तर पुकारा जाता है। तीसरा, गधे का बच्‍चा भी बड़ा होकर ट्रांसपोर्टेशन के व्‍यवसाय में जुट जाता है। तीसरा फर्क वकीलों पर भी लागू होता है। उनका भी जीवन दूसरों के बवालों-झगड़ों और मुकदमों को लादे रखने में खपता है।

खैर, गधों का चरित्र वकीलों से अलग होता है। मसलन, झंझट, बवाल, मवालीगिरी भी। वकीलों का हाल मुझसे मत पूछिये। पूरी दुनिया जानती है कि वकील क्‍या-क्‍या नहीं करते हैं, वकालत के सिवाय। गिरोह बना कर लोअर कोर्ट से लेकर लखनऊ हाईकोर्ट तक जो नंग-धड़ंग हरकतें पिछले दिनों इन वकीलों ने की हैं, उसे देख कर तो दादा कोंडके भी शर्मिंदा हो जाएं, मुख्‍तार और अतीक अहमद चुल्‍लू भर पानी में अपनी नाक डुबो लें और ब्रजेश सिंह राजनीति में चले जाएं और धनंजय सिंह अपनी फरारी छोड़ कर अपने चिर-परिचित जेल-जीवन में चले जाएं। चैम्‍बर में रेप की सम्‍भावनाएं खोजना और उस खोज को आर्थिक उत्‍पादन में तब्‍दील अमर्त्‍य सेन क्‍या जानें, यह करना तो सिर्फ लखनऊ के वकील ही जानते हैं। जमीन पर कब्‍जा कराना, अदालत के बाहर पूर्व सांसद को नंगा करके उसे पीट देना, कोर्ट परिसर में मारपीट करना, बार एसोसियेशन के चुनाव में पार्टी, दारू, बोटी, बवाल, नारेबाजी, हंगामा, मारपीट, मतपत्रों की छीनाझपटी जैसे प्रोफेशनल कामों में इन वकीलों का कोई सानी नहीं है।

बहरहाल, जीएल यादव समेत लखनऊ हाईकोर्ट के कुछ वकीलों ने गधे को राष्ट्रीय-प्राणी का ओहदा दिए जाने का अभियान छेड़ दिया है। ऐसी किसी भी अनिवार्य अभियान के लिए मेरी कोटिशः बधाइयां व शुभकामनाएं।

सच बात तो यही है कि मैं गधे से हमेशा प्रभावित रहा हूं। यह सत्य ही है कि गर्दभत्व से परिपूर्ण गधा वास्तव में एक जागृत स्थूल-पिंड दरअसल एक महान परिश्रमी, सरल, आत्म-आनंदी, संतोषी और एक परम् प्रतापी प्राणी है। आज्ञाकारी, और झंझट-बवाल से कोसों दूर। उसकी प्रवृत्ति ही भारतीय जनता की तरह है। उसे लालच केवल हरी दूब-घास से है। वोट, दारू, नोट जैसी लिप्‍साओं से कोसों दूर।

मैंने कहा न कि मैं गधे से हमेशा प्रभावित रहा हूं। वजह यह कि मैं प्रवृत्तियों को लेकर गधे से काफी मिलता-जुलता हूं। हालांकि कटहा भी मतलब से ज्‍यादा ही हूं, लेकिन उसका गुण मेरे वॉच-डॉग के होने के चलते है। लेकिन उससे क्‍या फर्क पड़ता है। मेरा इश्कियाना अंदाज मेरे गधत्‍व की श्री-वृद्धि करता है। दरअसल, कुछ बरस पहले मैंने एक महिला से इश्क किया था। मेरा इश्क़ रूहानी भी था। हां, हां, रूहानी के साथ वो वाला भी इश्‍क था। बिल्कुल मुगलई बिरयानी और शाही कोरमा के साथ रुमाली चपाती जैसा। प्याज़ के छल्लों पर हरी धनिया की चटनी और सलाद के साथ रायता और फिर रस-मलाई। अहा अहा वाह वाह।

लेकिन मैं तो अपने जन्म के साथ दुर्भाग्य का विशालतम इनसाक्लोपीडिया लेकर पैदा हुआ था। सो, कुछ ही समय बाद मेरी हुस्न तो झटक कर दूर भाग गई, तो मैं ही उस क्षणिक युगल-उपक्रम का लुटा-पिटा एकलौता आशिक बच गया। मगर आशिकी वाले बेमियादी तपेटिक वाले बुखार से तपते-झुलसते हुए मैंने उस तपिश भरे भावुक-चूल्हे पर कविता की ढेरों रोटियां सेंकी।

उसी दौरान एक कविता में अपने आप को मैंने गधे को अपना धर्म-भाई मान लिया था, और गधे की विशिष्टता का खुले दिल से खुलासा ही नहीं, बल्कि उसके साथ अपनी पीड़ा को व्याख्यायित किया था। मैं समझता हूं कि कृष्ण चंदर ने ” एक गधा की आत्मकथा”, “एक गधा नेफा में” और “एक गधे की वापसी” नामक अपने उपन्यासों में गधे की अप्रतिम क्षमताओं को जिस तरह रूपायित किया, मैंने भी काव्य-क्षेत्र में गधे को प्रतिष्ठापित करते हुए काव्य-जगत का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। वाह वाह रे हमनी के, वाह वाह रे हमनी के।

आइए ! मेरी वह कविता को नोंच, सॉरी, नोश फरमाइए:-

“मुझे दुख है कि तुमने मुझे कुत्ता कहा।
मुझे खुशी होती, अगर तुम मुझे गधा पुकारतीं।
क्योंकि न जाने कितने बरसों-सदियों से
मैं,
तुम्हारी यादों और वादों की गठरी
आज तक अपनी पीठ पर लादे हूँ।”

दरअसल, मेरी यह अभिव्यक्ति एक बिगड़ैल आशिक की नहीं, बल्कि एक पूर्ण, संयत और प्रशांत होने के चलते हुस्न के साथ ही साथ आशिक को तसल्ली देती है। जिसमें हुस्न को सोचने की खिड़की खोलनी होती है, जबकि आशिक के संताप में स्वतः मलहम लग जाता है।

मैं तो ऐलानिया कहता हूं कि मेरा जैसा गधा तो बिरले हुस्न को ही नसीब हो सकता है। सच तो यही है कि मेरा जैसा आशिक अगर कुत्ता होता, तो गजब नोंच-खरोंच के बाद अस्पताल में जाकर अपनी नाजनानी हुस्न को अपने पेट में 14 इंजेक्शन लगवाने होते और फिर मोहल्ला भी छोड़ना पड़ता। भले ही मुझे जिंदगी भर जंजीरों में बंधना पड़ता, और मेरी एक भौंक से पूरा मोहल्ला चौंक कर जाग जाता। लेकिन ऐसा नहीं है कि मुझ में कुतत्‍व-गुण नहीं हैं। बाकायदा हैं जनाब। सच बात तो यही है कि मैं गधा बाद में हूं, लेकिन पहले एक सतर्क और सजग वॉच-डॉग जरूर हूं। कुतत्‍व के लिए मैं हमेशा समर्पित हूं। लेकिन मेरा कुतत्‍व समाज की सेवा के लिए है, जबकि मेरा गधत्‍व मेरी कोमल मोहब्‍बत, सपनों की रानी, छम्‍मकछल्‍लो, और रात की शहजादी के प्रति समर्पित है, था और हमेशा रहेगा भी।

यह मेरा गधत्‍व ही तो है कि आज कम से हसीनाएं मुझे देख कर मुझे मुस्कुरा सकती हैं, सहला सकती हैं, मुझ पर तरस कर सकती हैं, पुचकार सकती हैं, और मुझे देख कर मेरे गधत्व से अपने पति या आशिक़ की तुलना तो कर सकती हैं। मुझे दिखा कर अपने आशिकों का मुंह बिचका सकती हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह कि वे मुझे घास भले न डालें, लेकिन मुझे मुट्ठी भर घास तो खिला ही सकती हैं।

है कि नहीं?

और मैं ? कम से कम, मैं इठलाती हुई हसीनाओं को निर्द्वन्द्व और निर्भय भाव में निहार सकता हूँ। मेरा हुस्न जब चाहे कभी मुझे फोन कर सकता है, मुझे पर सवारी कर सकता है। अपने काम मुझे सौंप कर नि:श्चिंत हो सकता है। बेफिक्र आ कर मिल सकता है मेरे पास। और तसल्ली भी दे सकती है कि:-

मेरे जानू ! इस जन्म में भले ही मैं तुम्हारी पार्टली-आंशिक तुम्हारी प्रेमिका न बन पाई, लेकिन यकीन कर मेरे प्यारे कुमार सौवीर ! अगले जन्म में मैं तुझ गधे की टोटल समर्पित गदही बनूंगी। प्रॉमिस। बाई गॉड की कसम। चल मेरे गधे, मेरा गाल तेरी ओर ही है, जिधर तू मुझे कनखी से निहार रहा है। चल अब कुछेक पप्पी मेरे गाल पर छाप दे मेरे गधे आशिक़।

एक गधे को इससे ज्‍यादा और क्‍या चाहिए ? ऐसी ही एक अदद गदही तो, जो मुझ गधे को हमेशा गधा ही बनाने में माहिर हो, शातिर हो।

लाख काइयां हों, शातिर हो, मतलबी हो। लेकिन मुझ गधे की ही गधी हो। आई लव यू गदही, आई मिस यू माई लव गदही।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *