कुमार सौवीर कहां चले? जेल चले, भई जेल चले

मेरा कोना

: क्योंकि मैं रंडुआ हूं, अब दीजिए अपनी सलाह : नौकरानियों की पहचान तो आपको बेहतर है न ?:

कुमार सौवीर

लखनऊ : जैसा कि आप सभी लोगों में से ज्यादातर को अच्छी तरह पता है कि मैं रंड़आ हूं और पक्का  रंडुआ हूं। दुनियादारी से दूर हूं। केवल उतना ही जानता हूं जितना एक घोड़े को अपनी नजरबंदी का कन्टोप पहना दिया जाता है, और तब वह सीधी राह पर ही चलता रहता हैं। बिना किसी हीला-हवाली और हुज्जत के बिना। जाहिर है कि मैं ज्यादा समझ नहीं पाता हूं कि क्या गलत है, क्या नहीं। क्या करना चाहिए और क्या नहीं, ऐसा करना चाहिए तो क्यों और अगर कैसे करना है तो किस तरह। इसलिए आप सब मित्रों की इजलास में पहुंचा हूं।

जरा मेरी मदद कर दे मेरे दोस्त।

तो असल मामला है कि मैं रंडुआ हूं और अकेला ही रहता हूं, इसलिए पूरा का पूरा घर बदहाल रहता है। तीन कमरे में कहां रहूं, कैसे रहूं, कब रहूं, समझ में ही नहीं आता है। आज वह सामान एक कमरे में खोजता रहता हूं जो किसी दूसरे कमरे में होता है, तो कभी तीसरे कमरे का सामान पाता हूं कि धोबी ले गया था, लेकिन देने में उसकी नानी मर गयी, क्यों कि उसकी नानी वाकई मर गयी थी, लेकिन वह मुझे देने के बजाय भूलवश किसी और को दे गया और चूंकि जिसे वह कपड़ा मिल गया वह उसका नहीं था, तो वह आदमी उन कपड़ों को किसी दूसरे गरीब को दान देकर सारी आशीष-दुआएं खुद ही लेकर भाग जाता है।

जीना हराम हो गया है मेरा।

लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो घर की सफाई और भोजन की है। हालांकि, मेरे एक अन्नपूर्णा टाइप मित्र अगर मुझे दोपहर का भोजन न करायें, तो मेरी दोपहरी भी वैधव्य कर प्राप्त हो जाये। लेकिन इतवार को क्या हो, जीना हलकान है यारों। उधर घर की सफाई कई-कई हफ्तों से लटकी रहती है। आंगन की दीवार से ईंट खियाय गयी है, उससे सुर्खी की धूल घर में भर जाती है। चूंकि मैं उसी माहौल में रहता हूं, इसलिए पूरी रात बाद पूरी शक्ल हनुमान हो जाती है। खासकर पिछवाड़ा।

खैर, सात महीना पहले मैंने सोचा कि किसी नौकरानी को यह घर सौंप दूं जो साफ-सफाई भी कर दे और दोनों वक्त का भोजन का बवाल भी निपट जाए।

यूरेका !

आइडिया मिला, और नौकरानी मिल गयी। उम्र रही होगी कोई 55 साल। यानी मामला बिलकुल टेंशन-फ्री। रेट तय हुआ 22 सौ रूपया महीना। काम दोनों टाइम का भोजन और पूरे घर की साफ-सफाई के साथ ही साथ बर्तन भी। मामला ओके हो गया। लेकिन फिर वही दिक्कत। ज्यादातर वक्त तो मैं घर में रहता ही नहीं। कभी झाडू-पोंछा स्किप, तो भी भोजन हवा में।

नतीजा, यह हुआ कि एक महीने में कुल सात बार यानी साढ़े तीन दिन टाइम का भोजन बना। लेकिन मेरे हाथों से तोते तब उड़ गये जब मैंने पाया कि अपने स्‍वास्‍थ्‍य के लिए मैंने जो ऑलिव-आलिव यानी जैतून ऑयल की पांच लीटर की पिपिया खरीदी थी, उसमें से साढ़े तीन लीटर तेल खप गया, मेरी धड़कन बढ़ गयी। लगा, मैं हार्ट का पेशेंट हो गया।

दोस्तों। दिल का पेशेंट होना भी तो खुशी का सबब होता है। आखिर यह दिल ही तो है, जिसके बल पर मैं आप मित्र लोगों से बात कर रहा हूं, और मित्रानियों से बातचीत कर रहा हूं। केवल सुखद सम्भावनाओं के धरातल पर ही तो। क्या किया जाए दोस्तों, यह दिल ही तो वह है, जिसने मेरी ऐसी की टोटल तैसी करा रखी है।

लेकिन मैं भी अपनी धुन का पक्का निकला। उस नौकरानी को फौरन चलता किया। आखिर चोर या चोरनी को अपनी छाती पर दाल दरने की इजाजत नहीं नहीं दे सकता हूं। चाहे कुछ भी हो जाए। लेकिन एक महीने बाद ही पूरा घर गन्धाय गया। हर ओर अराजकता। एक सिस्टम ही एक बार नये तरीके से अनसिस्टमेटिक हो गया। तो फिर तय किया कि छह सौ रूपयों में एक नौकरानी रखी। केवल झाडू-पोंछा। मैंने सोचा कि इस नयी नौकरानी की उम्र कोई 40 साल के करीब है तो क्या हुआ। मुझे घर की साफ-सफाई ही तो करानी है। सो, फाइनल कर दिया। लेकिन कुछ होशियार लोगों ने चेता दिया कि बेटा, झाडू-पोछा अपनी सामने ही कराओ, वरना चोरी से हलकान हो जाओगे। लेकिन मुझसे ऐसी निगरानी कर पाना मुमकिन नहीं।

लेकिन वह तो बिलकुल फेवीक्विक निकली। बात-बात पर मुझे पुकारने लगी:- साहब, जरा यह देखिये, यह क्या है, वहां से हटा दूं, वह रख दूं, यह क्या है।

मैं उसकी हर गुहार पर लपक कर पहुंचा, लेकिन हर बार दरवाजे पर वह मुझ से भिड़ जाती थी। ठीक उसी तरह, जैसे कोई कटा हुआ दरख्ता मुझ पर भरभरा पड़े।

उफ्फ। पूरी प्रणयोत्सुक।

मेरी जान सूख गयी। दो-चार बार तो उसके लहजे का जायजा लिया, और फिर फैसला करके फौरन उसका हिसाब किया।

दोस्तों, और क्या करता मैं? अभी कोई मुझ पर आरोप लगा दे, तो मैं तो गया भित्तर। फॉरेंसिक जांच-फांच तो बाद में होगी, लेकिन मेरी पोस्टिंग तो तय हो जाएगी। मोहल्लेवाले पक्के हरामी। फ्रस्‍टेशन निकालेंगे, मजा लेंगे, और अपने बच्चों को लुलुहाय देंगे:-

कुमार सौवीर कहां चले,

जेल चले भई, जेल चले।

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