जीवन के ठसपन से निर्मल प्रवाह का प्रतीक हैं बनारस की सीढि़यां

मेरा कोना

: सीढि़यों ने पूरी काशी को अविमुक्ति नगर में तब्दील कर दिया : उतरने-चढ़ने का अद्भुत दर्शन देखना-समझना हो तो बनारस आइये :

कुमार सौवीर

वाराणसी : काशी विकट क्षेत्र है। उसका आकार आस्था है, प्रवाह जीवन का स्पंदन है, सूर्योदय उसका आध्यात्म है, प्रेम उसका अन्तर्मन है, मौत यहां हर्ष है, शोक उसका उल्लास है, निवास यहां अविमुक्ति है, सीढिया़ं यहां जगत-जीवन में आने-जाने का प्रतीक और संकरी गलियां जीवन का दर्शन। महादेव यहां अनुशासन नहीं, मस्ती का राजा है जबकि काला कुत्ता भैरोंनाथ यहां का कोतवाल। भैरोंनाथ हठ है तो महादेव शम्भू इच्छा। संन्यासी इसका चिन्तन है, सांड़ अपरिहार्य है तो रांड़ खासकर बंगाल में बेकार, कचरा और अनुपयोगी वस्तु समझ कर फेंकी गयी स्त्री के नैराष्य की पराकाष्ठा् तक पहुंचने की हालत का त्राण-स्थल।

लो, हो सम्पूर्ण हो गयी काशी, यानी वाराणसी। वाराणसी का अर्थ वरुणा और असी नदियों के बीच का पुण्य स्थल। इसी इला़के को कहा जाता है कि रांड़,सांड़, सीढ़ी, संन्‍यासी, इससे बचे तो सेवै काशी। अब अगर आप अपने निजी भावों से सने शब्दों में अपनी बुद्धि का प्रयोग करना शुरू कर देंगे, तो दुनिया का सबसे बड़ा आलसी, उजड्ड, बेहूदा, आत्मघाती, अश्लील, विकासहीन और अनर्थ शहर मिलेगा आपको यह बनारस। काशी सेवने के लिए खुद को तज देने की कोशिश करने पड़ती है, बिना शर्त। उसी की प्रवाह में निष्प्रयास गोते लगाना शुरू करना ही वाराणसी को आत्मसात करने का पहला चरण है। और इसी समझ को विकसित करने का जबर्दस्त माध्यम है काशी के विशाल घाट और उसकी लाखों सीढि़यां।कोई भी नहीं जानता है कि काशी की नींव कब पड़ी। लेकिन इतना जरूर है कि यह दैवीय था। निहायत प्राकृतिक। बस वहीं से उसकी व्याख्याएं जन्मने लगीं।

आइये, बनारस से बहती गंगा को। आपको साफ महसूस होगा कि विदा होती बेटी डोली पर बैठने से पहले एक बार फिर दौड़ कर अपने पिता की छाती से लिपटी तो पिता अपनी बाहें फैला कर भाव-विह्वल हो गया। वरना क्या वजह है कि जो गंगा की हाहाकारी लहरें पूरब-दक्षिण की ओर बहती हैं, काशी पहुंचते ही अचानक उत्तर की ओर मुड़ जाती हैं, जहां शिव-शंकर का मुख्य डेरा है। बेटी अपने पिता से लिपटी और फिर रोती हुई फिर पूरब की ओर चली गयी, जहां महासागर उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। शिव अटल बैठा रहा, और गंगा ने काशी में खुद को अर्द्ध-चंद्राकार कर शिव के मस्तक पर हमेशा-हमेशा के लिए टांक दिया। नि:शब्द। और इस अजूबे नजारे को अपने मन-मस्तिष्क में संजो करने की प्रक्रिया का मानव का मानवीय साकार प्रयास है सीढि़यां।

जी हां, 84 घाटों में लाखों सीढि़यां। लम्बाई चार मील। अस्सी से लेकर राजघाट तक। असी से आदिकेशव तक विशाल घाट श्रृंखला में हर घाट की अपनी अलग छटा है, अलग ठाठ हैं। कहीं किसी घाट की सीढ़ियां बेहद शास्त्रीय विधान में निर्मित हैं, तो कोई मन्दिर को जोड़ने वाली सीढि़यां विशिष्ट स्थापत्य शैली में है। कई घाटों की पहचान देश के विभिन्न राजाओं की रूचि के हिसाब से बनाये गये महलों से है, तो किसी घाट पर मस्जिद, तो कहीं मौज-मस्ती का केन्द्र। बिना किसी विशिष्ट योजना के बने यह सारे घाट और उसी सीढि़यां जीवन के वैभिन्यता का अमिट प्रतीक बन गयीं। हर सोच, उसके शिल्प ने अपनी रूचियों को यहां साकार किया, और फिर बन गयी घाटों की चार मील लम्बी कतार। अब यूनिस्को इन घाटों को संरक्षित करने की योजना बना रहा है।

किसी माहिर जौहरी के बजाय इन घाटों को सीधे भू-प्रकृति ने विकसित किया। मसलन गंगा का केवल काशी में ही उत्तरवाहिनी बनना और उसकी प्र‍तीक के तौर पर शिव के त्रिशूल पर काशी का बस जाना, प्रकृति के कमाल की मानवीय व्याख्याएं हैं। और इन व्याख्याओं को शब्द दिये तुलसीदास, रामानन्द, रविदास, तैलंग स्वामी, कुमारस्वामी आदि ने। इन संन्यासियों ने शब्द सरिता प्रवाहित की, तो धर्मभीरू राजाओं ने उनके शब्दों-भावों को अट्टालिका बना डाला। कई राजाओं-महाराजाओं ने इन्हीं गंगा घाटों पर अपने महलों का निर्माण कराया एवं निवास किया। यही वह वजह है कि इन घाटों पर सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति का समन्वय जीवन्त रूप में विद्यमान है। घाटों ने काशी की एक अलग छवि को जगजाहिर किया है; यहां होने वाले धार्मिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गंगा आरती, गंगा महोत्सव, देवदीपावली, नाग नथैया (कृष्ण लीला), बुढ़वा मंगल विश्वविख्यात है।

काशीवासियों के लिये गंगा के घाट धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व के साथ ही पर्यटन, मौज-मस्ती के दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। घाट पर अपना निजी चिन्तन कीजिए। किसी शिक्षक की जरूरत नहीं। सिर्फ सीढि़यों को आत्मसात कीजिए। आपको दिखेगा, गंगा-स्नान के बाद भांग-बूटी में मस्त साधु-संन्यासियों का जमावड़ा। आध्यात्मिक जागरण का प्रतीक उगता हुआ सूरज और गंगा पर उसकी प्रतिछाया जो मीलों तक पूरे जल-प्रवाह को कुछ इस तरह स्वर्णमय बना देगी, कि आप दंग रह जाएंगे। मलंग बनारसियों की आस्था, और पूरे शहर में फैला जीवन्त कोलाहल, जो रात नौ बजे तक पूरी तरह शांत हो जाता है। गजब है यहां का हल्ला और फिर शांति।

बनारस के बारे में प्रसिद्ध दार्शनिक मार्क ट्वेन ने कहा था कि यह शहर इतिहास और किंवदंतियों से भी पुराना है। सामान्य हिन्दू मान्यताओं से भी परे, आनन्द का महानगर होने के बावजूद यह पीड़ा का महासागर भी है। खुद शिव अपनी पत्नी के विछोह से इतना बेहाल हुआ, कि पत्नी की लाश लेकर दुनिया-जहान तक दौड़ता रहा, और जब मणिकर्णिका घाट पर पहुंचा तो दुख से मुक्ति हो गया। फिर लगा पूरी सभ्यता को आनन्द की डगर पकड़ाने। वाकई गजब है बनारस। बस जब तक बना रहेगा रस, बना रहेगा बनारस।

तो बोलो:- हर हर महादेव, हर हर शम्भू

रांड़, सांड, सीढ़ी, संन्‍यासी, जो भी बचे वो सेवै कासी।

गजब मंत्र है, काशी को समझने और काशी को पाने के लिए। लेकिन धंधेबाज पाेंगापंथी पंडतों ने इस मंत्र के अर्थ का अनर्थ कर दिया। उन्‍हें यह कुप्रचारित कर‍ दिया कि काशी को वही समझ सकता है, जो यहां की कलपती विधवाओं, जहां-तहां विचरते सांड़ों, बेहिसाब सीढ़ी और बेशुमार साधु-संन्‍यासियों से दूरी बनाने में सफल हो जाए। वे बोले:- रांड़, सांड़, सीढ़ी, संन्‍यासी, इनसे बचे जो सेवै कासी। खैर, काशी सर्वविद्या की राजधानी है। बीएचयू के कुलगीत में भी इसका खुलासा है। काशी में खास कर बंगाली विधवाओं का सिर मूंड़ कर भेजा जाता था। जबरिया मोक्ष दिलाने के लिए। भोलेनाथ के सेवक नंदी सा़ड़ों से अटी पड़ी है काशी। काशी मे मोक्ष के प्रतीक बनीं अनगिनत सीढि़यां हैं, और संतों-साधुओं की भारी भीड़।

मानस मंदिर के शास्‍त्री त्रिलोचन इस मंत्र का स्‍पष्‍ट मर्म बताते हैं। उनका कहना है कि जिसे काशी को समझना और पाने की इच्‍छा है, उसके लिए काशी के दरवाजे हमेशा खुले हैं। लेकिन यहां ज्ञान के अलावा कुछ भी वापस लाना अनर्थ है। जो भी द्रव्‍य-पदार्थ आपके पास बचे हों, उसे काशी की विधवाओं, सांड़ों, सीढि़यों और संन्‍यासियों के उद्धार और विकास के लिए अर्पित करना ही काशी का हासिल करना होता है। काशी में गंगा के चार मील लम्‍बे तट पर बने अप्रतिम 84 घाट इसी मंत्र का साकार अर्थ हैं।

( वाराणसी और उसके घाटों को लेकर आधारित यह लेख देश के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र ट्रिब्‍यून में रविवार 27 मार्च-2016 के अंक में प्रकाशित हो चुका है।)

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