इस हिंदीभाषी को बंगला पिक्चर में क्यों लाये हो

बिटिया खबर
: मैंने बहुत नजदीकी से बंगालियों के ऐसे रवैये को देखा-समझा : लेकिन जैसे ही उन्‍हें पता चला कि मैं बंगाली नहीं हूं, उनकी शक्‍ल ही बदल गयी : अशित चक्रवर्ती सुना रहे हैं इलाहाबाद पॉलीटेक्निक से जुड़ी कुछ दिलचस्‍प यादें :

( सामान्‍य तौर पर पाया यही जाता है कि बंगाली लोग अपने आप को एक अनोखी प्रजाति का प्राणी मानते हैं। अपने को श्रेष्‍ठ नहीं, बल्कि श्रेष्‍ठतम मानते हैं, जबकि बाकी को निम्‍नतम दर्जे पर प्रदर्शित करते हैं बंगाली लोग। अक्‍सर तो अगर कोई बंगाली के सामने कोई दूसरा बंगाली मिल जाए, तो वे सहज शिष्‍टाचार छोड़ कर आपस में ही बंगाली बोली में गुटरगूं करना शुरू कर देते हैं। दो बरस पहले जब मैं हावड़ा और कलकत्‍ता गया, तो मैंने बहुत नजदीकी से बंगालियों के ऐसे रवैये को देखा-समझा। मेरी शक्‍ल-सूरत से वहां मुझे लोगों ने हाथोंहाथ लिया। उन्‍हें लगा कि मैं बंगाली ही हूं। लेकिन जैसे ही उन्‍हें पता चला कि मैं बंगाली नहीं, बल्कि ठेठ यूपी के लखनऊ वाले इलाके का रहने वाला हूं, उनकी शक्‍ल ही बदल गयी: संपादक )

अशीत चक्रवर्ती
इलाहाबाद : उपरोक्त सस्थान मेरे 1965 में प्रवेश के कुछ वर्ष पहले सिविल इंजीनियरिंग स्कूल के नाम से जाना जाता था।मेरे प्रवेश के समय इलाहबाद पॉलीटेक्निक जिसके प्रधानाचार्य बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री आर एन कपूर जी थे।छात्रों में उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व की विभीषिका इस कदर व्याप्त थी कि कोई कठिन दंड के भय से अनुशासन तोड़ने की धृष्टता नहीं करता।श्री आर एन कपूर के परिश्रम एवमं प्रयासों के कारण आज उक्त संस्थान एक स्वायत्तशासी सस्थान के रूप में I.E.R.T. (इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजिनीरिंग एंड रूरल टेक्नोलॉजी) के नाम से परिचय पा सका।छात्र परिषद् गठन के लिए, संस्थान में छात्रों द्वारा की गई एक माह की हड़ताल, सभी अध्यापकों द्वारा त्यागपत्र देना, बहुगुणा जी द्वारा समझौता कराना इत्यादि घटनाओं से कपूर साहब को प्रथम बार हमारे बैच से विरोध का सामना करना पड़ा,उसकी कहानी को किसी और पोस्ट में बिस्तार से चर्चा करूँगा।
छात्र जीवन में सभी का परिचय सिर्फ प्रथम नाम से होता था इस कारण किसी के प्रदेश , जाति , धर्म आदि का ज्ञान नहीं होता था तब सभी छात्र विद्यार्थी ही हुआ करते थे। ये तो मंडल कमीशन का जहर था जिसके लागू होने के पश्चात कितने ही शर्मा जीयों को नाइ ,सिंह लोगों को तथा वर्मा जियों को कुर्मी और कोइरी एवं अनुसूचित जाति का होते देखा।इस प्रकार राजनीतिज्ञों ने विभिन्न जातियों में आपस में द्वेष की भावना उत्पन्न कर, समाज विभाजित कर दिया।मुझे तो पहले का जाति धर्म विहीन छात्र जीवन का सौहार्दपूर्ण वातावरण ही प्रिय था।
तृतीय वर्ष में पहुँचने पर सभी जूनियर छात्र प्रथा अनुसार सीनियर छात्रों का सम्मान करते थे। रैगिंग नाम का कोई अभिशाप कैंपस में नहीं था।परंतु हॉस्टल में कभी कभी कुछ छिट पुट अशिष्ट घटनाओं की शिकायत हॉस्टल वार्डन के पास अवश्य आती थी जिसका निस्तारण वे अपने स्तर पर करते थे।इन सब बातों का उल्लेख इसलिए किया कि कुल मिलकर मुझे सभी जूनियर छात्र जानने लगे थे परंतु किसी को मेरे बंगला भाषी चक्रवर्ती होने का ज्ञान नहीं था क्योकि प्रथम नाम अशित ही मेरा परिचय था।
उस ज़माने में अजंता टॉकीज में रविबार को सुबह 9 से 12 का मॉर्निंग शो में बंगला पिक्चर लगती थी । एक रविबार को मै अपने भाई अलोक नाथ बागची के साथ जो इलाहबाद पॉलिटेक्निक का प्रथम वर्ष का छात्र था बंगला सनीमा देखने गया।मध्यांतर में मै जब सिगरेट पीने बहार आया तो एक अन्य बंगाली छात्र ने आलोक जी से मेरे सामने ही बंगला में आवाजा मारा कि “एइ मेड़ो टा के बंगला सिनेमा देखाते केनो निये ऐसेछिस” अर्थात इस हिंदीभाषी को बंगला पिक्चर में क्यों लाये हो ? जब उसने उत्तर दिया कि यह सीनियर मेरा बड़ा भाई है तब वह अत्यंत शर्मिन्दा हुआ और सॉरी सॉरी कहने लगा।मुझे इस घटना से बहुत आनंद आया क्योकि मेरे प्रथम नाम के प्रसिद्धि के कारण उस जूनियर को शर्मिंदा होना पड़ा।
तीन वर्ष पूर्व का पोस्ट आज ही के दिन।

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