: दरअसल ऐसे तोहफे होते हैं रिश्वत के तौर पर : रिश्वत देने और लेने वाले बेहद कुशल अभिनेता होते हैं : अब तो आईएएस एसोसियेशन को ही इस पर हस्तक्षेप करना चाहिए : लो देख लो, बड़े बाबुओं की करतूतें- 28 :
कुमार सौवीर
लखनऊ : आप चाहें उसे तोहफा मान लें, या फिर उसे डाली अथवा तश्तरी। हकीकत तो यही है कि ऐसी चीजें केवल एक ही आवाज निकालती हैं। और वह होता है:- रिश्वत यानी घूस। अब रिश्वत-घूस बहुत आयामी होता है। कुछ रिश्वत तो सीधे तत्काल किसी काम के निपटान में ब्रह्मास्त्र मानी जाती है। किसी काम को निपटाया जाने के दौरान या उसके खात्मे के बाद दी गयी रकम या पदार्थ। लेकिन कुछ ऐसी रिश्वत होती है, जो पेशगी के तौर पर काम में लायी जाती हैं। किसी काम को हासिल करने के लिए दी गयी रिश्वत इसी तरह की होती है।
लेकिन तीसरी किस्म की रिश्वत बहुत ऊंचे स्तरों पर तय होती है। इसका भुगतान और उसको स्वीकार करने का मतलब सिर्फ यह होता है कि बस, यूं ही। हमें याद रखना। आम तौर पर ऐसी रिश्वत किसी बड़े सौदे को पनिहाने के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। मसलन, किसी बड़े प्रोजेक्ट की तैयारी के पहले से ही इसका भुगतान किसी न किसी मौके पर दिया जाता है। इसके भुगतान का चेहरा कुछ ऐसा होता है मानो वह कोई व्यावसायिक रिश्ता नहीं, बल्कि निहायत आत्मीय और निजी-घनिष्ठ सम्बन्धों पर आधारित है।
यह तीसरी किस्म की रिश्वत में दोनों ही लोग बहुत कुशल अभिनेता के तौर पर व्यवहार करते हैं। देने वाला आम तौर पर खुद को छोटा भाई कहलाता है,जो हासिल करने वाले को अपना बड़ा भाई बना कर उसका चरण-स्पर्श करता दिख जाता है। बड़ा भाई उसके कांधे पर हाथ रख कर बेहद आत्मीय सम्बन्ध प्रदर्शित करते हुए उसे अपने झुके चरणों से ऊपर उठाता है। फिर छोटे भाई को गले से लगाता है। सब एक-दूसरे का कुशल-क्षेम पूछते-देते हैं। एक-दूसरे के रिश्तेदारों और खास कर बच्चों और उनकी पत्नियों के बारे में गहरी छानबीन करते हैं। वैसे आम तौर पर ऐसे में छोटे भाई की पत्नी उस वक्त मौजूद होती हैं, जिसे बड़ा भाई अपना भूरि-भूरि आशीष देता है।
फिर तोहफों के आदान-प्रदान का कार्यक्रम शुरू होता है। बड़ा भाई अपने इस छोटे भाई को कस कर झिड़कता है कि घर में ऐसी औपचारिकताओं की क्या जरूरत होती है। फटकारता है कि, “आइंदा ऐसा मत करना, तुम घर के मेम्बर हो। ही ही ही। आओ, सब से मिलवाता हूं तुम लोगों को। अरे बहू ! तुम इधर आओ, अपनी भाभी की तरफ। अरी सुनती हो, बहू आयी है। हां हां, बहुत दिनों बाद दिखी। लेकिन अब खुश दिख रही है। कुछ खुशखबरी है क्या? “
बडी भाभी अपनी छोटी बहू को सीने से लिपटाती है, फिर उसके हाथों से तोहफे का पैकेट लेती है और फिर अपने किसी अत्यन्त विश्वस्त को वह पैकेट थमा देती है, कान में कुछ खुसफुसाहट के साथ।और इसके साथ ही रिश्तों की मिठास का गाढ़ापन लगातार और मजबूत और उसकी चाशनी आठ तार के बजाय दो और एक तार की बनने ओर अग्रसर हो जाती है।
इसके बाद बड़ा भाई छोटे भाई की पीठ थपथपाते हुए आसपास घेर लगाये भीड़ की ओर मुखातिब होता है, “अरे छोटे। जरा इन मेहमानों को इंटेनमेंट कर लो, मैं बाकी लोगों को देखता हूं। अभी बड़े-बड़े लोग आने ही वाले होंगे। अब तुम्हें ही सम्भालना है सबको। क्या समझे। अरे समझा भी करो यार। “
ऐसे तोहफों का असर छोटे भाई के अगले प्रोजेक्ट पर साफ दिखायी पड़ता है। सारी अड़चनें किसी इंक-रिमूवर की तरह बढ़ती-बहती हैं। मार्ग निष्कलंक होता जाता है, प्रोजेक्ट पूरा होता जाता है। लेकिन बड़े भाई को कोई रिश्वत देने की हिमाकत नहीं करता। हां, नीचे वाले अफसर लोग अपना-अपना हिस्सा जरूर हासिल करते रहते हैं। बड़ा अफसर हमेशा ईमानदार होता रहता है, लेकिन छोटे अफसर औसत बेईमान होते हैं। लेकिन काम होता रहता है और द्रुत गति से चलता है। आल इस वेल !
लेकिन आम तौर पर ऐसे रिश्तों में आतिथ्य सत्कार का सारा जिम्मा छोटा भाई सम्भालता है। किसी को कुछ देना है, तो छोटा देगा। किसी की सिफारिश करवाना है तो छोटे का जिम्मा। किसी को कैसा भी, “मेरा मतलब किसी भी तरह का, ” इंटेनमेंट की जरूरत होती है, तो भी छोटा भाई ही अपने ही सर्वोच्च दायित्व की तरह सम्भालता है, जैसे सीता की सुरक्षा।
अब इससे ज्यादा और क्या कह दूं?
जो भी कहना होगा, अगले अंक में लिखूंगा।(क्रमश)
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