निर्मल अयोध्‍या में क्रूर राजनीति कूद पड़ी, और हो गया विध्‍वंस

मेरा कोना

: महंथ अवैद्यनाथ ही थे वैष्‍णव-शैवों के मेल-मिला के नव-प्रणेता : इन दोनों धुर-विरोधी मतों के बीच आध्‍यात्मिक-धार्मिक प्रगाढ़ता के लिए था राम जन्‍मभूमि आंदोलन : एक-दूसरे के पड़ावों से कोसों दूर रहते थे परस्‍पर गुटों के पीठाधीश्‍वर : राम जन्‍मभूमि आंदोलन-पांच :


कुमार सौवीर

लखनऊ : अयोध्‍या आंदोलन की अवधारणा और उसका शुरूआत चरित्र शैव और वैष्‍णवों की एकता का आंदोलन था। इसमें इन दोनों के ही पीठाधीश्‍वर परस्‍पर आध्‍यात्मिक और धार्मिक समरूपता के लिए सहमत होने के बाद सक्रिय हो गये थे। नतीजा यह कि पहले जब एक-दूसरे के पीठाधीश्‍वर एक-दूसरे के पीठों से कोसों दूरी बनाये रखते थे, परस्‍पर समन्‍वय की पहल-कदमियों के बाद इनका आपस में आना-जाना और एक-दूसरे का समझना और जूझना शुरू हो गया। साफ कहें तो शुरूआत में तो इसमें केवल धार्मिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिक और सामाजिक एकरूपता का आंदोलन प्रशस्‍त हुआ था, लेकिन जैसे ही यह फसल पकने लगी, राजनीति ने उसे लपक लिया। भाजपा के निर्देशों के साथ उसके अनुषांगिक संगठनों ने भी इस आंदोलन में घुसपैठ बनानी शुरू हो गयी। शैव-तत्‍व का गरमागरम कोशिशों ने सिर उठाना शुरू कर दिया, और लो भई, हो गया विध्‍वंस। मर्यादा के तौर पर पूजे जाने वाले पुरूषोत्‍तम राम की शालीनता एक झटके में ही रौंद कर उसे खण्‍डहर में तब्‍दील कर दिया गया। राजनीति पर हावी सरकारी मशीनरी ने रामभक्‍तों पर गोलियां चलायीं, फिर गोधरा, फिर वह, फिर वह। भाजपा जिन्‍दाबाद हो गयी।

सच बात तो यही है कि शैव समुदाय की पहली पंक्ति माने जाते हैं नगा-अखाड़े। शैव का जन्‍म हिन्‍दू धर्म की सुरक्षा के लिए हुआ। शैव हठ-योगी हैं, यानी हिन्‍दुओं में नरम दल। मूलत: योद्धक प्रवृत्ति होने के चलते यह लोग हमलावर अंदाज में ही रहते हैं। आदेश का पालन करना उनकी प्रवृत्ति होती है। मस्‍त-मलंग। बावजूद इसके कि वैष्‍णवों आदि अन्‍य समुदायों की सुरक्षा के लिए ही शैव सक्रिय होते हैं, लेकिन प्रवृत्ति के तौर पर यह लोग वैष्‍णवों से वैर-भाव ही रहते हैं।

सामान्‍य तौर पर तो यही माना जाता है कि कभी भी एकजुट नहीं हो सकते हैं शैव और वैष्‍णव। लेकिन कुछ लोग इस तथ्‍य को खारिज भी करते हैं। वरिष्‍ठ पत्रकार प्रभात रंजन दीन इस बात को नहीं मानते हैं कि वैष्‍णव और शैव एकसाथ नहीं हो सकते हैं। दीन का तर्क है कि यह हाइपोथेटिकल मसला है। उदाहरण के लिए, सुन्‍नी-शिया में कटुता लगातार बढ़ती रहे, इससे बेहतर है कि इतिहास के ऐसे पक्षों को एकजुट करने की कोशिश की जाए। और इस मामले में अगर हिन्‍दू समाज की बात की जाए, तो रामजन्‍म भूमि मुक्ति आंदोलन एक सार्थक पहलू है। हां, इस आंदोलन में राजनीति घुस गयी, यह दुर्भाग्‍यपूर्ण पक्ष है। कहने की जरूरत नहीं कि इसके पहले यह दोनों ही धाराएं अलग-अलग दिशा में भाग-दौड़ रही थीं।

दीन ने गोरक्षनाथ पीठ के महंथ अवैद्यनाथ से लम्‍बी बातचीत की थी। यह बातचीत उनके जीवन-काल में गोरखनाथ मंदिर में हुई थी। इसलिए अयोध्‍या आंदोलन में उनका दखल खासा महत्‍वपूर्ण रहा था। यह इसलिए, क्‍योंकि मंहथ अवैद्यनाथ और उनकी यह पीठ मूलत: शैव है। दीन की बातचीत से स्‍पष्‍ट हुआ था कि गोरखनाथ के शैव पीठाधीश्‍वर महंथ अवैद्यनाथ ने ही रामजन्‍म भूमि आंदोलन की पहल की थी। दीन बताते हैं कि इस आंदोलन का यह आध्‍यात्मिक और अकाल्‍पनिक पक्ष है, और इससे साफ होता है कि इन दोनों की बुद्धि परिमार्जित हो रही थी। नतीजा यह हुआ कि इसके बाद यह दोनों ही पीठाधीश्‍वर एकदूसरे के पड़ावों में आने-जाने लगे। सामांजस्‍य और मृदुता की धारा बहने लगी। एकजुटने की कोशिशों में पुख्‍ता रंग भरने लगा।

लेकिन अचानक किसी बाज-चील की तरह भाजपा ने इस आंदोलन को लोक लिया। इतना ही नहीं, भरभरा कर भाजपा के सारे अनुषांगिक संगठन अयोध्‍या में पहुंचने लगे। दीन बताते हैं कि राजनीति हर चीज को लपकती है। उसने अयोध्‍या को भी लपक लिया। सांस्‍कृतिक-सामाजिक आंदोलन पिछड़ गयी, राजनीति जीत गयी। दीन बताते हैं कि भाजपा ने उसे आध्‍यात्मिक, धार्मिक और सांस्‍कृति व सामाजिक ताकत नहीं बनने दिया।

और किसी अवांछित आधार के, इस आंदोलन को विद्रूप बनाने के लिए अनिवार्य अस्‍त्र-शस्‍त्र बन गये शैव। ( क्रमश:)

यह लेख-श्रंखला धारावाहिक तैयार की जा रही है। प्रतिदिन उसकी एक-एक कड़ी प्रकाशित होगी। इसकी अन्‍य बाकी कडि़यों को देखने-बांचने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-

रामजन्‍मभूमि आंदोलन

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