फूल से हाथ जल गया साहब, कितना मौसम बदल गया साहब

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

अब क्या उजरत है मेरे पसीने की, अब तो सूरज भी ढल गया साहब

कुमार सौवीर

जौनपुर : आज फिर जौनपुर पहुंचा हूं।

करीब 14 साल पहले मैं पहली बार जौनपुर में आया था। कोतवाली चौराहा पर दो-चार पान-बीड़ी और रबड़ी-मलाई की दूकानें डोलची आधी रात तक जागती थी। लेकिन बाकी शहर आठ बजे तक खामोश हो चुका होता था। सिटी स्टेोशन तक आना-जाना दूभर होता था। बिजली वाले कवि गिरीश सिन्हा जीवन का घर ही देर रात का सहारा होता था। शहर की चहारसू के आसपास वाले सर्राफा वाले गहनों के साथ ही साथ पुराने सिक्कों की डोलचियां खोले रखते थे। दो रूपये में हल्का जलपान जैसा फ्रेश भुना दाना-भूजा मिल जाता था। एक रूपये में चाय की गुज्झी-कुल्हड़ भी। तब शहर में कोई भी लड़की सायकिल में नहीं चलती दीखती थी। स्कूली लड़कियां तब सलवार-कुर्ता-दोपट्टा में ही आती-जाती थीं। भूल कर भी कोई महिलाओं से अभद्रता नहीं करता था। तब आस्था दूर-स्थानों पर नहीं दौड़ती थी, बल्कि मैहर की मिट्टी लाकर मैहर मइया का मंदिर बना दिया जाता था। यह संवेदनशीलता थी इस जौनपुर की।

उधर कई चीजें जस की तस हैं जौनपुर में। मसलन, चहारसू, सिपाह जैसे नाम और दीवानी में चश्मा बेचती खांटी ईरानी औरतें। कुछ भी तो नहीं बदला है इन चीजों में। शाम को दारू, और सुबह चौंकिया धाम का आचमन। बेमिसाल 29 से अधिक साधुओं की नृशंसता से हुए कत्ल, लेकिन बनी रही जौनपुर की खामोशी। लालजी सिंह के यहां पूरा खानदान डकैतों ने खत्मा कर दिया, जौनपुर खामोश रहा। पुलिस ने पांच डकैतों को एनकाउंटर में मार दिया, जौनपुर चुप्पी साधे रहा। नहीं बोला, कि क्या वाकई यह सही एनकाउंटर किये थे पुलिस ने। ऐसी न जाने कितनी लाशें जौनपुर में गिरीं, लेकिन पुलिस से जवाब तलब नहीं किया पुलिस ने। 17 फरवरी-16 को भी जौनपुर के लोग अपनी रजाई से बाहर नहीं निकले, जब एक लावारिस बच्ची को जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक ने पागलखाने में भेजने की साजिश कर दी। बजाय इसके कि उसकी रिपोर्ट दर्ज होती, मेडिकल कराया जाता कि उस बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ या नहीं।

उधर कई मायनों में अब जरा तेवर बदले लगते हैं जौनपुर के। यहां पांच रूपये से कम कोई रिश्ता नहीं बचा। कैंसर की दोहरा-पुडि़या भी इससे कम में नहीं मिलती। जिला प्रशासन और पैसे वालों ने शहर की पूरी झील बेच कर सुखा दिया। भण्डारी से जेसीज का रिक्शा भाड़ा हो गया चालीस रूपया। शायर जमाली साहब और पंकज सिंह की मौत हो चुकी है। प्रो अरूण कुमार सिंह, मिर्जा दावर बेग, अहमद निसार, कमर अब्बास और ओमप्रकाश मिश्र, सीमा सिंह जैसे लोग कविता-शायरी-साहित्य के मोर्चे के अग्रिम-पंक्ति पर हैं। स्कू्टी पर महिलाएं फर्राटा मारती हैं, तो लडकियों की भीड़ सायकिलों पर दौड़ती है। मॉडल शॉप और शराबखाने देर रात तक आबाद होते हैं। उत्सव और रघुवंशी जैसे होटलों में बिल के साथ-साथ सौ-पचास का टिप भी खुशी-खुशी अदा कर दिया जाता है। दुबे होटल की दाल-फ्राई का सोंधा स्वाद लोग भूलने लगे हैं। एचआईवी के मरीजों की संख्या मैराथन दौड़ पर है। महिलाएं, किशोरी तो दूर, अब तो मासूम बच्चियों से भी खूब बलात्कार और हत्या होती है। चौराहे चौड़े हो रहे हैं, दिल-दिमाग संकरा होता जा रहा है। साप्ताहिक कवि-गोष्ठी का माहौल स्थाई रूप से रेगिस्तान बन चुका है। शीराज-ए-हिन्द् की ईजाद रही राग-जौनपुरी कोई नहीं जानता।

फिलहाल होश जौनपुरी साहब का एक शेर सुन लीजिए, और फिर बात खत्म।:-

फूल से हाथ जल गया साहब, कितना मौसम बदल गया साहब।

अब क्या उजरत है मेरे पसीने की, अब तो सूरज भी ढल गया साहब।

 

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