: जनआंदोलनों को किसान असंतोष के बजाय देशद्रोहियों की करतूत बाताया गया : दिल्ली के इंदिरा-स्मारक में सन-88 में केंद्र सरकार की नाक काट ली थी किसानों ने : जी-न्यूज और आजतक जैसे चैनलों के दोगले पत्रकार भी सरकार की मदद न कर पाये : आंदोलनकारियों की चेतावनियां न मानने पर पायजामा से बाहर निकले पत्रकार सरेआम पीटे गये :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह सन-88 के आसपास की घटना है। देश में किसानों के सबसे बड़े नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों के मसले पर दिल्ली में पांच लाख किसानों का जमावड़ा जुटा दिया। गोली चली, दो लोग मारे गये। भड़के महेंद्र टिकैत ने इंदिरागांधी के स्मारक पर बने एक मंच और उसके पूरे मैदान पर कब्जा कर लिया। दिल्ली और केंद्र सरकार धड़ाम हो गयी। नाक कट गयी सरकार की और किसानों का डंका बजने लगा पूरे देश में। उसी बीच उप्र सरकार से बातचीत करने के लिए महेंद्र टिकैत लखनऊ आये। वीरबहादुर सिंह मुख्यमंत्री थे। टिकैत के साथ बेहिसाब भीड़ थी। सरकार के पास इतना ही दम नहीं था कि वे टिकैत की व्यवस्था कर पाते। टिकैत ने चारबाग रेलवे स्टेशन के सामने रवींद्रालय के विशाल मैदान में डेरा डाल लिया।
पत्रकारों के लिए यह डेरा खास अहमियत रखता था। सभी अखबार इस कार्यक्रम का कवरेज करने के लिए रणनीति बना रहे थे। एक बड़े अखबार की एक रिपोर्टर को उनके सम्पादक ने यह दायित्व सौंपा। उनसे कहा गया था कि वे सीधे महेंद्र टिकैत का इंटरव्यू करें। ऐसा इंटरव्यू करें, कि लोग दांतों तले उंगलियां दबा लें। बाकी रैली का कवरेज करने के लिए उस अखबार ने अपने एक दूसरे को भेजा।
पैंट और कुर्ती में खुद को सजाधजा किये वह महिला पत्रकार सीधे महेंद्र टिकैत के पास पहुंची। अपने आप को तेज-तर्रार होने का इम्प्रेशन दिखाने के लिए उस महिला ने शुरू में ही महेंद्र टिकैत से उल्टे-पुल्टे सवाल पूछने शुरू कर दिये। टिकैत एक दरी पर बैठे हुए हुक्का पर गुड़गुड़ कर रहे थे। आवाज बहुत थी, लेकिन धुआं ही नहीं दिख रहा था। टिकैत उस महिला के तेवर देख कर आसपास ही अपनी नजर फेरते हुए आंदोलन को निर्णायक स्तर तक पहुंचाने की रणनीति बनाने के साथ ही साथ पूरे माहौल को आंकने की कोशिश कर रहे थे। जाहिर है कि उनका ध्यान उस महिला पत्रकार पर नहीं था। यह देख कर उस पत्रकार ने झुंझलाकर महेंद्र टिकैत को टहोका। यह देखते ही टिकैत बोले कि:- जाओ, पहले दुपट्टा पहनना सीख लो, उसके बाद आंदोलनों को समझ पाओगी।
कहने की जरूरत नहीं कि उसके बाद इंटरव्यू खत्म हो गया। अपनी झिझक को छुपाने की कई असफल कोशिशों के बाद वह महिला उस मौके से खिसक निकली।
ठीक यही हालत आज किसान आंदोलन पर सन-88 में दिल्ली किसान आंदोलन और मीडिया की हालत पर हो गयी है। दोनों ही दोनों जमीन पर धड़ाम हो चुके हैं। सच बात तो यही है कि सरकार का ईमान, निष्ठा, और उसके सच का दीवाला निकल चुका है। खुद को दंडधारी माने जाने वाली सरकार अब थूक चाटने की हालत से भी बदतर हो चुकी। और मीडिया की हालत तो उससे भी ज्यादा बदतर हो गयी। सरकार को बचाने की सारे भांड़-गिरी में जुटे पत्रकार पूरी तरह नंगे हो चुके हैं। कई पत्रकार तो सिंधु बार्डर समेत कई इलाकों में बुरी तरह पीटे गये, तो कहीं को कड़ी चेतावनी दे दी गयी। यह सब के सब दुम दबा कर भाग निकले।
दो दो बरस तक अपनी मांग को लेकर जुटे रहे किसान। उनका आर्तनाद था कि किसान कानूनों के नाम पर पूरे देश के पेट पर लात मारा जा रहा है और किसानों की मेहनत पर निजी हाथों पर बेचा जाएगा। इस आंदोलन का लाभ पूरे देश के किसानों की अस्मिता, सुरक्षा और उनकी आत्मनिर्भरता के लिए था, और इसके लिए जूझ रहे थे केवल पंजाब और हरियाणा के साथ-साथ पश्चिम उप्र के चंद जिलों के किसान। इन लोगों ने सिंधु-बार्डर और गाजीपुर-बार्डर पर सरकार पर चुनौती देने के लिए दिल्ली की ओर कूच करने का ऐलान किया, तो केंद्र सरकार बौखला पड़ी। उसने इस पूरी सीमा पर अभूतपूर्व पाबंदी लगा दी। आवागमन पूरी तरह रोक दिया गया। सड़क पर बड़ी कीलें बिछा दी गयीं।
अपनी रोजी-रोटी को सुरक्षित करने के लिए जद्दोजहद करने में जुटे करीब सात सौ किसानों को केंद्र सरकार की जिद ने मौत के घाट उतार दिया। अंध-भक्तों की फौज ने इन किसानों का चरित्र-हनन किया। कहीं पर उन्हें दुराचारी कहा गया, तो कहीं उन्हें नशेड़ी। सरकार और उनके कारिंदों ने उन्हें पाकिस्तान की शह पर भारत के खिलाफ साजिश बुनने वाले खालिस्तानी एजेंट बताया, तो कहीं कहीं कनाडा से पैसा लेकर भारतीयता के नाम पर कलंक पोतने की साजिश बतायी गयी। उन्हें देश-द्रोही बताया गया, तो कहीं उन्हें घर में बिल बनाये सांप की तरह जहरीला नाग बताया।
सरकार की गोद में बैठी जी-न्यूज और आजतक जैसे चैनलों व अखबारों वाले मीडिया ने इस आंदोलन का विकास-विरोधी बनाया और कहा कि ऐसे दो-मुहें लोगों को हमेशा-हमेशा के लिए कुचल दिया जाना चाहिए। सुधीर चौधरी जैसे घटिया पत्रकारों जैसे बेशर्मी पर आमादा ऐसे चैनलों की एंकर-एंकरी से लेकर अंधभक्त मीडिया के रिपोर्टर जब मौके पर पहुंचे तो उनका लहजा ऐसा ही रहा कि मानो वे ऐसी मीडिया के लोग हैं, जो सत्ता के मुकुट हैं, और आंदोलन कर रही जनता उनके बल पर ही है। वे सबके सामने ऐलान करते रहे कि वे आंदोलन का मकसद देश को तबाह करना है।
जी-न्यूज और आज तक जैसे बड़े बड़े मीडिया चैनलों और अखबारों ने तो यह तक ऐलान कर दिया कि आंदोलन स्थल पर शराब की बोतलें बांटी जा रही हैं। यह तक देश को बताया गया कि वहां शराब और शबाब खुलेआम मिल रहा है और उसकी व्यवस्था देश-विरोधी धन्नासेठ और कनाडा व पाकिस्तान की इशारे में जुटे लोग कर रहे हैं। यह भी चिल्लाया गया कि सारे आंदोलनकारी लोग मूर्ख हैं, या फिर धोखे शिकार।
लेकिन आखिरकार कोई कब तक उनके चरित्र पर हमला करता। सब्र का बांध टूटने लगा तो कई चैनलों के कई पत्रकार सरेआम पीट दिये गये। लेकिन इसके बावजूद मीडिया ने कहना शुरू कर दिया कि आंदोलनकारी देशद्रोही लोग सच पर भी हमला करने लगे हैं।
आपको बता दें कि सन-88 में महेंद्र टिकैत ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी थी, नतीजा यह हुआ कि टिकैत और किसान जीत गये। इधर लखनऊ में उसी दौर में एक महिला को उसकी करतूत पर महेंद्र टिकैत ने टोका था, लेकिन इस आंदोलन में शामिल सारे आंदोलनकारियों ने हर कदम पर पत्रकारों को चेतावनियां दीं। नतीजा यह हुआ कि अपने पायजामा से बाहर निकलते पत्रकार सरेआम पीटे गये।
शायद इसके बाद पत्रकार अपनी सीमा का ध्यान रखेंगे और ऐसी कोई हरकत नहीं करेंगे, जिससे उनका धर्म ही भ्रष्ट हो जाए। वरना पीटने का अधिकार तो आखिरकार जनता के पास है ही।