तुमने मेरी जिन्दगी को एक मानी दिया, नहीं तो क्या था इसमें

बिटिया खबर

: फ़ारुख शेख को लखनऊ आज भी याद करता है : देख लो आज हमको जी भरके : 

डॉ योगेश प्रवीन और प्रो शशि शर्मा 
लखनऊ व नई दिल्‍ली : कल फारूख शेख की पुण्‍यतिथि थी। फारूख यानी एक दिग्‍गज शख्सियत। केवल फिल्‍म ही नहीं, बल्कि अपने यार-दोस्‍तों और समाज के लिए भी एक बेहतरीन कदमताल करने वाला शख्‍स। और इश्‍क के मामले में तो बेमिसाल। चाहे वह जहरे-इश्‍क फिल्‍म यह गीत का फिल्‍मांकन हुआ हो जिसमें यह गीत दर्ज किया गया कि:- देख लो आज हमको जी भरके। या फिर बाजार फिल्‍म में फारूख का यह अंदाज कि “तुमने मेरी जिन्दगी को एक मानी दिया, नहीं तो क्या था इसमें।” ।
दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी विभाग की प्रोफेसर रहीं शशि शर्मा और देश के प्रख्‍यात इतिहासकार डॉ योगेश प्रवीण ने फारूख के अंदाज को अपने शब्‍दों में संजोया और सजाया है। शशि शर्मा तो बाजार में फारूख के उस डॉयलाग के अंदाज पर लरज पड़ीं कि , जबकि योगेश प्रवीन को वे लम्‍हें खूब याद हैं, जब फारूख उनके घर पधारे थे।

शशि शर्मा याद करती हैं कि कुछ स्मृतियाँ जीवन भर के लिए स्थायी रूप से मन में रह जाती हैं। फ़ारूक़ ने फिल्म बाज़ार में एक डायलाॅग बोला था, “तुमने मेरी जिन्दगी को एक मानी दिया, नहीं तो क्या था इसमें।” दिल में गड़कर रह गया। एक निरर्थ ख़ाली सी ज़िन्दगी में अर्थ भरना, प्यार की इससे ख़ूबसूरत पहचान और कुछ नहीं हो सकती । जिस तरह फ़ारूक़ ने मानी शब्द को प्यार और सम्मान के साथ बोला, और क्या था इसमें शब्दों में जो हिकारत और निरर्थकता को व्यंजित किया वह अविस्मरणीय है । प्रेम में सम्मान ज़रूरी है। एक स्त्री जब किसी पुरुष को अपना सम्मान सौंपती है तब वह उस पुरुष का भी सम्मान बन जाता है, यही अद्वय है, दुनियादार लोग इसे समझ नहीं पाते, प्यार का अर्थ जानने वाले ही समझते हैं।

डॉ योगेश प्रवीन याद करते हैं वह लम्‍हा, जब “उमराव जान” के बाद फ़ारुख शैख का लखनऊ आना हुआ था। ज़हरे इश्क के जमाने के ज़माने में सन् 1993 में। यहां बताना जरूरी है कि “ज़हरे इश्क ” की दास्तान लखनऊ की अपनी एक अलग पहचान है! ये मसनवी उर्दू में लिखा गया प्रेम कथानक जो एक ही बहर (मीटर) में लिखा हुआ हो शहरे लखनऊ की अनमोल देन है!

इसे नवाजगंज (ठाकुरगंज) के निवासी नवाब मिर्जा शौक ने एक दर्द भरी प्रेम कहानी के रूप में लिखा था। जिस पर ब्रिटिश सरकार ने बैन (पाबन्दी ) लगा दिया था। क्योंकि तमाम नौज़वान लड़के लड़किया इस जबरदस्त प्रेम कथा से प्रेरित होकर अपनी जान पर खेल जाते थे।

इस फिल्म की शूटिंग सलेमपुर हाउस शीशमहल,कोठी लाला इमामबख्श ,नई बस्ती और मिसरी की बगिया, मे हुई थी। निर्माता, निर्देशक ने मुझे जिम्मेदारी दी और मेरे साथ सहायक के रूप में अशेष कुमार जी इसमे हमारे साथ थे। इसी दौर में फ़ारुख शैख जी हमारे निवास पंचवटी में दो बार आए थे और अपने मृदु व्यवहार से सभी के दिल अज़ीज़ हो गए थे।
देख लो आज हमको जी भरके
कोई आता नही हैं फिर मरके
याद अपनी तुम्हें दिलाते जाएं
पान कल के लिए लगाते जाएं
(ज़हरे इश्क )
और फिर दुबई में जाकर फ़ारुख शैख जी का इन्तकाल हो गया था। लखनऊ उनकी यादें आज भी खुद में समेटे हुए है।

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