एक बाप का “बाबर” बन जाना

दोलत्ती

: बेटी को कोराना हो गया, तो दहल गया बाप : बीमार हुमायूं को बचाने के लिए बाबर ने पलंग के सात चक्‍कर लगाये थे, मैंने घर का चक्‍कर लगा दिया : क्षेपक झूठ के आसमान में उगते हैं, जबकि सच हकीकत की जमीन पर :

कुमार सौवीर

लखनऊ : ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर और उसके बेटे हुमायूं को लेकर मैंने दशकों बरस पहले यह कहानी कहीं पढ़ी या सुनी थी। कहानी के मुताबिक एक बार बाबर का बेटा नसीरुद्दीन हुमायूं गम्‍भीर रूप से बीमार हो गया। हालत इतनी बिगड़ी कि हुमायूं के बचने की उम्‍मीद ही खत्‍म हो गयी थी। जाहिर है कि बेटे के गम में बाबर बुरी तरह टूट गया। कहानी के मुताबिक एक फकीर ने बाबर को सलाह दी कि अगर वह अपने बेटे की जान बचाना चाहता है तो हुमायूं की बीमारी वाली बला अपने सिर पर ले ले। इससे हुमायूं तो बच जाएगा, लेकिन बाबर उसी बीमारी से मौत के आगोश में चला जाएगा।

कहानी के मुताबिक बाबर ने फकीर की सलाह के अनुसार बीमार पड़े हुमायूं के पलंग के सात चक्‍कर लगाये और अल्‍लाह से मन्‍नत मांगी कि हुमायूं बच जाए, भले ही बाबर मर जाए। इसका नतीजा यह निकला कि उसके बाद से ही हुमायूं की हालत सुधरने लगी, लेकिन हिन्‍दुस्‍तान का यह पहला बादशाह जहीरुद्दीन मुहम्‍मद बाबर गम्‍भीर रूप से बीमार होकर बिस्‍तर पर पड़ गया और आखिरकार सन-1530 में उनका निधन हो गया।

मैं चमत्‍कारों पर विश्‍वास नहीं करता, और मानता हूं कि बाबर और हुमायूं का यह किस्‍सा किंवदंती या क्षेपक भर ही है। सच और क्षेपकों में बड़ा फर्क होता है। क्षेपक तो सदैव झूठ के आसमान में उगते हैं, जबकि सच हमेशा हकीकत की जमीन पर। सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍म सच से बड़ा-बड़ा निदान होता है, जबकि क्षेपक वाले टोटकों की भीड़ अक्‍सर झूठ और अतिरंजनाओं का आकार विशालतम बनाती रहती है। हां, कभी-कभी ऐसे क्षेपक सामाजिक तन्‍तुओं में सार्थक तरंगें प्रवाहित कर देते हैं। मसलन, पीपल और बरगद में ब्रह्म-बाबा का डीह होता है, इस निराधार आस्‍था ने वाकई कितने विशालकाय दरख्‍तों को बचाये रखा है। वगैरह-वगैरह।

बाबर की कहानी भी तो ऐसा ही एक क्षेपक है। सच बात तो यह भी है कि बाबर को अपना बाबर-नामा लिखने का जुनून भी था। लेकिन हुमायूं के बीमार पड़ने से एक बरस पहले ही वह बाबर-नामा नहीं लिख रहा था। वजह यह कि बाबर बहुत बीमार होने लगा था। अचानक हुमायूं की बीमारी शुरू हो गयी, तो बादशाहों के दरबारियों ने बाबर की स्‍तुति में यह किस्‍सा गढ़ लिया। लेकिन इस कहानी का इतना असर तो पड़ा ही होगा कि बेटे के प्रति बाप के दिल में प्‍यार का संदेश समाज में गहरा जरूर पड़ा होगा। किसी भी बच्चे को अपने बुजुर्गों के प्रति सम्‍मान, प्रेम और त्‍याग की लहरें जरूर उठी होंगी। सामाजिक तंतुओं ने रिश्‍तों को लगातार प्रगाढ़ किया होगा।

पिछले दिनों मेरी बेटी को लेकर मैं बेहद हलकान, अशांत और दुख के सागर में हिचकोले लेता रहा। यह किस्‍सा एक महीना पुराना है। चार नवम्‍बर-20 को मेरी तबियत खराब हो गयी थी। तेज बुखार और कमजोरी। सिम्‍टम्‍स ठीक उतने ही थे, जैसे हर बरस सर्दियों की शुरुआत में मैं हमेशा कम से कम एक हफ्ता झेलता ही रहता हूं। ऐसे में कोरोना जैसा कोई मामला नहीं था।
उधर दिल्‍ली में रहने वाली मेरी छोटी बेटी साशा सौवीर 12 दीपावली पर घर आयी। साथ में दामाद सौमित्र शंकर भी। साशा तो उसी दिन अपनी सास से मिलने ससुराल गयीं, और शाम को अपनी बड़ी बहन बकुल सौवीर और बहनोई प्रवीण मिश्र के यहां रुकीं। अगली 13 नवम्‍बर की शाम को साशा मेरे घर आयीं। तय था कि अब तीन दिनों तक साशा मेरे साथ ही रहेंगीं, जबकि सौमित्र अपनी मां के साथ ही रुक गये।

तय हुआ कि देर शाम साशा के साथ हम होटल में खाना खायेंगे। बाप-बेटी निशातगंज के एक रेस्‍टोरेंट पहुंचे। खाने का आर्डर दिया। खाना आ गया, लेकिन साशा ने शिकायत की कि भोजन में उसे बेस्‍वाद महसूस हो रहा है। हमने खाना छोड़ दिया और वापस घर आ गये। रात को साशा बेचैन होने लगी। अगली सुबह साशा ने बताया कि उसे न स्‍वाद मिल रहा है और न ही किसी की गंध महसूस हो रही है। उसे शक लगा कि हो न हो, उसे कोरोना हो गया है। साशा ने एक लैब को फोन करके सैंपल लाने को कह दिया। आधे घंटे में ही सैंपल ले लिया गया और शाम को ही रिपोर्ट आ गयी कि साशा सौवीर कोविड-19 पॉजिटिव हो गयी हैं। शाम बीतते-बीतते सीएमओ के कंट्रोल-रूम में साशा को कोरंटाइन करने को कहा और अगली सुबह दो लोगों की टीम मेरे घर पहुंच गयी। मेरा भी टेस्‍ट हुआ, सैंपल लिया गया। लेकिन जांच में मैं निगेटिव ही पाया गया।

लॉक-डॉउन के दौरान मैंने करीब पचास पुरुषों, स्त्रियों, बच्‍चों और बच्चियों को उनके सुदूर घर तक सुरक्षित पहुंचाया है। कोरोना से मुझे डर नहीं लगता। हां, सतर्कता जरूर रखता हूं। इतना ही नहीं, कोरोना को लेकर जो भय का माहौल समाज में फैला हुआ है, उससे हल्‍का का सशंकित तो रहता ही रहता हूं। लेकिन साशा की इस बीमारी से मैं मनोवैज्ञानिक रूप से विह्वल हो गया।

अकेले दम पर घर में ही सम्‍भालता रहा बीमार बेटी को। उसका खाना, पीना उसकी देखभाल और उसकी दीगर देखभाल करता रहा। मुझसे भी कहा गया था कि मैं अपनी बेटी से दूर ही रहूं। दूर-दूर से ही साशा की मदद की जा सकती थी। एक पिता के लिए यह दूरी एक कड़ी सजा और असह्य था। हालांकि साशा बहुत साहसी है, लेकिन मैं तो परेशान था ही।

अचानक मुझे बाबर की वह कहानी याद आ गयी। मैंने तय किया कि भले ही यह टोटका ही माना जाए, लेकिन मैं ऐसा करूंगा जरूर। लेकिन एक भारी अड़चन तो यह थी कि साशा के कमरे में मैं नहीं जा सकता था। तो मैंने तरकीब खोजी, मैंने तय किया कि मैं पलंग के बजाय अब अपने मकान का ही सात चक्‍कर लगाऊंगा। फिर एक दिक्‍कत पेश आ गयी। मेरा मकान एक कोना रीजनल साइंस सिटी से, जबकि दूसरा कोना एक पड़ोसी के मकान से सटा हुआ है। लेकिन उसका भी निदान खोज लिया मैंने मैंने तय किया कि अपने मकान के एक कोने से लेकर तीसरे कोने तक की परिक्रमा 14 बार कर लूंगा। इस तरह पूरे सात चक्‍कर हो जाएंगे।

17 नवम्‍बर की शाम को मैंने चक्‍कर लगाये, दूकान पर जाकर शराब की एक बोतल खरीद डाली और ऑफिस में बैठ गया। वक्‍त पल-पल और बोतल घूंट-घूंट खत्‍म होने लगी। रात भर प्रतीक्षा करता रहा कि मौत अब गयी, तब आयी। सुबह नींद आने लगी, तो यकीन हो गया कि मेरा दम सुरमई मौत बन कर इसी बहाने जाने लगा है। बमुश्किल दो घंटा ही बीता होगा, कि लगा कि यमराज जी आवाज दे रहे हैं। लेकिन यह क्‍या ? वह तो मेरा एक पड़ोसी दरवज्‍जे की घंटियां बजाने लगा था। काढ़ा के लिए उसे तुलसी और जरंकुश की पत्तियों की जरूरत थी।

बहरहाल, इसके बाद से ही साशा के मुंह का स्‍वाद और गंध वापस आ गयी, जैसा कि डॉक्‍टर ने पहले से ही बता दिया था। उसके बाद साशा 26 तारीख की शाम दिल्‍ली वापस चली गयी। हालांकि हम दोनों को ही इस बात का मलाल रहा कि विदा होते समय हम बाप-बेटी एक-दूसरे के गले नहीं लग सके।

5 thoughts on “एक बाप का “बाबर” बन जाना

    1. अंदर तक कचोटने वाली अभिव्यक्ति🙏🙏

  1. बेटी को आशीर्वाद ।एक बाप का अनकहा दर्द जो बेटी की बीमारी में महसूस किया आपने और उबरने के बाद बहुत अच्छी तरह से कलम से लिखा ।

  2. गुरूवर।सादर साष्टांग दंडवत् प्रणाम –मै ने 45दिन का सपरिवार बेकोरोना दंश झेला
    –कोरोना आक्रमण का भारत मे शुरूआती दिन थे-सारे प्रायोगिक तंज मंज संज लागू ऊपर से एसएचओ की माईक लगी गाड़ी जो घर के बाहर कुशलक्षेम की आवाज लगाती–ये शुक्र था कि होम क्वारंटीन का सुविधा चक्र दिया था जो उस समय किसी को नसीब सपने मे भी न था –तब तो संपर्की भी कोविड सेन्टर पर निगरानी मे एक माह रखे गये थे –14दिन इंजार के बाद कोविड टेस्ट सपरिवार हुए नेगेटिव रहे–@बस दिमाग मे यमराज छाये थे–@मूंह पर मास्क चौबीस घंटे अकेले अपनी खड़ी खटिया कमरे मे रखे रहे —
    मुख्य कोरोना संपर्की हम तमामविरोध के बाद बने –@डाक्टरसाढू को बचाना था लेकिन बचा न सके –@ईलाज का अभाव सस्पेक्ट झेला –@कोई अस्पताल लेने को तैयार न था –@वेन्टिलेटर ऐबुलेंस के बुलंदशहर से दिल्ली का पेमेंट पैतीस हजार रहा जो नोऐडा से आयी थी
    –उस रात नोएडा के जेपी यथार्थ मना कर दिये हम जंगल मे ऐबुलेंस लिये दौड़ रहे थे –@सफदरजंग मे जगह मिली –वो भी आक्सीजन सपोर्ट था–@वेन्टीलेटर दस घंटे बाद मिला –सारी कशमकश के बाद साढू न रहे
    @जिनकी कोविड रिपोर्ट मौत के बाद तीसरे
    दिन आयी जो की पाजिटिव थी –@डेड बाडी
    भी न मिली –डाक्टर के पत्नी व बेटे संफदरजंग मे तीन दिन कैसे बिताये दर्द समझ सकते है –ऐसे मे उनकी सेपल ली गयी रिपोर्ट मे वे दोनो भी पाजिटिव पाये गये –@ये परिवार का दर्द बया नही कर सकते एलएनजेपी मे दोनो काईलाज चला –डिस्चार्ज के बाद साढ़ेतीन हजार मे स्वयं ऐबुलेंस करके यूपी बार्डर पर आती है जिसे यूपी सरकार रिसीव करके फिर इनको अस्थिकलश के साथ क्वारंटीन बुलंदशहर मे पंद्रह दिन के लिये फिर करती है –@ढेर शिकायतो के बीच जैसे तैसे अठारह दिन बाद
    निजात दी जाती है –ईश्वर ऐसे दिन दुशमन को न दिखाये –@साक्षात् यमराज के साथ वो
    दिन और वो राते –@हे ईश्वर दुशमन को भी न दिखाये ऐसे दिन–@जब से अब तक कोरोना
    से बचाव के तरीको से हम मुस्तैद रहे –@यही वजह रही कि—–हम संक्रमण से बचे —@लेकिन शंका लघुशंका दीर्घशंका सब जारी थी –@मतलब फट कर गले मे थी

  3. सादर प्रणाम
    दिल को छू गई आपकी ये सच्ची वाली कहानी।

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