हार कर भी जीत गयी विनम्र और विदुषी वाचकन्वी गार्गी

मेरा कोना

विदुषी वाचकन्‍वी के इतिहास को लेकर भारतीय साहित्‍य दरिद्र
जीत कर भी हारे याज्ञवल्‍क्‍य और हार कर भी अमर हो गयी गार्गी
अपमान को सहा, लेकिन गार्गी ने याज्ञवल्‍क्‍य को आत्‍मज्ञान करा दिया
पूरी सभा स्‍तब्‍ध। मामला ही ऐसा था। शास्‍त्रार्थ के इतिहास में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी प्रश्‍नकर्ता के साथ ऐसा अपमानजनक व्‍यवहार किया गया हो। तुर्रा यह कि यह घटना उस राजा की सभा में हुई जिसे स्‍वयं भी महान विद्वान माना जाता था। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। परम आत्‍मज्ञानी के तौर प्रतिष्ठित याज्ञवल्‍क्‍य ने झल्‍लाकर आखिर कह ही दिया- ’गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’। यानी गार्गी, इतने सवाल मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा भेजा ही फट जाए।
याज्ञवल्‍क्‍य की इस कटु और अपमानजनक बात शास्‍त्रार्थ के नियमों के सर्वथा प्रतिकूल थी। लेकिन गार्गी ने वह प्रश्‍न छोड दिया। मगर ऐसा भी नहीं कि ज्ञानी होने के पुरूष-दंभ के सामने वह विदुषी परास्‍त हो गयी, बल्कि उसने तो किसी साधुमना महानता का परिचय दिया और पूरे सम्‍मान के साथ उस विषय को टालकर दूसरे विषय पर बात शुरू कर दी। बेहद गूढ विषय पर शुरू हुई इस नयी चर्चा पर अब पूरी विद्वत सभा में जबर्दस्‍त क्षोभ और विषादजनित सन्‍नाटा फैल गया।
अगला प्रश्‍न तो और भी गूढ था। लेकिन गार्गी की विनम्रता के सामने अब वह पुरूष-दंभ नतमस्‍तक था। अपराधबोध और पश्‍चाताप में डूबते जा रहे याज्ञवल्‍क्‍य ने अब स्‍वयं को सचेत कर दिया। वे जानते थे कि उनसे अपराध हो गया, और इसी तत्‍वबोध ने उन्‍हें विजयी बना दिया। लोभ और दंभ समाप्त हुआ तो उन्‍होंने पुरस्‍कार में मिली एक हजार गाय खुद लेने के बजाय प्रजा में ही वितरित करने का फैसला कर लिया। जबकि गार्गी अपनी विनयशीलता के चलते हमेशा-हमेशा के लिए लोगों के दिलोदिमाग में बस गयीं। हालांकि उनके प्रश्‍नों का जवाब आखिरकार याज्ञवल्‍क्‍य ने दे दिया, लेकिन वाचकन्‍वी बन कर गार्गी को वह स्‍थान मिल गया जिसे संवाद या विवाद में कोई हरा न सके।
गार्गी को लेकर इतिहास दरिद्र है। इस तर्क में कोई दम नहीं है कि गार्गी के पिता वचक्‍नु नामक कोई ऋषि थे। ऐसी हालत में यह स्‍वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है कि अपनी वाक्‍पटुता और विनयशीलता-सहनशीलता के चलते ही गार्गी को वाचकन्‍वी कहा गया। इतिहास में ऐसे कई संदर्भ हैं कि पुत्र के चलते पिता को पहचाना गया। ऐसी हालत में अगर अपनी वाक्‍पटुता के चलते उनके पिता को वचक्‍नु कहा जाना लगा हो तो क्‍या संदेह। कम से कम लोग अपनी बेटियों को गार्गी जैसा बनाने में गर्व का अनुभव तो करने ही लगेंगे। गार्गी के बारे में ब्राह्मण और पुराणों में कोई जिक्र नहीं है। लेकिन बृहदारण्‍यक उपनिषद में गार्गी-याज्ञवल्‍क्‍य शास्‍त्रार्थ का जिक्र है। जैसे वैदिक साहित्य पर सूर्या सावित्री प्रकाशमान हैं उसी तरह उपनिषद साहित्य पर गार्गी बेजोड हैं। गार्गी इस देश में तब थीं जब वैदिक मंत्र रचना के अवसान के बाद चारों ओर ब्रह्मज्ञान पर वाद-विवाद और बहसें हो रही थीं और याज्ञवल्क्य समाज को अद्भुत नेतृत्व प्रदान कर रहे थे। युधिष्ठिर के दौर में जनक मिथिला के राजा हुए। इस आधार पर गार्गी को महाभारत युध्द के करीब पचास-साठ वर्ष बाद का माना जा सकता है। यानी आज से करीब पांच हजार साल पहले। कहां की थीं गार्गी?  कुछ पता नहीं। याज्ञवक्ल्य पुराणों व महाभारत में खूब हैं, पर गार्गी नहीं। याज्ञवल्क्य के साथ हुए दो संवादों के अलावा कहीं कोई संदर्भ नहीं। इससे तय है कि गार्गी कुरु-पंचाल के बजाय संभवत: उत्तरी बिहार की थीं जहां से उनके लिए मिथिला की राजसभा में जाना सुगम रहा होगा। तो मैथिल माना जा सकता है गार्गी को। लेकिन इतना तो तय है कि गर्ग गोत्र में उत्‍पन्‍न होने के चलते उनका नाम गार्गी पडा होगा।
बृहदारण्यकोपनिषद (3.6 और 3.8) के अनुसार राजा जनक ने एक हजार गायों की शर्त पर शास्‍त्रार्थ रखा। सभी विद्वान खामोश कि अचानक याज्ञवल्‍क्‍य ने अपने शिष्‍यों से कहा कि- चलो सभी गायों को हांक ले चलो। यह सुनते ही गार्गी ने उन्‍हें चुनौती देते हुए पूछा- हे ऋषिवर! जल में हर पदार्थ घुलमिल जाता है तो जल किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवक्ल्य ने जवाब दिया कि वायु में। फिर गार्गी ने पूछा कि वायु किसमें मिलती है तो याज्ञवल्क्य का उत्तर था कि अंतरिक्ष लोक में। पर अदम्‍य गार्गी भला कहां रुकती।  वह याज्ञवल्क्य के हर उत्तर को प्रश्न में तब्दील करती गई और इस तरह गंधर्व लोक, आदित्य लोक, चन्द्रलोक, नक्षत्र लोक, देवलोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक और ब्रह्म लोक तक जा पहुंची। लेकिन जब गार्गी ने दसवें सवाल में ब्रह्मलोक की स्थिति पूछी तो याज्ञवल्‍क्‍य भडक उठे और गार्गी को लगभग डांटते हुए कहा-’गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’। यानी गार्गी, इतने सवाल मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा भेजा ही फट जाए।
दिक् और काल। दरअसल, गार्गी का सवाल सृष्टि के रहस्य पर था। अगर याज्ञवल्क्य उसे ठीक तरह से समझा देते तो हालत यह न होती। पर गार्गी तो निपुण वक्ता और विदुषी थी जिसे पता था कि कब बोलना और कब चुप होना है, इसीलिए याज्ञवल्क्य से मिला अपमान वह सह गयी, लेकिन हार नहीं मानी और दूसरा सवाल उठा दिया जिसे आज टाइम और स्‍पेस का विषय कहा जाता है। ” स्वर्गलोक से ऊपर जो कुछ भी है और पृथ्वी से नीचे जो कुछ भी है और इन दोनों के मध्य जो कुछ भी है; और जो हो चुका है और जो अभी होना है, ये दोनों किसमें ओतप्रोत हैं?”
उसकी जिज्ञासा थी कि क्‍या स्पेस और टाइम के बाहर भी कुछ है? नहीं है, इसलिए गार्गी ने बाण की तरह पैने इन दो सवालों के जरिए यह पूछ लिया कि सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है? याज्ञवल्क्य बोले, ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी।’ यानी कोई अक्षर, अविनाशी तत्व है जिसके प्रशासन में, अनुशासन में सभी कुछ ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछा कि यह सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है तो याज्ञवल्क्य का उत्तर था- अक्षरतत्व के। इस बार याज्ञवल्क्य ने अक्षरतत्व के बारे में विस्तार से समझाया। वे अन्तत: बोले, गार्गी इस अक्षर तत्व को जाने बिना यज्ञ और तप सब बेकार है। अगर कोई इस रहस्य को जाने बिना मर जाए तो समझो कि वह कृपण है जिसने अपने जीवन का सार समझा ही नहीं और जो अंधेरे में आया और अंधेरे में ही चला गया। सूर्य और ज्‍योति के लोक को जाना ही नहीं और ब्राह्मण वही है जो इस रहस्य को जानकर ही इस लोक से विदा होता है। सत्‍यम ऋतम् ज्‍योति।
गार्गी इस जवाब से इतनी प्रभावित हुई कि उसने याज्ञवल्क्य को प्रणाम किया और सभा से विदा ली। याज्ञवल्क्य विजेता थे- गायों का धन अब उनका था। लेकिन गार्गी के प्रति अपने बर्ताव के चलते याज्ञवल्क्य अंदर तक हिल गये और राजा जनक से कहा: “राजन! अब इस धन से मेरा मोह नष्ट हो गया है। विनती है कि धन ब्रह्म का है और ब्रह्म के उपयोग में प्रयुक्‍त हो।” यानी याज्ञवल्‍क्‍य जीत कर भी हार गये और विशिष्टतम दार्शनिक और युगप्रवर्तक गार्गी हार कर भी जीती और अमर हो गयी।

लेखक कुमार सौवीर जाने-माने पत्रकार हैं. इन दिनों महुआ न्यूज में यूपी ब्यूरो चीफ के रूप में कार्यरत हैं. उनका यह लेख जनसंदेश टाइम्‍स में प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लिया गया है.

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