चिड़िया नवरात्र नहीं मनातीं। वे समझदार होती हैं

दोलत्ती

: वे घूंघट या बुरका नहीं पहनतीं, छोटी सी छत पर तेजी से ठुमुक-ठुमुक कर अठखेलियां करती रहती हैं : उन्‍हें अल्‍ट्रा-साउंड सेंटर जाकर भ्रूण-लिंग परीक्षण कराने की जरूरत ही नहीं पड़ती : अपनी शोखियों को वे आंखों से ज्यादा, अपनी चोंच से प्रकट करती रहती हैं : उनका हर कदम नया खेल और नई जिज्ञासा से परिपूर्ण :

कुमार सौवीर

लखनऊ : चिडि़यां बड़ी मासूम होती हैं, समझदार और सतर्क भी। औरतों के मुकाबले उनकी छठी इंद्री हमेशा सातवें, आठवें या बीसियों दर्जे तक जागृत रहती हैं। उनके अपने उत्सव होते हैं, जो वे जोश-उल्लास के साथ मनाती हैं। यह उल्लास कभी भी मनाए जा सकते हैं। उसके लिए साइत-पतरा की जरूरत नहीं पड़ती।

हां, वे मासूम जरूर होती है।

वे बहुत दूर तक नहीं उड़ती हैं, लेकिन कूद-कूद कर दाना चुगने के बहाने बहुत देर तक खेला करती हैं। छोटी सी छत पर भी वे बहुत तेजी से ठुमुक-ठुमुक करते हुए नन्हे पैरों से दौड़ती हैं। उनका हर कदम नया खेल और नई जिज्ञासा से परिपूर्ण होता है। अपनी शोखियों को वे आंखों से ज्यादा, अपनी चोंच से प्रकट करती रहती हैं।

चिड़ियां बहुत मासूम होती हैं न।
उनकी हर फुदक और उनका हर कदम हर बार नया उल्लास, नया खेल और नई जिज्ञासा से सना होता है। चाहे वे आपस में लड़ रही हों, या फिर छोटे से गड्ढे में बुड़कियाँ लगा कर खुद को फुर-फुरा कर आसपास की जमीन को भींग कर सोंधी महक फैला रही हों। अपनी शोखियों को वे आंखों से ज्यादा, अपनी चोंच से प्रकट करती रहती हैं। अक्सर तो वे किसी पुरानी राजनीतिक संसद भवन में बैठे गंभीर राजनीतिज्ञों की तरह किसी गंभीर विषय पर गहन चर्चा करती दिखयी हैं, तो कभी किसी मुंडेर पर विपक्ष की तरह सत्ता-पक्ष की अराजकता के विरुद्ध अपना व्यक्त करते दिखाई पड़ती हैं।

चिड़ियां बहुत मासूम होती हैं न।
दरअसल, वे सब की सब चिड़िया ही होती हैं। चिड़िया और चिड़ा जैसा विभेद उनमें नहीं होता। उन के समाज में अल्ट्रासाउंड मशीन की कोई जरूरत नहीं होती। भ्रूण-लिंग परीक्षण की जरूरत न उन्हें होती है, और न ही उसे पढ़ पाने की जरूरत। हां, ऐसे अल्ट्रासाउंड सेंटरों से फेंके गए गोश्त देख कर वे बेतरह डर कर भाग जरूर जाती हैं।
चिड़ियां बहुत मासूम होती हैं।

उनके अपने उत्सव होते हैं, जो वे जोश-उल्लास के साथ मनाती हैं। यह उल्लास कभी भी मनाए जा सकते हैं। उसके लिए साइत-पतरा की जरूरत नहीं पड़ती।

शायद, वे नवरात्र जैसे नौ दिन लंबे उत्सवों का सच जानती हैं। वे जानती हैं कि धर्म के ऐसे अनुयायी ही अपने गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण कराने जाते हैं। वे जानती हैं कि वे जिसको देवी का सम्मान देते हैं, उनको हर दिन पुरुषों के अहंकार का शिकार बनना ही होता है। पूजा-अनुष्ठान शुरू, सम्मान और जयजयकार शुरू। वेदी पर नैवेद्य अर्पित होना शुरू। भण्डार सामने, लेकिन उसे चखने की अनुमति कभी भी देवी को नहीं दी जाती है। अनुष्ठान खत्म होते ही देवी का सम्मान भी खत्म।

वे जानती हैं कि चिड़िया के मुकाबले किसी स्त्री का देवी बनना कितना भयानक और असह्य मनो-पीड़ाजनक, शारीरिक रूप से दर्दनाक और युग-युगों का दंश देता रहता है।

इसीलिए वे देवी नहीं बनना चाहतीं। सिर्फ चिड़िया ही बनी रहना पसंद करती हैं।
इसीलिए वे नवरात्र से दूर रहना ही पसंद करती हैं।पंडाल का दुख और पेड़ की डाल का सुख वे खूब जानती हैं।
सच कहूं, तो कई मामलों में चिड़िया वाकई बहुत मासूम होती हैं।

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