दुख के छह पायदान। आप किस पायदान पर ?

दोलत्ती बिटिया खबर

: 14 दिन बीत गये, समझ में आ गया कि दुख क्‍या है : लीवर की बीमारी ने मुझे पत्रकार से बीमार बना डाला। वैसे भी पत्रकारिता में नौकरी न मिलने वालों की हालत कूकुर से ज्‍यादा नहीं होती है। लेकिन 41 बरस में सिर्फ 16 वर्ष का वक्‍त जिस पूरी जी-दारी, तालठोंक, बेफिक्री, ईमानदारी, जिन्‍दादिली और समझौतों व धमकियों को झाड़ कर अपनी शर्तों पर जिन्‍दा : बहुत लोग मुझसे निराशा, गुस्‍सा, हताशा, असफलता। पर मेरी बेटियों और मेरे निजी मित्रों को मुझ पर गर्व है।

कुमार सौवीर

लखनऊ : अधिकांश लोग दुख को विपदा मानते हैं। कुछ लोग दुख को कष्‍ट मानते हैं। कुछ लोग दुख को दैव-वज्र-पात मानते हैं। कुछ लोग दुख होते ही चिल्‍ल-पों करना शुरू कर देते हैं, कुछ के हिसाब से दुख क्षण-भंगुर होता है और बीती बात बिसार दे, आगे की सुधि ले की डगर से उसका सामना, रणनीति बनाना और उसको भोगना चाहिए। कोई अपने आत्‍मीय जाने वाले लोगों के पास दौड़ लगाना शरू कर देते हैं।

लेकिन हैरत की बात है कि कुछ लोगों का मानना होता है कि जीवन में दुख यूं ही नहीं आता। वह विधाता का कोप होता है, जिसके चलते ऐसे दुख से ही सर्वनाश की आशंकाएं बढ़ती हैं। ऐसी भावनाओं को मानने वाले लोग ऐसी आपदाओं का समूल नाश, लेकिन ऐसी घटनाओं को भविष्‍य में न होने की सम्‍भावनाओं को रोक दिया जाए। प्राचीन काल से ही किसी भी समुदाय या गांव का विद्वत-समाज उस पर शुरू से ही विचार-मंथन करता रहा है। समुदाय के लोग अपने एक ज्ञानी लेकिन पारखी पुरुष को अपना ओझा मुखिया मान कर उसे ऐसी घटनाओं को बिचार कर उसका सटीक समाधान खोजा करते थे। आपने बहुत पहले एक ग्रामीण कहावत सुनी होगी कि :-

लाल बुझक्‍कड बूझि लिहैं, बुझैं न कोई और
गोड़ै में चकिया बांधि के हिरन कुदक्‍कड़ होय।

पहले यह काम करने वाले लोग ओझा-सोखा मानते जाते थे। लेकिन कालांतर में अपने ही समाज को अंधविश्‍वास की आग में झुलसाने लगे। उन्‍होंने चरित्र बदला, तो जनता ने उनका नाम बदल डाला। अब कुछ-कुछ इलाकों में ऐसे लोगों को काना उस्‍ताद भी माना जाता था। शायद इसीलिए आल्‍हा-ऊदल के माहिल मामा दुर्योधन के शकुनि मामा से लेकर मध्‍यप्रदेश के ताजा मुख्‍यमंत्री को भी मामा उस्‍ताद, ओझा-सोखा काणा-तिन-तिन तिल का बादशाह जैसा नाम रख दिया जाता है।
यही धंधा बाद में तिलकधारी प्रकांड-ब्राह्मण माने वालों ने थाम लिया। उसमें समाज के प्रति समर्पित अपनी सोच जो इस तरह की आपदा, कारण से होती है, उनका निदान करने के बजाय वह महान दायित्‍व की रणनीति को पूरा करने की क्षमता रखने वाले वणिक-वर्ग यानी धनिक-बनिया लोगों से सहयोग मांगा। सहयोग मिला तो वह ब्राह्मण के भांडार तक पहुंच गया। ब्राह्मण ने पुर्र-पुर्र मंत्रोच्‍चार किया। दुख को अपने आप जाना ही था, सो वह चला गया। बाकी जनता बाद में धीरे-धीरे भूलने लगी।
लेकिन समाज का एक हिस्‍सा ऐसे दुख या करुणा के बाद आकलन करना शुरू कर देता है कि उसके अपने घर-कुटम्‍ब के लिए जमा-पूंजी कितनी होगी। उसकी किसी भी गतिविधि में अव्‍यक्‍त भय, अशांत, असुरक्षित और केवल-केवल अपने कु‍टुम्‍ब तक ही सिमटना साफ दिखने लगा है। सामाजिक रिश्‍तों में स्‍वार्थी एटीट्यूट उस के चेहरे पर साफ दिखने लगता है।
मगर इस आपाधापी में एक समूह भी होता है जो निहायत छोटा ही बना रहता हो, लेकिन आपस में सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक, धार्मिक, जातीय अथवा राजनीतिक आग्रहों-दुराग्रहों से कोसों दूर रहता है। कई बार प्रदर्शत: परस्‍पर विरोधी दिखायी पड़ने के बावजूद मधु-मक्‍खी समूह में रहने वालों की बाकी सहोदर मधु-मक्खियों की परस्‍पर स्‍नेह, समर्पण एक-दूसरे के साथ विश्‍वास और सहकार बरतते है।
14 दिन बीत गये परीक्षा देते हुए। लीवर ने मुझे पत्रकार से बीमार बना डाला। वैसे भी पत्रकारिता में नौकरी न मिलने वालों की हालत कूकुर से ज्‍यादा नहीं होती है। लेकिन 41 बरस में सिर्फ 16 वर्ष का वक्‍त जिस पूरी जी-दारी, तालठोंक, बेफिक्री, ईमानदारी, जिन्‍दादिली और समझौतों व धमकियों को झाड़ कर अपनी शर्तों पर जीता रहा हूं, उससे बहुतों को निराशा, गुस्‍सा, हताशा और असफलता के तौर पर मुझे खारिज किया होगा, लेकिन मेरी बेटियों और मेरे निजी मित्रों को आज भी मुझ पर गर्व है और शायद रहेगा भी। उन्‍होंने दूसरों की व्‍यवहार के बजाय मुझे से ही मुझे झाड़ा, फटकारा, झुंझलाहट भी पैदा की। अक्‍सर तो बेहिसाब। आत्‍मघात की स्‍तर तक भी। लेकिन मेरे हर फैसले को अंतत: स्‍वीकार किया, तालियां बजायीं और मेरी हौसला-आफजाई ही की।

मैंने आज अपने ऐसे बेमिसाल दोस्‍तों के नाम का खुलासा कर डाला, तो यकीन मानियेगा कि लोग जल-फुंक कर कोयला बन जाएंगे।

तबियत अभी भी खराब है। डालीगंज के केके हॉस्पिटल में भर्ती हूं। अपने एक अभिन्‍न राजनीतिक मित्र मुझसे मिलने आये, तो हॉस्पिटल के डॉ केके सिंह भी मेरे प्राइवेट रूम में आये। लम्‍बी बातचीत की, लेकिन मेरी सेहत को लेकर उनका आश्‍वासन यह है कि वे जल्‍दी ही वे मुझे टनाटन्‍न कर डालेंगे।

4 thoughts on “दुख के छह पायदान। आप किस पायदान पर ?

  1. अबे औघड़, तकिया भी फौलादी💪 बेड के लोहिया राड को गुलगुली मसनद मानिंद एन्जॉय कर रहे हो. 💪💪 कष्टों के मामले में भीष्म पितामह के उत्तराधिकारी, मुझे याद है फटी टांग फ्रैक्चर वाली हालत तुम्हारी, जब दर्द.से चीखने चिल्लाने की जगह तुम गला फाडकर गाना गाते थे.. डाक्टर ने एतराज जताया तो बोले कि दर्द से गा रहा हूँ क्योंकि तुम्हारे अस्पताल में भर्ती मरीजों का ख्याल कर रहा हूँ. यदि मैं चिल्लाने लगा तो यह सारे पेशेंट्स उठकर भाग खडे होंगे. ऐसे दुर्दमनीय को कौन अस्पताल ज्यादा समय तक रख पाएगा. लिवर वहीं डीप फ्रीजर में रखवा दो और भाग आओ..चलो चलते हैं काशी अविनाशी और भैरवनाथ के दरबार में…

  2. अरे…!
    कितनें निष्ठुर हैं आप…!
    हम सभी को आपके समाचार से ही पता लग रहा है कि आप१४ दिनों से बिमार हैं…!
    खैर कोई बात नहीं, माँ भगवती आपको शीघ्र स्वस्थ करें, यही प्रार्थना करते हैं।

  3. सर जी प्रणाम, आप जल्दी स्वस्थ होंगे और फिर अपना काम पूरी मुस्तैदी के साथ करेंगे। कोई भी बीमारी आपके सामने ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाएगी।

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