: परसों टॉयलेट जाते वक्त सिर के बल धड़ाम गिरा। चोट से ज्यादा लानतें मिलीं : सन-11 की शुरूआती में तीन-चार महीनों तक मेरी ब्रेन की हार्ड-ड्राइव ही फार्मेट हो चुकी थी : तब मैं प्यार से मम्मी को झिड़कता था, यही काम मेरे साथ बकुल करती हैं : ऐंटीबायोटिक से टट्टी सख्त और काली है, मानो निष्पादन के पहले 380 नम्बर का रेकमाल चढ़ा देता है : भावावेश में मेरी आंखें बुरी तरह भींग जाती हैं, शायद मैं मम्मी ही बनना चाहता हूं :
कुमार सौवीर
लखनऊ : कोई सन-12 का किस्सा था। मम्मी इंदिरा नगर के सेक्टर-सी के मकान में रहती थीं। मां की उम्र करीब 83 के आसपास गहरे शारीरिक कष्टों के साथ तैरने लगी थी। चलने में दिक्कत होती थी मम्मी को, लेकिन उन्होंने कभी भी पहली मंजिल से उतर कर भूतल के हिस्से पर आसन लगाने का सपना तक नहीं देखा। वजह था, उसमें अधिकारिता का अहसास। मकान मेरा है, तो मेरी छत ही होनी चाहिए। छत से वे अपने साम्राज्य को बेहतर तरीके से महसूस कर सकती थीं, कि मजाल है कि कोई मकान पर कोई नजर भी लगा दे।
जब भी मौका मिलता था, मैं सीधे मम्मी की गोद में घुस जाता था। हल्की नाराजगी के बावजूद वे अपने हाथों से मेरी पीठ को आरपार दबोच लेती थीं। मैं उनकी चिर-परिचित छातियों की खुशबू सूंघा करता था। कस कर। इतना कस कर, कि अक्सर सांस लेने में भी दिक्कत होने लगती। लेकिन शारीरिक कष्ट में दैवीय सुख हमेशा हिमालयीय भारी वजनी साबित होते थे।
इसीबीच मुझे भारी ब्रेन-स्ट्रोक पड़ा। न जाने कितने दिन, हफ्ते, महीने अस्पताल में पड़ा रहा। कुछ याद ही नहीं। बताते हैं कि शुरूआती तीन-चार महीनों तक मेरी ब्रेन की हार्ड-ड्राइव ही फार्मेट हो चुकी थी। शुरूआत में आवाज ही नहीं निलती। बाद में पानी को सड़क और जहाज को नाला बोलने लगा। बेटियां बेहाल थीं। ऐसा तो उन्होंने कभी सोचा तक नहीं रहा होगा।
कुछ ठीक हुआ तो अकेली मां के पास रहने चला गया। फिर बेटियां दिल्ली गयीं, तो मैं फिर एमआईजी-अलीगंज में डेरा डाल गया। घर में सिर्फ मैं और मम्मी। सुबह टोस्ट-मक्खन, दोपहर को एक रोटी, दो सब्जी, चटनी, खीरा या लौकी का छौंका हुआ रायता, मौसमी सलाद, और मट्ठा। जो बचा, मेरे हिस्से में।
लेकिन मम्मी झुंझलाती बहुत थीं। प्यार-लाड़ से मैं भी उनसे खूब लड़ पड़ता था। इसमें लड़ाई नहीं, परस्पर प्रेम का प्रवाह था। लेकिन क्लेष कोई नहीं।
आज मम्मी नहीं हैं। उनकी जगह मैं हूं। पिछले कई महीनों से बीमार चल रहा था। लीवर ने ऐसा धोबीपाटा दिया है कि चारोखाने चित्त। सारी शरीरिक क्षमता दो-कौड़ी की हो गयी। जिन पर भरोसा था, वे तिल्ली-तिल्ली भों की तरह ठेंगा दिखाने लगे। पीठ-पीछे मेरी खिल्ली उड़ाने वाले लोग सबसे कहते हैं कि और ठांस कर पियो दारू और मुर्गा। और जब फट कर हाथ में आ गयी, तो खैरात बांटने लगा है हरामखोर कुमार सौवीर।
कुछ भी हो, लेकिन करीब 25-30 दिनों में तो अच्छा-खासा पत्रकार लपड़झन्ना बन गया। आवाज तो अब अपनी ही नहीं ठीक से सुन पाता हूं। बात करने में नानी मरती है। तनिक भी चलता हूं तो कांखने की आवाज आती है। एक बार टॉयलेट जाना था, तो अरअराकर सिर के बल जा धड़ाम गिर गया। बीस बात सुननी पड़ी कि फोन कर देते, आवाज लगा दे। वगैरह-वगैरह। मैं रो पड़ा। फफक कर। इसलिए कि बच्चों की कोई बात मुझे नोंच गयी। बल्कि उसी बहाने मैंने अपनी अतीत को भी टटोला कि कहीं मैंने भी तो मम्मी के साथ कोई अराजकता, अभद्रता, उपेक्षा या आपराधिक कृत्य तो नहीं कर डाला।
बहरहाल, सुबह से लेकर तीन टाइम तक दवाएं बेहिसाब खानी पड़ती होती हैं, कि टट्टी सख्त और काली हो गयी। लगता है कि निष्पादन के पहले 380 नम्बर का रेकमाल चढ़ा देता हो कोई। हालांकि थोड़ा-बहुत लिखत-पढ़त तो करता ही रहता हूं, लेकिन हमारा च्यवनप्राश को ऐसा वहम हो गया है कि नाना हरामखोर हो गये हैं और ऐसे हरामखोर से बातचीत करना तो दूर, उनकी ओर नजर तक डालना पाप होगा। हालांकि आज मैंने उसके साथ खिड़कियों की देर तक सफाई की, तो उसको यकीन आ गया कि बुड्डा चाहे कैसा हो, आज भी दम है पट्ठे में। करीब 67 पप्पी रसीद की उस दौरान उसने।
बहरहाल, तो मम्मी को खिलाते समय मैं झींकता था, अब वह दायित्व बकुल ने सम्भाल लिया है।
जब भी वह तनिक भी मुझ पर झुंझलाती है, तो भावावेश में मेरी आंखें बुरी तरह भींग जाती हैं। कोशिश करता हूं कि फौरन बाथरूम जाकर फफक कर रो लूं। बूढ़ा होना अनिवार्य है। मम्मी ज्यादा हुई थीं, जबकि मैं बहादुर बूढा हूं।
इसके बावजूद सच बात यही है कि शायद मैं मम्मी ही बनना चाहता हूं।
(अलीगंज के मकान में नकटौरा गाते हुए मम्मी और मेरी मुंहबोली ही नहीं, असली बिटिया रजनी)