काश ! दुनिया में फखरे जैसे हिजड़ों की सरकार बने

दोलत्ती

: गजब शख्सियत थी लखनवी फखरे चच्‍चा की : लोगों डरते थे कि उनके बच्‍चों को हिजड़ा न बना दे फखरे : हम जिज्ञासु थे कि हिजड़ों की दबी-छिपी हरकतें क्‍या होती हैं : 
कुमार सौवीर
लखनऊ : फखरे चच्‍चा, यानी फखरे आलम पूरी दुनिया का ठेका लिये रहते थे, हालांकि उनकी दुनिया कोई खास बड़ी नहीं थी। लेकिन उनकी दुनिया जितनी भी थी, बेमिसाल ही थी। हिजड़ों की दुनिया। इंसानों से लाख बेहतर थी फखरे आलम के हिजड़ों की दुनिया।
दरअसल फखरे चच्‍चा का असली नाम था फखरे आलम। हुसैनगंज के बीच वाले चौराहे से एक रास्‍ता है हजरतगंज और चारबाग की राह पर, जबकि दूसरा रास्‍ता है हुसैनगंज थाना से मीना बेकरी वाली राह पर। तो हुसैनगंज थाना वाली सड़क का ही नाम था जयनारायण रोड। उसी रोड पर रोब मेकर्स और निगम बुक स्‍टोर के थोड़़ा़ सा आगे बढ़ कर ही शीतल हलवाई की दूकान थी, जो देर रात तक चलती रहती थी। खास कर दूध, रबड़ी और मलाई आदि मिठाइयों के लिए। बैठकबाजी भी खूब होती थी वहां।
तो उसी दूकान के ठीक सामने से एक गली और हुआ करती थी, जो सीधे चुटकी भंडार या बमपुलिस की ओर जाती थी। बस-बस, उसी के बीचोंबीच की दूरी पर दाहिने वाले मोड़ पर फखरे चच्‍चा की दूकान-नुमा मकान था। एक बड़ा आहाता जैसा मकान और उसमें एक भुरकी भर की दूकान। आप उसे गुमटी कह सकते हैं।
छोटी दाढ़ी, तहमद और कुर्ता या कमीज जैसा कपड़ा अपने ऊपर लादे रखते थे फखरे चच्‍चा। अपने आसपास के चेलों की तरह। दूकान ज्‍यादा नहीं चलती थी। दूकान में उस वक्‍त के हिसाब से कहें तो अधिकतम सौ या डेढ़ सौ रूपयों भर का ही सामान हुआ करता था। जिसमें लेमनचूस और पतंग, चरखी, सद्दी, चारमीनार सिगरेट, बीड़ी और डली-तमाखू के साथ चूना वगैरह-वगैरह सामान।

अक्‍सर तो चच्‍चा दिन भर खाली बैठे खुद पर पंखा डाला करते थे। ग्राहक आते ही नहीं थे उनके पास। वजह यह कि मोहल्‍ले वालों ने अपने बच्‍चों को समझा रखा था कि फखरे आलम से रिश्‍ता मत रखा करो। क्‍योंकि फखरे आलम इंसान नहीं, हिजड़ा है। और हिजड़ा से कोई रिश्‍ता रखने का कोई मतलब ही नहीं। सिवाय बदनामी के। लोगों को डर रहता होगा कि फकरे कहीं उनके बच्‍चों को ही हिजड़ा न बना डाले।
ऐसा हरगिज नहीं रहा होगा कि चच्‍चा को अपने प्रति मोहल्‍ले में होने वाली चर्चाओं का तनिक भी अहसास न रहा हो। लेकिन फखरे आलम चच्‍चा अलमस्‍त थे। हम लोग जब उनकी दूकान पर कम्‍पट-लेमनचूस लेने जाते, तो फकरे चच्‍चा बहुत आत्‍मीयता से बात करते थे। बल्कि जिन पैसों के पास नहीं होता था, उसको भी मायूस नहीं करते थे फकरे चच्‍चा। गर्मियों में वे अपना कुर्ता उठा लेते थे, तो उनकी घड़ा जैसी तोंद बाहर निकल जाती थी। अधलेटे फखरे चच्‍चा अपनी तोंद पर खुद के बुने पंखा से हवा करते थे। बड़े लोग अगर पहुंचे तो फखरे चच्‍चा लपक कर बैठ जाते थे और अपने कपड़े वगैरह सम्‍भाल लेते थे, ताकि वे भी शरीफ दिखने लगें। लेकिन हम जैसे बच्‍चा ग्राहक के आने पर भी वे जहमत नहीं उठाते थे। इशारे से या फिर हल्‍की आवाज से हमसे कह देते थे कि उस मर्तबान से गिन कर ले लो।
अक्‍सर ही फखरे आलम चच्‍चा के घर में हिजड़ों का जमावड़ा होता था। फखरे चच्‍चा जब दूकान पर रहते और उस दौरान अगर कोई हिजड़ा उनके पास आता, तो वह पूरे सम्‍मान के साथ ही चच्‍चा का पैर छूकर उनकी चरण-रज अपने सिर पर लेता था। जाति-पांत से फखरे आलम का सिर्फ इतना ही नाता था, कि वे मुसलमान थे। वरना पता ही नहीं चल पाता था कि वे किस धर्म से हैं। दुआएं तो उनकी झोली से इस तरह बरसती थी, जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो।
हम लोग कुछ उन शैतान थे, या जिज्ञासु कहिये, जो हमेशा इसी चक्‍कर में रहते थे कि फखरे चच्‍चा के घर में आने वाले हिजड़ों की दबी-छिपी हरकतें क्‍या होती हैं। लेकिन हमारी कोशिशों के बावजूद कभी भी ऐसा कुछ भी असामान्‍य या अराजक अथवा कोई आपत्तिजनक हादसा नहीं दिखा। हालांकि हम और मोहल्‍लेवाले हम लोगों को यही धमकाया करते थे कि अगर तुम लोग फखरे के यहां जाओगे, तो फखरे आलम तुमको हिजड़ा बना देगा। लेकिन सिर्फ मैं ही क्‍यों, मेरे साथ के सारे के सारे लड़के आज भी साबुत हैं। ( क्रमश: )

 

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