बुढ़ऊ कप्‍तान । अब तो पढ़ लो सीआरपीसी की किताब

दोलत्ती

: फिर पिछले 25 बरस की नौकरी में तुमने आखिर क्‍या किया : अफसरों ने सरकार की नाक कटवा दी : यह करतूत सर्वोच्‍च न्‍यायालय की साफ अवमानना : कुकर्मी को भटनी से हटाना भी गहरी उगाही थी :

कुमार सौवीर 

लखनऊ : न सुप्रीम कोर्ट की व्‍यवस्‍था सुनी है, न सीआरपीसी पढ़ पाये हो, न कानून की तमीज है, न मुखबिरों का जाल बुन पाये हो, न पुलिसिंग की तमीज है, सुनवाई का समय है, न समीक्षा की औकात है, न प्रशासन का शऊर है और न ही सहज बुद्धि का स्‍थान। फिर पिछले 25 बरस से तुमने आखिर किया ही क्‍या। सिर्फ सरकार को धोखा और आम आदमी को प्रताड़ना ? सिर्फ और सिर्फ इस ध्‍येय पर ही नौकरी चलाते रखे कि जेब लगातार मोटी होती रहे ? खुद भी मौज लेते रहे और अपने अफसरों को भी मालामाल करते रहे, जबकि अधीनस्‍थों को खुली छूट दे रखी कि वे जितने भी कुकर्म करना चाहें, करते रहें।
यह हालत है देवरिया के पुलिस कप्‍तान की। पिछले एक हफ्ते से देवरिया में जो कुकर्म की गटर-गंगा बहा डाली है पुलिसवालों ने, उसका देख कर कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि देवरिया के पुलिस और प्रशासनिक अफसरों ने सरकार की नाक काट डाली है। अब ताजा नंगा नाच यहां के कप्‍तान की ओर से किया गया है कि एक महिला को थाना में कुकर्म करने वाले कोतवाल को पुलिस ने आनन-फानन फरार-भगोड़ा घोषित कर दिया और उसकी गिरफ्तारी के लिए पचीस हजार रुपयों का ईनाम भी घोषित कर दिया है। इतना ही नहीं, बस चंद घंटों के भीतर ही इस पूरी कवायद के तहत कुकर्मी कोतवाल भीष्‍मपाल सिंह यादव को बस्‍ती के हरैया कस्‍बे के पास गिरफ्तार करने का दावा किया गया है। यानी ईनाम भी अब पुलिसवालों की जेब में ही जाएगा।
लेकिन मामले में यहां के पुलिस कप्‍तान ने अपनी सीमाओं और औकात से बाहर जाकर बेहूदा और आपराधिक प्रदर्शन किया। वजह यह कि कोतवाल को जिस तरह गिरफ्तार किया गया, उससे इतना तो तय ही हो गया कि या तो पुलिस अधीक्षक को कानून की तमीज नहीं है, या फिर एसपी चाहते थे कि कैसे भी हो इस मामले में कुकर्मी कोतवाल को रिहा कर दिया जाए। कानून की किताबें साफ-साफ कह रही हैं कि इस गिरफ्तारी में पुलिस ने सारे कानून और अदालती आदेशों को पैरों से कुचल डाला है।
आपको बता दें कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने अपने एक आदेश में अभियुक्‍त की गिरफ्तारी करने या नहीं करने को लेकर बिलकुल साफ व्‍यवस्‍था कर दी है। इस आदेश के मुताबिक सात साल से कम की सजा वाले प्राविधान की धाराओं के मुकदमे में अभियुक्‍त को गिरफ्तार नहीं किये जाने व्‍यवस्‍था की गयी है। लेकिन अगर पुलिस समझती है कि ऐसे मामले में छूट-प्राप्‍त किसी अभियुक्‍त को गिरफ्तार करना कानून-सम्‍मत और अपरिहार्य यानी अनिवार्य है, ऐसी हालत में पुलिस को कुछ तैयारियां जरूरी करनी होंगी। इन तैयारियों का मकसद यह होता है पुलिस वह प्रमाण जुटाये कि उस अभियुक्‍त को गिरफ्तार करना कानून और न्‍याय-सम्‍मत होगा।
इनके तहत पुलिस को पहले देखना होगा कि वह अभियुक्‍त कहीं पुलिस की जांच से बचने या भागने की कोशिश तो नहीं कर रहा है। इसे जांचने के लिए पुलिस को सबसे पहले तो उस अभियुक्‍त को प्राथमिक पूछतांछ के लिए लिखित रूप से बुलावा देना होगा। इस नोटिस के तहत पुलिस आवश्‍यक समय काल तय करेगी, जो सामान्‍य तौर पर 28 घंटों का हो सकेगा, वह भी न्‍यूनतम। इस नोटिस में पुलिस इस बात का साफ जिक्र करेगी कि अभियुक्‍त को किस समय पर और किस स्‍थान पर जांच और पूछताछ के लिए हाजिर होना होगा।
लेकिन अगर इस नोटिस का जवाब नहीं देता है वह अभियुक्‍त, ऐसी हालत में यह पुलिस का दायित्‍व होगा कि वह यह पूरा घटनाक्रम अदालत के सामने प्रस्‍तुत करे। ऐसा हो जाने के बाद अदालत अमुक अभियुक्‍त को फरार या भगोड़ा घोषित कर देगी। उसके बाद ही पुलिस उस अभियुक्‍त को पकड़ने की कवायद छेड़ेगी। लेकिन पुलिस जब यह अभियान में असफल हो जाएगी, तब पुलिस उस को पकड़ने के लिए ईनाम की घोषणा करेगी।
लेकिन इस पूरे मामले में पुलिस कप्‍तान ने कानून, अदालत और सीआरपीसी का खुला अपमान किया। 30 जून की देर शाम करीब नौ बजे इस मामले की एफआईआर पुलिस ने दर्ज की, लेकिन उसके सात घंटे के भीतर ही पुलिस अधीक्षक श्रीपति मिश्र ने सुबह चार बजे एक प्रेस नोट जारी कर दिया कि दागी-कुकर्मी कोतवाल पर 25 हजार रुपयों का ईनाम रख दिया गया है। यानी न कानून की चिंता की गयी, न सर्वोच्‍च न्‍यायालय के प्राविधानों का सम्‍मान दिया गया, और न ही अपने दायित्‍वों का पालन। बस अपनी करतूतों का ठीकरा कुकर्मी कोतवाल के सिर पर फोड़ दिया। इतना ही नहीं, अपनी इस करतूत के तहत पुलिस अधीक्षक ने इतना जरूर पक्‍की व्‍यवस्था कर डाली कि कोतवाल को अदालत फौरन जमानत दे दे। लखनऊ हाईकोर्ट बार एसोसियेशन के पूर्व महामंत्री आरडी शाही बताते हैं कि जिस तरह की प्रक्रिया पुलिस ने अपनायी है, वह अपने आप में सर्वोच्‍च न्‍यायालय की स्‍पष्‍ट अवमानना का मामला बनता है। और अगर इस मामले को सर्वोच्‍च न्‍यायालय के इस प्राविधान के तहत अदालत में प्रस्‍तुत कर दिया जाएगा, तो पुलिस बड़े संकट में फंस सकती है। अधिवक्‍ता रणधीर सिंह सुमन का कहना है कि पुलिस की ऐसी करतूतें अब लगातार बढ़ती ही जा रही हैं।
बताते हैं कि देवरिया का बड़ा दारोगा यानी पुलिस कप्‍तान के लिए कानून-फानून जैसी किताबें दो-कौड़ी की बात है। कानून को अपने हाथों से मसल कर अदालत की तौहीन समझने वाले इस कप्‍तान ने 22 जून के इस हादसे को लगातार छिपाये रखने की कोशिश की। दोलत्‍ती सूत्र बताते हैं कि भटनी कोतवाली में हुए इस हादसे की खबर जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को उसी वक्‍त हो चुकी थी। लेकिन इस पूरे मामले में यह दोनों ही अफसर राख डालने में जुटे थे। 22 जून को ही पुलिस अधीक्षक ने कोतवाल भीष्‍मपाल सिंह यादव को भटनी से हटा लिया था और उसे सलेमपुर कोतवाली की मलाईदार कुर्सी थमा दी थी। बताते हैं कि इस मलाईदार कुर्सी को इस दागी कुकर्मी कोतवाल को देने में खासी मलाई चटवायी गयी थी। लेकिन 26 जून को मामला तूल पकड़ने लगा, तो उसे दबाने के लिए कप्‍तान डॉ श्रीपति मिश्र ने एक चिरकुट-टुच्‍चे मामले में कोतवाल भीष्‍मपाल सिंह यादव को सस्‍पेंड कर दिया, ताकि उसके कुकर्म की आग उसे डीएम, कप्‍तान ही नहीं, बल्कि यह कोतवाल को भी सुरक्षित करा दिया जाए। यानी पूरा मामला ही डायवर्ट कर दिया गया।
लेकिन भवितव्‍यता यानी डेस्टिनी कोतवाल के साथ ही साथ पूरे प्रशासन और पुलिस मुखिया का पीछा कर रही थी। साधन बन गया दोलत्‍ती डॉट कॉम। दोलत्‍ती ने इस मामले पर दोलत्‍ती-दर-दोलत्‍ती मारते हुए खबरों का भूचाल खडा़ कर दिया। नतीजा यह हुआ कि कुकर्मी को बचाने की सारी साजिशें ही बालू की इमारत की तरह ढह गयीं। लेकिन इसके बावजूद चूंकि कप्‍तान काफी कारसाज हैं, इसलिए इस भगोड़ा और ईनाम वाली कवायद का तानाबाना बुन कर आखिरकार इस कुकर्मी कोतवाल को बचाने की हरचंद कोशिशें कर डाली गयीं।
ऐसे अफसरों को कानून की चिंता ही नहीं होती है, हालांकि बाद में इस तरह की करतूतों का भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है, लेकिन देवरिया के एसपी को अपनी पूरी नौकरी में यह सब कानून पढ़ने, सीखने या उसे अपनी पुलिसिंग में शामिल करने की जरूरत कभी समझी ही नहीं। पूरी नौकरी जुगाड़ में निबटा लेने वाले पुलिसवालों से इससे ज्‍यादा की उम्‍मीद भी नहीं होती। वजह यह कि लखनऊ को छोड़कर बाकी जिलों में पुलिस और प्रशासन का नजरिया सिर्फ लखनऊ का औपनिवेशिक क्षेत्र ही होता है। जहां से लोकतंत्र की पुनीत गंग-धारा नहीं, बल्कि डंडा और वसूली का धंधा ही चलता है। यहां डीएम और कप्‍तान केवल सामन्‍त होते हैं सरकार के, लोकसेवक नहीं। वहां कानून ठेंगे पर रखा जाता है। चाहे वह देवरिया हो, बलिया, जौनपुर, बांदा, जालौन, पीलीभीत, बागपत सीतापुर, बाराबंकी, बहराइच और सिद्धार्थनगर हो या फिर बस्‍ती अथवा गोंडा जैसे जिले।

अगर आप इस मामले को विस्‍तार से पढ़ना चाहते हों तो कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-

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