तेरी मां-बहन की &%^$#&^@। क्या यही दिलवालों की दिल्ली है?

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: कनॉट प्लेस में सरेआम बिलखती दीख रही हैं युवतियां : कहीं बाला-हृदयों को कुचल न दें ऐसी आधुनिक संस्कृति : कोई भद्दी गालियां देती घूमती हैं, तो कहीं चुपचाप अकेले में हिचकियों को सम्भालने की जुगत में :

कुमार सौवीर

नई दिल्ली : आइ विल फक यू। कमीने, हरामजादे बास्टर्ड। मदर-फकर, ब्लाडी बास्टर्ड। यू ….यू …यू….

कनॉट प्लेस ही दिल का असली हृदय-स्थल माना जाता है। फैशन और ऐश्वर्य के लिए मुम्बई से कम नहीं होता है दिल्ली् का कनॉट प्लेस। यहां दिल धड़कते हैं। जवान दिल। बेधड़क दिल, बेलौस दिल। चहचहाते हुए। मौज-मस्ती करते हंस और मन-मयूर। वहां की बोली भले ही पंजाबी टोन पर बुनी हुई हो, लेकिन अब तक उसके बारे में यही धारणा मेरे दिल-दिमाग में थी, कि यहां प्रेम, उल्लास, स्नेह वगैरह ही खूब फलता-फूलता रहता है।

लेकिन पिछले दिल्ली प्रवास में मेरा यह भ्रम टूट गया।

हुआ यह कि मैं अपने एक अपनी मित्र मिलना था। फेसबुक मित्र। फेसबुक ने उसे मुझसे मिलाया तो खूब, लेकिन बहुत जल्दी ही हमारे बीच एक अप्रतिम प्रेम–बंधन उगने लगा। अपरिचय से शुरूआत हुई इस दोस्ती की, लेकिन बहुत जल्दी ही कब उस आशु चौधरी उर्फ अर्शी ने मुझे ददुआ कहना शुरू किया और कब मैंने उसे मेरे लाल, मेरी बिटिया, प्यारी, दुलारी कहना-पुकारना शुरू किया, पता ही नहीं चला।

तय हुआ था कि वह मेट्रो के आठ नम्बर गेट से निकलेगी। मैं अपने एक मित्र की गाड़ी मांग कर ले गया था। मेरे साथ हनुमान जी की पूंछ भी लटकी हुई थी। मतलब जनार्दन यादव। हम दोनों ही पसीना-पसीना। कार का ड्राइवर रंजन भी साथ था। लेकिन अचानक गाडि़यों की पार्किंग से एक लड़की के चीखने-चिल्लाने की तेज आवाजें आने लगीं। ज्यादा गौर नहीं करना पड़ा। हम सब समझ गये कि यह लड़की उन गालियों का बेधड़क इस्तेमाल कर रही थी, जिसे आम तौर पर कस्बाई असभ्य लोग इस्‍तेमाल करते हैं। मां-बहन-बेटी की गालियां। बिलकुल नंगी गालियां। बिना किसी औपचारिकता के गालियां दे रही थी वह लड़की। कपड़े भी बिना औपचारिकता वाले ही थे। बिलकुल झीने, केवल वस्र नुमा। पारदर्शी मच्छरदानी की टक्कर देते कपड़े। उम्र रही होगी करीब 22 साल की।

उसके साथ चार युवक भी कार में मौजूद थे, जबकि दो युवक उस लड़की को कभी झंपडि़याने-समझाने की कवायद में जुटे थे। उनकी भी भाषा उस लड़की की बोली-गालियों को सीधे चुनौती-टक्कर देती दे रही थी। करीब 15 मिनटों के बाद वह युवती भद्दी गालियां देते हुए मेट्रो की सीढियां उतारते हुए चली गयी। जबकि उसके साथ के युवक उस जाती लड़की को भद्दी गालियां देते हुए चले गये। इस पूरे दौरान वहां सैकड़ों लोग मौजूद थे, लेकिन किसी भी ने उस पर हस्त़क्षेप करने की जरूरत नहीं समझी।

उसी बीच दूसरी पटरी पर एक लड़की फफक कर रोती दिख रही थी। उसके साथ एक युवक भी था। वह उस लड़की को समझाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उस करीब 20 वर्षीय युवती की रूलाई बंद ही नहीं हो पा रही थी। वह चलते-चलते पार्क की बाउंड्री पर घूम रहे थे। लेकिन आने-जाने वाले लोगों की भीड़ को उस के रूदन पर कोई भी फर्क नहीं पड़ा। अभी यह कर्मकाण्ड खत्मे की ओर ही था, कि अचानक एक युवती एक बाउंड्री पर बैठ कर सिर झुकाये बुरी तरह बिलखती दिखायी पड़ी। बहुत देर तक उसका अपना सिर न उठाना मुझे बहुत बेहाल कर गया। कोई दस-पंद्रह मिनट देखने के बाद मेरा सब्र टूट गया। मैं गया और उसके पास फुसफुसाते हुए मैंने उसे पूछा:- क्या हो गया बेटा। मेरी कोई जरूरत हो तो बताओ।

मेरे सवाल पर उसने अपना सिर उठाया। पाया कि यह कोई 20-22 साल की युवती है। मेरे प्रश्न पर वह अचकचायी नहीं। शायद मेरे शब्दों से उसे सहज-स्वाभाविक मलहम लग चुका होगा। उसने दोनों हथेलियों से अपना आंख और गालों को पोछा, डेढ-दो बार अपनी नाक तेजी से सुकड़ते हुए खुद को संयत किया और फिर बोली:- नहीं सर, मैं ठीक हूं। थैंक यू।

किसी करीब एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद आशु चौधरी उर्फ अर्शी से भेंट हुई।

पाया कि कितना चैतन्य  है यह पश्चिमी उप्र की यह बाला आशु चौधरी। बेहद आत्मींय और सौम्य भी। अपने दायित्वों, अनुभवों, संकल्पों  और व्यवहारों के प्रति बेहद सजग है, सतर्क है। और कहां यह युवतियां, जिन्हें न भाषा का भान है, न रूदन के समय का स्थान और समय का अहसास। वे यह भी नहीं देख पा रही हैं कि हमारे समाज में एक युवती को किस तरह के वस्त्र पहनना चाहिए और किन गालियों को अपने मुखारबिन्द से सरेआम निकालना चाहिए।

मैं बेहद करूणा का अनुभव कर रहा हूं।

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