कुमार सौवीर
चलो माना कि हम आफताब न बन पाये,
ये भी माना, दहकते अंगार भी न हो पाये।
मगर उनकी तपिश को क्या कहिये,
उस साज-ओ-सोज को क्या कहिये।
उनका क्या होगा जो माहताब में जिगर तपाये बैठे हैं,
चीर कर सीने में उगाये बेमिसाल ख्वाब सुखाये बैठे हैं।
ऐसे तलबगारों के गमों में आहें कैसे बसर कर पायेंगीं,
जो चंद लम्हों के इंतजार में सदियां बिखर जाएंगी।
हर इक लम्हा जिन्दा सपनों को करीब लाता है,
मगर मेरे मौला, जुगनू सा सिर्फ दमक पाता है।
मेरी ख्वाहिशों का भी इक जिस्म बना दे मौला,
ख्वाब की लाश नहीं, सपनों को जिन्दगी अता दे मौला।
हम हर-सू तेरा इन्तजार करते हैं मौला
बिखरे किर्च-सा जहां-तहां फैले हैं मौला
हवाएं जब बहुत दूर तलक ले जाएं हमको मौला
न रहें हम, कोई हर्ज नहीं। ये भी फिक्र नहीं मौला
काश ! मेरे ख्वाब किसी और की सांस बन जाएं मौला।
( बहुत दिनों बाद काव्य-ज्वर भड़का है कुमार सौवीर में)