मेरी ख्‍वाहिशों का भी इक जिस्‍म बना दे मौला

कुमार सौवीर चलो माना कि हम आफताब न बन पाये, ये भी माना, दहकते अंगार भी न हो पाये। मगर उनकी तपिश को क्‍या कहिये, उस साज-ओ-सोज को क्‍या कहिये। उनका क्‍या होगा जो माहताब में जिगर तपाये बैठे हैं, चीर कर सीने में उगाये बेमिसाल ख्‍वाब सुखाये बैठे हैं। ऐसे तलबगारों के गमों में […]

आगे पढ़ें