फिर इत्‍ते सूचना सलाहकारों की जरूरत क्या है

बिटिया खबर

 

: गुटबंदी, आर्थिक रिश्तों पर दखलंदाजी या जातिवादी रिश्तों की बुनावट : ऐतिहासिक उपेक्षा हुई पत्रकारों के सम्‍मान को लेकर : एक ओर दलालों की टोली, दूसरी ओर बेहाल पत्रकार : 
कुमार सौवीर
लखनऊ : ( गतांक से आगे की खबर ) जिम्‍मेदारी है पत्रकारों से रिश्‍ता बनाना, रिश्‍ता मजबूत करना और सरकार और मीडिया के बीच एक सद्भाव-सेतु का निर्माण करना। इसके लिए मुख्‍यमंत्री की ओर से सूचना विभाग की टीम तो होती ही है, साथ ही सूचना सलाहकार जैसे कद्दावर लोग भी पिच पर मौजूद होते हैं। लेकिन पिछले लम्‍बे समय से इन में से किसी भी क्षेत्र में न तो यूपी का सूचना विभाग कोई ठोस प्रयास कर पाया है, और न ही मुख्‍यमंत्री द्वारा पत्रकारिता जगत से चुन-खोंट-उखाड़ कर लोकभवना में किसी फोटो-फ्रेम में जड़ाये-सजाए गये पत्रकार। ऐसी नाकारा कार्यशैली का सबसे निकृष्‍ट उदाहरण तो राज्‍य मुख्‍यालय पर मान्‍यताप्राप्‍त पत्रकारों के एक्रीडेशन कार्ड के वितरण को लेकर दिखा। ऐसी हालत में यह सवाल तो वाजिब होने लगे हैं कि तो फिर इतने सूचना सलाहकार की जरूरत क्या है?

अब हालत यह है कि मुख्‍यमंत्री के पास एक नहीं, बल्कि पूरे तीन के तीन सूचना सलाहकार मौजूद हैं। इन सलाहकारों का काम सरकार और पत्रकारों के बीच एक आदर्श सेतु संबंध स्थापित करना है लेकिन अपनी इस नियुक्ति के बाद किसी भी सूचना सलाहकार ने इस दिशा में कोई ठोस काम किया हो, ऐसी एक भी नजीर नहीं दिख रही है। खासतौर पर पत्रकारों की जरूरत, उनके दर्दगम और खुशी को लेकर पत्रकारनुमा सूचना सलाहकार लगातार उदासीन ही बने रहे हैं। पत्रकारों को ऐतराज इस बात की है कि आलीशान दफ्तरों में कुर्सी पर जमे इन सलाहकार लोग क्या काम करते हैं यह अब तक पता नहीं चल पाया। इन पत्रकारों का शिकायतनुमा आरोप है कि ऐसे सलाहकारों की किसी भी गतिविधि का कोई पता ही नहीं चल पाता है, कि वे गुटबंदी करते हैं, आर्थिक रिश्ते बुनते हैं या फिर जातिवादी रिश्ते समेटते हैं। लेकिन ऐसे किसी भी रिश्ते का कोई भी लेना देना सरकार और पत्रकार के बीच कोई मजबूत पुल तैयार नहीं कर पाया है। और हैरत की बात यह है कि पत्रकार बिरादरी ही नहीं, बल्कि सरकार के जिम्मेदार लोग भी इस मामले में बिल्कुल खामोशी अख्तियार किये बैठे हैं।
यह क्‍या तरीका है कि उन्हें केवल तैनाती देकर और कुर्सी थमा कर अपने दायित्व की इतिश्री की गयी है। क्या यह बेहतर नहीं होता कि जो पत्रकार सूचना विभाग के दूसरे तल्ले के एक छोटे से कमरे में धमा-चौकड़ी और आपाधापी मचा रहे हैं उन्‍हें पूरे सम्मान के साथ यह तीनों सूचना सलाहकार अपने आलीशान दफ्तरों में बुलाते और उन्हें चाय पानी के साथ ही साथ उन्हें मान्यता कार्ड सम्मान दे सौंप देते। इसी बीच सरकार और पत्रकारों के बीच रिश्ते मजबूत करते की कवायद के तहत हल्की-फुल्की चर्चाएं होती और भविष्य में मुलाकातों का सिलसिला आगे बढ़ जाता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

रहीस सिंह को पत्रकारों से केवल इतना ही लेना-देना होता है, जितना एक ग्राहक का समोसे से। मूलत: कोचिंग सेंटर के शिक्षक हैं रहीस। कुछ अखबारों में अंतरराष्‍ट्रीय मसलों पर यदाकदा लेख जरूर छप जाता है। उन्‍हें पत्रकारिता के कोर-सेंटर का कोई खास अंदाज ही नहीं है। ऐसी हालत में रहीस सिंह को लेकर पत्रकारों की बिरादरी काफी असहज रहती है। लेकिन इसके बावजूद रहीस सिंह इस हालत का खासा लाभ उठा सकते थे। ऐसे काम जो बाकी सूचना सलाहकार नहीं कर रहे हैं, उसे वे लपक कर थाम सकते थे और इस तरह पत्रकार-बिरादरी में अपनी पैठ जैसा छपाका-गोता लगा सकते थे। लेकिन रहीस ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। ऐसी हालत में पत्रकारों से रहीस की दूरी लगातार औपचारिक की सीमाओं से भी पार ही जाती रही है।

कम से कम मृत्युंजय कुमार और शलभ मणि त्रिपाठी तो पत्रकारिता के बड़े दिग्गजों में से रहे हैं। एक अखबार तो दूसरा न्यूज़ चैनल में अपनी धाक जमा चुका है। लेकिन इन दोनों ने भी इस बारे में एक बार बार भी कोशिश नहीं की है। बेहतर तो यह होता कि वे मान्‍यता कार्ड जैसे वितरण को लेकर अफसरों की उदासीनता और अराजक व्यवस्था पर हस्तक्षेप करते और लगातार नकारात्मक माहौल को अपने पक्ष में सार्थक बनाने की कोशिश करते।
सूचना विभाग के अधिकारी केवल उन मामलों में ही आगे बढ़-चढ़कर पहल करते हैं जिसमें उनके हित छुपे होते हैं। मसलन विज्ञापन का मामला हो, विज्ञापन भुगतान का मामला हो, या फिर सरकुलेशन चेक करने का मामला हो, या फिर दूसरा कमाऊ धंधा। मान्‍यताप्राप्‍त पत्रकारों के कार्ड वितरण जैसे थैंकलेस जॉब को वे अपने अधीनस्थ बाबू के माथे पर छोड़ देते हैं। आप याद कीजिए कि पिछले योगी सरकार में दीपावली के मौके पर किन-किन पत्रकारों के घर मिठाई और उपहार पहुंचाए गए। जानकार बताते हैं कि ऐसे पत्रकारों की ताजा 20 फ़ीसदी भी नहीं रही है, जहां सूचना विभाग के अफसरों ने 20 फीसदी से ज्‍यादा पत्रकारों के घर ऐसे तोहफे सौंपे। जबकि ऐसे भारी-भरकम उपहार की अच्‍छी-खासी रकम सूचना विभाग के खजाने से वसूल कर लेते हैं विभाग के अफसर। जाहिर है कि इसके बाद 80 लोगों पर खर्च हुए इस खजाने के अमानत में खयानत की सेंध क्‍यों लगायी गयी। जाहिर है कि यह सारा कुछ केवल कागजों पर ही होता है।
ऐसी हालत में इन सूचना सलाहकारों की बड़ी जिम्मेदारी हो जाती थी कि वह इस पूरे मामले में हस्तक्षेप करते, और पूरे सम्मान के साथ या मान्यता कार्ड उन पत्रकारों के हाथों में सौंप कर अपने रिश्ते मजबूत करते। लेकिन असल सवाल तो यही है कि वह आखिर ऐसा क्यों करते यह सूचना सलाहकार, जबकि उनका धंधा ही दीगर एजेंडा से गवर्न होता है। (क्रमश:)

सूचना विभाग में पत्रकारों के मान्‍यता कार्ड को लेकर शुरू हुए बवाल की पूरी रिपोर्ट का अगला अंक देखने के लिए कृपया सूचना सलाहकार पर क्लिक कीजिए।

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