कबाब-ए-सींख की मानिंद मैं करवट बदलता हूं
जो जल जाता है ये पहलू तो वो पहलू बदलता हूं।
बीस साल पहले यूपी के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी केके उपाध्याय ने यह शेर सुनाया था। तब वे लखनऊ विकास प्राधिकरण में सचिव के पद पर थे। आज वे इस द़श्यमान संसार में नहीं हैं, लेकिन उन्होने जो अनमोल लाइनें सुनाईं वे आज भी कितनी मौजू हैं। खासकर भारतीय महिलाओं के संदर्भ में जहां कभी उन्हें तंदूर में भून डाला जाता है तो कभी वे फ्रिज में जमा दी जाती हैं। कुछ ऐसा ही बयान कर रही हैं वंदना अग्रवाल।
करीब पंद्रह साल पहले एक आदमी ने अपने प्यार को तंदूर में भून डाला था और पंद्रह साल बाद एक दूसरे आदमी ने अपने प्यार को बर्फ में जमा दिया। पंद्रह सालों में दुनिया बदल गई लेकिन नहीं बदला तो ‘मर्द’ और उसकी ‘मर्दानगी’। दुनिया में हम विकासशील से विकसित की दौड़ में पंहुच गए तो मर्द भी तंदूर से डीप-फ्रिजर तक पंहुच गया।
कहते हैं कि शिक्षा के साथ संपन्नता और सभ्यता में भी इजाफा होता है लेकिन लगता है कि दरिंदगी की रफ्तार इन सबसे कई गुना चलती है; तभी तो देहरादून की अनुपमा बहत्तर टुकड़ों में कटकर डीप फ्रिजर में पड़ी रही और उसके कथित तौर पर शिक्षित, सभ्य और संपन्न पति को सत्तावन दिनों में एक दिन भी आत्मग्लानि नहीं हुई। कहते हैं कि हिंदू या भारतीय शादियां किसी लाटरी की तरह होती हैं। शादी के बाद ही पता चलता है कि लाटरी लाख की हुई या खाक की। लेकिन साफ्टवेयर इंजीनियर राजेश गुलाटी ने तो उड़ीसा की अनुराधा को दिल की आवाज पर अपनी संगिनी बनाया था। दोनों ने लव मैरिज की थी और अमेरिका में रहने के बाद जब वह अपने वतन लौटे तो देहरादून में आकर बस गए। अनुराधा के जुड़वा बच्चे हुए जो उनके साथ ही रह रहे थे और अब चार साल के हैं। तब आखिर ऐसा क्या हुआ जिसने आदमी को दरिंदा बना दिया या यूं कहिए कि आदमी की खोल में छिपा दरिंदा यकायक बाहर आ गया। क्या मर्दानगी ही आदमी की दरिंदगी है या दरिंदगी में ही मर्दानगी का वास होता है या फिर औरत इस सृष्टि में इसी तरह के किसी हश्र के लिए जन्मी है।
आज से करीब पंद्रह साल पहले दो जुलाई 1995 को नैना साहनी तंदूर में मुर्गे की तरह भूनी गई थी। उसके राजनेता पति ने गोली मारकर उसे तंदूर में सेंक दिया था। नैना साहनी के दबंग पति सुशील शर्मा को शक था कि उसकी पत्नी के किसी दूसरे मर्द के साथ संबंध हैं। सुशील ने अपनी पायलट पत्नी की उड़ान बंद करने के लिए पहले उसे गोली मारी और फिर उसके टुकड़े कर उसे एक होटल के तंदूर में डालकर भूनना शुरु कर दिया ताकि कोई सुबूत ही न बचे, लेकिन वहां से गुजर रहे एक सिपाही की आत्मा तंदूर से उठती गंध ने जगा दी और वह थाने से पुलिस लेकर पहुंच गया। सुशील शर्मा तो मौके से फरार हो गया लेकिन होटल का मालिक केशव हत्थे चढ़ गया तो पता चला कि दिल्ली युवा कांग्रेस का कद्दावर नेता सुशील अपनी पत्नी के टुकड़ों को तंदूर में भून रहा था।
ठीक कुछ इसी तरह राजेश गुलाटी ने बीती 17 अक्टूबर को पहले अपनी पत्नी का वध किया और उसके बाद बाजार से डीप फ्रिजर लाकर उसमें जमा दिया। इसके बाद उसके शातिर दिमाग ने बाजार से पत्थर काटने का कटर और आरी लेकर उसके 72 टुकड़े किए और धीरे-धीरे एक-एक टुकड़े को वह मंसूरी की वादियों में फेंककर ठिकाने लगाता रहा। उसके बच्चे मां को याद करते तो वह उन्हें पुचकार कर चुप करा देता कि उनकी मां दिल्ली गई है, जल्दी आ जाएगी। यदि राजेश की ससुराल से फोन आता तो वह उन्हें भी कोई बहाना बनाकर टरका देता। बाहर का कोई आदमी राजेश पर दरिंदा होने का शक भी नहीं कर सकता था क्योंकि अमेरिका में नौकरी कर लौटा साफ्टवेयर इंजीनियर राजेश आज की सोसायटी के लिए एक आयकॉन भी था। सुशील को तो मौत की सजा सुना दी गई और हो सकता है कि दस-बीस साल में राजेश का भी वही हश्र हो, लेकिन सवाल उठता है कि समाज के उस वर्ग के लोग दरिंदंगी की सीमाएं क्यों पार कर रहे हैं, जिनको समाज एक बिंब की तरह देखता है; जिन से प्रभावित होता है और उनकी तरफ देखकर वैसा ही बनने की आकांक्षा पालता है।
ऐसा नहीं है कि नैना और अनुपमा दो ही उदाहरण हैं। ऐसी घटनाएं हमारे समाज में अलग-अलग जगहों पर आए दिन घटित होती हैं। इनमें से बहुत सी घटनाएं तो कभी अखबारों की सुर्खियां भी नहीं बनतीं। जेसिका लाल, प्रियदर्शन मट्टू या कुसुम बुद्धिराजा जैसे नाम तो मीडिया की सुर्खियों की वजह से जाने जाते हैं, वरना हमारा समाज आमतौर पर मर्द को माफ करने का ही हिमायती रहता है और बहुत सी अमानवीय दुराचार की कहानियां घर की चहारदीवारी से बाहर भी नहीं आ पातीं। अगर ऐसा न होता तो मुजफ्फरनगर की इमराना के बलात्कारी ससुर को गांव की पंचायत सिर्फ सात जूतों की सजा सुनाकर बरी न करती। यानी एक निरीह औरत की अस्मत गांव की पंचायत ने सिर्फ सात जूतों में ही निपटा दी, लेकिन इमराना को भी हम मीडिया के जरिए ही जानते हैं वरना न जाने कितनी इमरानाएं रोजाना इस तरह के अत्याचार सहती हैं।
समाज और पंचायतें ही नहीं अदालतों का रवैया भी इससे कहीं इतर नहीं है। 1977 में महाराष्ट्र की एक आदिवासी लड़की का थाने में ही बलात्कार हुआ था, तब भी आरोपी सिपाहियों को बरी करते हुए मथुरा नाम की उस आदिवासी लड़की को ही निचली अदालत ने बदचलन करार दिया था। इस फैसले पर भी खूब हंगामा हुआ और बाद में हाईकोर्ट ने दोनों बलात्कारी सिपाहियों को आजीवन कारावास की सजा दी, लेकिन एक बात साफ है कि औरत की आबरू मर्द के नजरिए में कोई अहमियत नहीं रखती। हर साल करीब पच्चीस हजार महिलाओं की इज्जत तार-तार होती है, इतनी ही अगवा की जाती हैं तो इससे तीस गुना या और भी अधिक घर पर ‘मर्दो’ के हाथों रोज पिटती हैं।
सवाल उठता है कि इसके लिए दोषी समाज है, गिरते नैतिक मूल्य हैं या अपसंस्कृति इसके लिए दोषी है? क्या हमारी लाचार कानून-व्यवस्था इन प्रवृतियों को निरंकुश करने में सहायता नहीं कर रही है? सच तो यही है कि आज हमारी कानून-व्यवस्था की हालत दिल दहला देने वाली है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, शिवानी भटनागर, मनू शर्मा, बीएमडब्लू कांड लगातार हमारे दिमाग में हथौड़े नहीं बजाते। नैना साहनी कांड में लाश को टुकड़ों में विभाजित कर तंदूर में भूना जाना क्या हमारे समाज के गर्त में जाने, उसके अधोपतन के उदाहरण नहीं है। या फिर एक पढ़े-लिखे विदेश में रहे एक साफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा अपनी पत्नी की हत्या कर पत्थर काटने की मशीन से उसके टुकड़े कर उसे डीप फ्रिज में रखना, आदमी के पत्थर हो जाने की कहानी नहीं तो और क्या है?
आदमी के दरिंदा होने की कहानियां हमारे समाज में लगातार क्यों बढ़ रहीं हैं; ये एक ऐसा यक्षप्रश्न है जिसका हल किसी युधिष्ठिर के पास ही हो सकता है, लेकिन अफसोस कि हमारा समाज आजकल दुशासन पैदा कर रहा है और उनके हाथ भी खून से रंगे हुए हैं जिनपर युगनिर्माण की जिम्मेदारी है। ऐसे में कहना मुश्किल है कि कब तक नैना तंदूर में और अनुपमा बर्फ में जमती रहेंगी…ये दो तो फिलहाल एक प्रतीक हैं वरना इस वेद में तो ऋचाएं बहुत हैं।
लेखिका वंदना अग्रवाल स्वतंत्र लेखन करती हैं. उनका यह लिखा यह लेख ब्लाग ईद-गिर्द से साभार लेकर प्रकाशित किया जा रहा है.