निर्लज्‍ज बहुरियों दूर रहो। मुझे आज सज्‍जनों से दक्षिणा मांगनी है

मेरा कोना

: खिचड़ी यानी मकर-संक्रांति को मैं बहुत व्यस्त रहूँगा : ओमप्रकाश राजभर, रविदास मेहरोत्रा, नवनीत सिकेरा, राकेश शंकर, गोरखपुर मेडिकल के प्रचार्य। अरे कहीं कोई कमी नहीं है यूपी में निर्लज्‍ज लोगों की : ढेर-सारे काम करने हैं ना, इसीलिए :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मकर संक्रांति। भइया, मुझे आज-कल बहुत काम करने हैं। इस दिन लोगों से दान लेना है। दक्षिणा की रकम गिनना, सलीके से सहेजना, सुरक्षित रखना, मिक्स्ड खिचड़ी को बटोरना, नमक के ढेले, तिल और रामदाना के लड्डुओं को यथास्थान रखना ही एक काम होता तो भी गनीमत होती। भिन्न-भिन्न स्त्री-पुरुषों को यथोचित आशीर्वाद देना सहज नहीं होता है। कायर और वीर्यहीन पुरुषों को बहादुरी सिखाने का आशीर्वाद देना पड़ता है। कहना पड़ता है कि जाओ, तुम्हारे नाती-पोते खुश रहें। नाक-कटी और निर्लज्ज को सुशील बहुरिया और गृह-लक्ष्मी करार देना पड़ता है।

नकटे या निर्लज्‍ज बहुरिया। तुम नकटी निर्लज्‍ज बहुरिया नहीं जानते हो। अरे वही जैसे विकलांग विकास मंत्री ओमप्रकाश राजभर जैसे मंत्री, जिन पर उनके विभाग और विश्‍वविद्यालय में चर्चाएं चल रही हैं कि वहां बीसियों करोड़ की उगाही के लिए भर्तियों का धंधा बुना जा रहा है। जैसे उन्‍होंने गाजीपुर के डीएम पर गोबर के छोत-पर-छोत फेंके थे और अपने चेहरे की कालिख को लखनऊ की पुलिस के चेहरे पर कालिख पोतना शुरू किया था। इस मंत्री ने डीएम पर यह कुत्सित अभियान इस लिए छेड़ा, क्‍योंकि उसने राजभर की पार्टी के नेता द्वारा किये गये सार्वजनिक अतिक्रमण के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था।

जैसे नवनीत सिकेरा जैसे पुलिस महानिरीक्षक लोग, जो चिल्‍ल-पों तो खूब करते हैं, लेकिन कामधाम धेला भर नहीं। लाखों शिकायतों की बात तो करते हैं, लेकिन एक भी महिला का सम्‍मान नहीं बचा सकते। जैसे राकेश शंकर जैसे बड़े दारोगा टाइप पुलिसवाले, जो धेला भर काम नहीं करते, बल्कि साजिशों की दूकान सजाये बैठे रहते हैं। कुछ नहीं मिला तो पत्रकारों की खोपड़ी तोड़ दी। अरे जैसे बीआरडी मेडिकल कालेज के डॉक्‍टर, जिनके चलते दर्जनों नन्‍हें-मुन्‍ने बच्‍चे बेमौत मारे गये थे। जैसे पूर्व मंत्री रविदास मेहरोत्रा जैसे सपाई जो अभी तीस लाख रूपयों की पुरानी करेंसी के मामले में दबोचे गये। न जाने क्‍या खेल था रविदास का, और क्‍या करते वह पुरानी करेंसी का, आज तक किसी को पता नहीं चल पाया है। हां, अब वे आयकर विभाग में चक्‍कर काटते दीख रहे हैं।

अरे क्या किया जाए। जो जैसा है, वो वैसा नहीं दिखना चाहता है और जो जैसा नहीं होता है वैसा ही बनना चाहता है। धर्मनिरपेक्ष लोगों को धर्म-व्याख्या की घुट्टी सीखना है। पापी को निष्पाप दिखना है। लुच्चे को चाहिए कि वो धवल चरित्र दिखे। बेईमान चाहता है कि समाज में वो ईमानदारी का झंडाबरदारी करता दिखे। कमीने को नेकनीयती सिखाना पड़ता है। जातिवादी लोग चाहते हैं कि मैं उन्हें खुद को जाति से ऊपर उठने का पाखण्ड सिखाऊं। जनता की रैली में झूठे सपने दिखाएं बसपाई-सपाई, और शंख बजाऊं मैं।

और यह सारा जिम्मा लोग-बाग़ मुझ एक अकेला गरीब ब्राह्मण से ही अपेक्षा रखते हैं।

खुद तो सालोंसाल मुझ पर अपना बलगम थूकते-गरियाते रहते हो। कभी मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज कराते हो, कभी प्रलाप करते हो। कभी गालियां, तो कभी निंदा। लेकिन जब तुम्‍हारी चिरी-फटी की जयजयकार होने लगती है, तो तुम मेरे पास पूंछ पेट में दबोचे भाग कर पहुंच जाते हो। आवाज कूं-कूं की सी। तो, सच बात तो यही है कि ऐसी बदहाली से लाख बेहतर है कि मैं अपना भिक्षा-पात्र खींच कर तुम्हारे चेहरे पर दे मारूं।

तो अब तुम भाड़ में जाओ। मैं हमेशा की ही तरह अपने दोस्तों के साथ फेसबुक वाल वाली मुंडेर पर ही गुटर-गूं करता रहूँगा।

कैसा आइडिया है दोस्तों ?

अगर यह तरीका तुम्‍हें पसंद आया हो तो, तो कम से कम इस एक दिन तो मेरे रीते-रिक्‍त भिक्षा-पात्र में दान-दक्षिणा डाल दो।

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