: विपरीत ध्रुवों का सम्मेलन अचरज नहीं, वैचारिक-व्यावहारिक है : एक धुर दक्षिणपंथी संघी-भाजपाई। दूसरा साम्यवादी, सौम्यतावादी, सौहार्द्रवादी : कांतिशिखा और देवानंद भले ही वैचारिक रूप से प्रतिकूल ध्रुव पर हों, पर इस बैठकी ने कटुता धो डाली :
कुमार सौवीर
लखनऊ : एक साथ ऐसी शिष्य पर आ गई जो अलग-अलग ध्रुरी पर अपनी पालथी मारा करते हैं। एक धुर दक्षिणपंथी, जिनकी धारा कट्टर संघी-भाजपा के साथ है जबकि दूसरी ध्रुव साम्यवादी सोच रखती हैं। यानी सामाजिक एकता और परस्पर समग्र विकास। कांतिशिखा उत्तरी ग्रुप पर हैं जबकि देवानंद उपाध्याय हैं दक्षिणी ध्रुव पर। इन दोनों का मिल पाना असंभव होता है, लेकिन हमारे घर यानी मौजाश्रय अर्थात मस्ती के अड्डे पर यह दोनों ही ध्रुव एकसाथ आ गए। विचारधारा के स्तर पर तो शायद बिल्कुल नहीं, लेकिन फोटो खिंचवाने में दोनों का अंदाज वाकई बेहतरीन था। ठहाके लगाने में भी। साथ में थी कांतिशिखा की बेटी एमन।
आप देखिए तनिक इस दक्षिणी ग्रुप पर लट्टू की तरह नाच रहे इस व्यक्ति को। नाम है देवानंद उपाध्याय। इस व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि उसके परिवार में अजब पंचवटी परिपाटी दीखती है। आजमगढ़, सुल्तानपुर, अंबेडकरपुर और जौनपुर के शाहगंज की सीमा पर बसे एक छोटे से गांव में रहता है यह परिवार। घर में तीन बेटियां, पत्नी और पति। इस घर में मेरा ओहदा पिता-तुल्य काका यानी चाचा की है। यहां की परंपरा ऐसी कि घर से कोई भी बाहरी अगर आए, तो समयानुसार जलपान अथवा भोजन के बिना वापस नहीं जा सकता। अगर कोई भिक्षुक है तो सीधा-पिसान के साथ ही साथ कोई नगद दक्षिणा भी।
इतना ही नहीं, यहां केवल घरवालों के लिए ही ही भोजन नहीं बनता है1 बल्कि इतना बनता है कि गांव में आसपास घूम रही गाय और कुत्ते भी एक-आध रोटी जरूर पा जाएं। भोजन बनने के दो-ढाई घंटे के बाद बचा हुआ भोजन भी आश्रित जानवरों में वितरित कर दिया जाता है। यह इस परिवार का धर्म है, जिस कर्म का पालन पिछले कई पीढ़ियों से निर्बाद्ध चल रहा है। बात-बात पर ठहाका लगाना, गलतियों को खेल में तब्दील कर देना, तनाव को आनंद में तब्दील कर देना, नाराजगी को एक सहज कृत्य में मान लेना और ऐसी प्रति गतिविधि में जीवन खोजना अगर कोई सीखना चाहता है, तो उसका नाम है उपाध्याय-परिवार। प्रियंका यानी घर की मालकिन संभालती है पूरा परिवार, और गृह-स्वामी अपनी नौकरी हरदोई में संभालता है। साथ में गांव की खेती भी की देखभाल करना भी उनका अनिवार्य दायित्व है। गांव में किसी को कोई दिक्कत हो तो पूरा परिवार हमेशा हाजिर-नाजिर। बस, टोटा-टोटके और नौकरी पर बेहिसाब लापरवाही यहां खूब चलती है।
अब जरा शाहगंज से गरीब 500 किलोमीटर दूर मुरादाबाद शहर में बसे एक घर की ओर नजर डालिए। यहां रहती हैं कांतिशिखा। इस घर में धार्मिक स्वतंत्रता केवल नारा ही नहीं है बल्कि यहां सामुदायिक, पंथ, लैंगिक और परस्पर सौहार्द का भी गजब समन्वय है। एक बेटी है एमन। मालकिन हैं हिंदू, जो बाराबंकी की कुर्मी परिवार से हैं। जबकि घर के मालिक हैं मुस्लिम। पति का नाम है फुरकान। घर में है दर्जन से ज्यादा बिल्लियां और इन तीनों के ठहाके। तीनों ही दिलखुश। जिस कॉलोनी में है यह घर, उस का नाम है एकता विहार। करीब 300 परिवारों वाले इस कॉलोनी में अधिकांश मुसलमान ही हैं जबकि हिंदू परिवारों की संख्या बमुश्किल सात हैं। लेकिन वे सब कुछ इस तरीके से ही रहते हैं जैसे जहां धर्म का या संप्रदाय का कोई तनाव ही न हो।
तो असल किस्सा आपको सुना दूं। दरअसल, इस एकता विहार के पार्क में एक मोटा किशोर अपने मोटापे से परेशान था। वह अक्सर इधर दौड़ कर अपना चर्बी गलाया करता था। एक दिन कालोनी के ही एक लड़के ने उस बच्चे को समझाया और बताया कि वह जूडो-कराटे में ब्लैक बेल्ट होल्डर मास्टर है। और वह अगर चाहे तो उसके मोटापे पर काम कर सकता है। अगले दिन सुबह से ही इन दोनों में पार्क में डेरा डाल दिया। दूसरे दिन सुबह ही कांतिशिखा की निगाह उस पार्क पर पड़ी तो उसकी बांछें खिल गईं। दरअसल, वह अपनी इकलौती बेटी अमन को कुछ सक्रिय खेल में शामिल कराना करना चाहती थीं। एमन के लिए ही मैंने फुरकान और कांतिशिखा को प्रेरित किया था कि वे प्राइवेट स्कूलों में अपनी कमाई फूंकने के बजाय सेंट्रल स्कूल में भर्ती करायें। मैंने भी भरसक प्रयास किया, जो फलीभूत हो गया। लेकिन सेंट्रल स्कूल में तो बच्चों के लिए खेल-कूद सर्वोच्च होता है। यहां एमन के पास कोई साधन ही नहीं था। ऐसे में अपने ही पार्क में यह मौका उन्हें किसी तोहफे या त्योहार की तरह लगा।
फिर क्या था। कांति शिखा ने उस मास्टर से बातचीत की। बात फाइनल हो गयी। अगले दो दिन तक एमन पार्क में अपने सामान्य कपड़ों से ही जूडो और कराटे सीखने लगी। तीन दिन बाद ड्रेस पहन कर वह तितली बन गयी। यानी अब इस पार्क में 3 लोग शामिल हो गए। तब तक कॉलोनी में और लोगों को भी भनक लगी तो उन्होंने कांति शिखा से बातचीत की। एक के बाद एक होते हुए ट्रेनर समेत 35 खिलाड़ी पहुंचने लगे। इनमें 22 लड़कियां जबकि 12 लड़के। सब के सब बा-वर्दी। यह सारी बच्चियां केवल सिर्फ एकता विहार की नहीं थी बल्कि सब के सब मुस्लिम परिवार की थीं। ऐसे परिवार, जहां पहले बच्चियों का खुलेआम पार्क में खेल पर हस्तक्षेप करना नामुमकिन हुआ करता था। कहने की जरूरत नहीं इस समूह में इस तरह की पहल कर पाना और इसके लिए सभी मुस्लिम परिवारों को दिमागी तौर पर तैयार करना कोई आसान बात नहीं थी। लेकिन आज एकता विहार वाकई एकता का पर्याय बन गया है
21 मई यानी कोई पौन महीना पहले कांति शिखा अपनी बेटी के साथ अपने मायके बाराबंकी और लखनऊ आई थीं। क्योंकि उनकी बेटी की दांत में दिक्कत है, लाजवाब डॉक्टर विवेक सिंह भी मेरा पुत्रवत है और उनका क्लीनिक कपूरथला में ही है। चूंकि मैं पहले से ही टूटा-फूटा और लंगड़-बांगड़ हूं आजकल, इसलिए एमन के इलाज के बाद वह कुशल-क्षेम जानने मेरे घर आ गईं। अभी वे जबरदस्त दुर्घटना पर अपनी दुख व्यक्त कर ही रही थीं, कि अचानक हरदोई से जौनपुर जाते वक्त देवानंद उपाध्याय का फोन आया कि वह भी आ रहे हैं। मैंने कांति शिखा को बताया तो नहीं, लेकिन उनसे कहा जरूर कि वे अभी कुछ देर और बैठें। बावजूद इसके कि एमन मुझसे खूब खुली है, लेकिन कांतिशिखा को वापसी में काफी देर हो रही थी और उनको मुरादाबाद की ट्रेन पकड़ने के पहले अपने मायके को भी कुछ समय और देना जरूरी थी। लेकिन इसके बावजूद कांतिशिखा ने मेरा मान स्वीकार कर लिया।
कोई आधे घंटे बाद देवानंद पहुंचे तो दोनों एक-दूसरे को देखते ही स्तब्ध होने के साथ ही साथ वैचारिक रूप से नापसंद करते हुए व्यक्तिगत तौर पर खुश दिखे। फिर एक प्याली चाय हुआ, फिर हंसी-ठहाका और फोटो खिंचवाने के बाद दोनों सहज हो गये। उसके बाद एमन के साथ कांति शिखा का काफिला बरास्ता मायका होते हुए मुरादाबाद की ओर रवाना हो गया।
गजब ऐतिहासिक मुलाकात रहीं थीं
उसमें भी लंगड़ काका शब्द का उपयोग लाजवाब होने के साथ साथ चार चांद लगा दिया