: कुमार सौवीर का नाम ही नहीं था मुकदमे में, तो हवालात की सैर क्यों कराया ने : अधिकारी-गण न्याय-पीठ पर बैठ तो जाते हैं, लेकिन उसका धर्म आत्मसात करने का क्षमता ? : धर्म-च्युत को समझने के लिए धर्मशास्त्रों को खंगालियेगा :
कुमार सौवीर
लखनऊ : आप मैजिस्ट्रेट हैं। आपको न्याय के लिए यह कुर्सी दी गयी है। लेकिन दुख की बात तब होती है, जब आपको न्याय के अलावा बाकी काम करने होते हैं। रामपुर के सीजेएम की अदालत में यही सब तो हुआ। मैजिस्ट्रेट ने न तो वारंट पढ़ा, न अभियुक्त बनाये गये लोगों से पूछतांछ करने की कोशिश की। बस तड़-पड़ कलम को चील-बिलउव्वा बना कर पेशकार और पुलिसवालों को इशारा किया। जब चूंकि हाकिम हैं, इसलिए पुलिसवालों को भी आम आदमी को अर्दब में लेने का मौका मिल जाता है। और इसी अंधेरगर्दी में आम आदमी और न्याय का गला ही घोंट दिया जाता है।
17 जून-10 को रामपुर कोर्ट में इस लिए गया था ताकि पूरा मामला समझा जा सके और तदनुसार अपने रिपोर्टर को राहत दिलायी जा सके। बावजूद इसके कि यह काम मेरा नहीं था। मैं तो महुआ न्यूज का यूपी में ब्यूरो हेड था और लखनऊ से यूपी की खबरों पर नियंत्रण करता था। रामपुर के नगर पालिका पंचायत परिषद के अध्यक्ष सरदार जावेद खां ने एक मुकदमा कर दिया था। यह मुकदमा महुआ न्यूज पर प्रसारित किसी खबर को लेकर था। सरदार जावेद ने रामपुर के सीजेएम की अदालत में दायर इस मुकदमा पर कहा था कि रामपुर के रिपोर्टर ओमपाल सिंह राज ने कोई एक खबर जारी कर दी है, जिससे सरदार जावेद की प्रतिष्ठा का हनन हुआ है। जबकि ओमपाल सिंह का कहना था कि उसने जो भी खबर दी थी, वह सरदार जावेद ने ही अपने मुंह से कही थी। कुछ भी हो, अपने इस्तेगासा में सरदार जावेद खान ने धारा 500 और 120 बी भादंसं लगायी थीं। सरदार जावेद रामपुर जिला बार एसोसियेशन के उपाध्यक्ष ही नहीं, बल्कि मुम्बई में कई फिल्मों के फाइनेंसर भी रह चुके हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उनका अंदाज सिर्फ फिल्मी अदाओं पर ही निर्भर था।
रिपोर्टर को बचाने गये कुमार सौवीर हवालात में बंद। धत्तेरी की अमर उजाला
अपने मुकदमे में सरदार जावेद खां ने तीन प्रतिवादी बनाये थे। एक तो प्रसारण इंचार्ज महुआ टीवी चैनल, एफसी, 14 फिल्म सिटी, नोएडा का नाम था। दूसरा नाम था हमारे रामपुर रिपोर्टर डॉ राज ओमपाल सिंह रामपुर प्रसारण प्रभारी, टीवी चैनल, महुआ, चमरव्वा, शाहजादनगर, पहाड़ी गेट, रामपुर का और तीसरा नाम था शुएब, लोकल केबिल टीवी इंचार्ज कार्यालय निकट विजय बैंक, थाना सिविल लाइंस, रामपुर का। साफ बात है कि मैं कुमार सौवीर का नाम इस मुकदमे में था ही नहीं। मैं लखनऊ से ही खबरों का नियंत्रण देखता था। और रामपुर जाने का मेरा मकसद अपने रिपोर्टर की फंसी टांग को निकालना ही था।
रामपुर मैं सुबह ही पहुंच गया और सबसे पहले सरदार जावेद खां के घर गया। यह एक सहज कर्टसी थी, शिष्टाचार भेंट। जावेद ने स्वागत किया। बातचीत मुकदमे पर होनी ही थी। मैंने सविनय इस मामले पर कह दिया कि जो भी हुआ, वह गलत हुआ। गलत-फहमी पर ही हुआ। लेकिन इसके बावजूद आप इस मुकदमे को जारी करना चाहते हैं, तो आपकी मर्जी। लेकिन हमारे चैनल और मेरी ओर से आपके प्रति कोई भी दुराशय नहीं है। हम हमेशा आपके साथ ही रहेंगे। सरदार जावेद ने चलते-चलते कहा कि जो कुछ भी हुआ वह एक राजनीतिक घटना थी, जो अब बीत गयी है। हम इस मुकदमे को वापस ले लेंगे।
अदालत परिसर में ओमपाल सिंह राज हमें एक वकील नजर अब्बास के तख्त पर ले गये। युवा वकील नजर अब्बास ने बताया कि वह रामपुर में जी-न्यूज टीवी के रिपोर्टर भी हैं। उन्होंने बताया कि अब चिंता की कोई जरूरत नहीं है। हम कुछ कागज तैयार कर लेंगे और उसके बाद सब कुछ निपट जाएगा। इसके बाद आपाधापी का माहौल बना। नजर अब्बास के साथ ही मैं और हम बाकी लोग भी सीजेएम की अदालत में पहुंचे। नजर अब्बास ने कुछ कागज मैजिस्ट्रेट को सौंपे। मैजिस्ट्रेट ने उस कागजों को देखा और फिर क्या। कुमार सौवीर और शुएब मियां अदालत में बने कठघरे में आनन-फानन भित्तर कर दिये गये। पुलिसवालों से भद्दी गालियां अलग से सुननी पड़ी।
उसके बाद का किस्सा तो आपको पहले ही बता चुका हूं कि बाद में फिर मुझे एक अदालती नोटिस मिली। न जाने कैसे और क्यों। मैं रामपुर फिर गया। वहां भी एक दूसरे मैजिस्ट्रेट ने मुझसे कुछ इस तरह व्यवहार किया, जैसे मैं नटवरलाल हूं। मेरे वकील से उसका कहना था कि आइंदा तुम्हारा अभियुक्त टाइम से नहीं आया, तो वह मुझे उल्टा टांग देगा।यह बहुत अभद्र, आपत्तिजनक व्यवहार था। खास कर तब, जब वह मैजिस्ट्रेट न्याय की कुर्सी पर बैठा था। हालांकि नजर अब्बास मुझे रोकते ही रह गये, लेकिन मैंने तत्काल इसका लिखित विरोध व्यक्त करते हुए साफ कहा कि इस मामले में वह तय करें कि मैं इस प्रकरण पर अभियुक्त हूं भी या नहीं। और अगर जब तक ऐसा नहीं होगा, मैं इस प्रकरण पर अदालत में नहीं जाऊंगा।
हैरत की बात है कि इस प्रकरण के बाद उस अदालत ने मेरे उस विरोध-पत्र पर कोई फैसला किया ही नहीं। हालांकि उस के बाद मैं रामपुर कई बार गया, लेकिन न तो अदालत का कोई वारंट आया और न ही मुझे कोई आदेश ही मिला। लेकिन मैंने एक सूचना प्राप्त करने का प्रारूप तो जमा कर ही दिया, कि मैजिस्ट्रेट ने मेरे निवेदनपत्र का कोई निस्तारण ही नहीं किया था।
लेकिन हैरत की बात है कि जिस ओमपाल सिंह राज की फंसी अंटी को निकालने और सुरक्षित लाने के लिए चार बार रामपुर गया, उस का नाम ही नजर अब्बास ने क्यों हटा दिया और क्यों यह जानते हुए भी कि मैं महुआ न्यूज चैनल में प्रसारण प्रमुख नहीं हूं, मुझे कठघरे में काहे फंसवा दिया। क्यों मैजिस्ट्रेट ने इस मुकदमे के प्रतिवादियों में मेरा नाम नहीं होने के बावजूद क्यों गिरफ्तार करने का आदेश जारी कर दिया।
आखिर क्यों।
वह सिर्फ यह, कि न्यायाधिकारी गण उच्च न्याय-पीठ पर बैठ तो जाते हैं, लेकिन उसका धर्म आत्मसात करने का क्षमता खो चुके होते हैं। या फिर इतना भी साहस और दायित्व-बोध उन पर नहीं होता है, जो पानी और दूध को अलग-अलग कर सकें। यानी आप या तो असमर्थ हैं, या फिर धर्म-च्युत। और धर्म-च्युत व्यक्ति किस प्राणी की तरह होता है, यह बताने की जरूरत नहीं होती है। इसे समझने के लिए धर्मशास्त्रों को खंगालियेगा मी-लॉर्ड।
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