तू वट-पूजक, मैं हूं रंडवा सनातनी। सजनी, अब आन मिलो

बिटिया खबर

: पर्व नहीं वट-सावित्री, इसे मेरा आनंद-अनुष्ठान में तब्दील कर दो न : मैं नहीं डरता मुच्छड भैंसा का कलूटा यमराज : मेरा क्या? मैं आज न सही कल, अथवा दो-चार साल में ही टें बोल दूंगा। कहो तो अभी प्राण त्याग दूँ। :
कुमार सौवीर
लखनऊ : मुझे इससे कोई लेनादेना नहीं है कि कभी कहीं कोई बांकी चितवन वाली मूँछ जैसी सींगों वाले भुजंग-काया वाले स्याह भैंसे पर चढ़ा कोई यमराज मुझे धरती से उठाने की योजना बनाएगा, फिर अट्ठहास करते हुए मेरे प्राण मुझसे खींच कर मुझे ऊपर (न जाने कहाँ) चित्रगुप्त नामक कायस्थ के पास जा पटकेगा।
अरे मेरे ठेंगे पर हैं यमराज और उनका मूँछ वाली सींग वाला समाजवादी भैंसा। बल्कि मैं तो थूकता हूँ मेरे प्राण हरने वाले परा-लौकिक व्यवस्था के अलंबरदारों पर, जो आते ही किसी व्यक्ति का अतीत ही हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर देते हैं। और बाकी लोगों को केवल स्मृतियों के मंझधार में धकेल देते हैं।
मैं तो सिर्फ इस बात पर चिंतित हूं कि वट-वृक्ष की रक्षा हो, ताकि धरा हरीभरी रहे, पर्यावरण सुरक्षित रहे और प्राणियों को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलता रहे। वरना दो-कौड़ी वाला यमराज और उनका मुँहझौंसा कलूटा भैंसा टाइम-बे-टाइम न धमका कर मुझे बेरंग लाद ले जाये, तो ले जाये। बाबा जी के घंटे पर।
और ऐसा न होने के लिए जरूरी है कि पति के प्रति समर्पित सुंदर-सुंदर स्त्रियां अपने पति के अखंड आयुष के लिए वट-वृक्ष का सम्मान करें, कथा सुनें, वृक्ष पर पवित्र धागा बांधें, चबूतरे पर दीपक जलाएं, प्रसाद बांटें। यानी टोटल टोटका। सम्पूर्ण मक्खनबाजी।
लेकिन यार ! मैं तो कम्प्लीट रंडवा हूँ, विधवा का पुरुष-भाव। अब तुम ही बताओ न कि अब मैं क्या करूँ?
तो, जो भी सौभाग्यशाली, सुंदर और टनाटन स्त्री मेरे जीवन को समृद्ध करने के लिए मेरे प्रति स्नेह, प्राण और समर्पण के भाव में मुझसे आबद्ध होना चाहे, उसका मेरे घर ससम्मान स्वागत है।

चाहे वह सीतारमन ही क्यों न हो, कम से कम झुट्ठी भी बोला करेगी, तो भी लार टपका कर। बीस लाख करोड़ में अपनी ओर से भी डेढ़ लाख करोड़ जोड़ गयी। और बिना किसी पुख्ता आंकड़े के ही बोली कि देश में आठ करोड़ प्रवासी हैं, उनको घर भेजना सरकार है दायित्व है। भले ही वह घर अल्लाह का घर ही क्यों न हो
मुरली मनोहर ने एक किस्सा मजेदार सुनाया। बोले कि हमारे गांव में रंढुओं की लिस्ट बनाई जाती थी, लेकिन देर सबेर बिल्लरा, भटकुआ, चिथड़ा, कनवा, टेड़िया सब निपट गए। लेकिन सिर्फ अंडुल रह गए। आज भी गांव के कक्का है रिपुसूदन!
यह निमंत्रण मैं इसलिए कर रहा हूँ ताकि कम से कम यह धरती तो धन-धान्य से परिपूर्ण हो सके।
धरा का होना ही अनिवार्य है।
मेरा क्या? मैं आज न सही कल, अथवा दो-चार साल में ही टें बोल दूंगा। कहो तो अभी प्राण त्याग दूँ।
बिल्लो रानी ! कहो तो अपनी जान दे दूं….

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