तुम बछिया हो, दान में जाओगी, दुहेगा तुम्हारा देवता

सैड सांग

: तुम्हीं मेरे मंदिर, पूजा, देवता हो, और तुम ही मेरी मौत का कारण भी : सेक्स गंदा काम है, और जब भगवान करेगा तो दिव्य होगा : स्वाति पाण्डे्य ने इसी पूजा-पाठ के चक्कर में दे डाली अपने शरीर की आहुति : पति को अपना सर्वस्व सौंपने के अनुष्ठान की तैयारी वाली कीमत चुकाती हैं पूर्वांचल की युवतियां : पति ही उसका परमेश्वर है, और स्त्री उसकी चेरी-गुलाम : आत्महत्या कर रही हैं आपकी-हमारी बेटियां- तीन :

कुमार सौवीर

लखनऊ : एक फिल्म‍ थी खानदान। सन 1965 में रिलीज हुई थी। इसमें एक गीत के बोल थे तुम्हीी मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो। यह गीत अपने दौर में तहलका मचा गयी। आज भी उसके बोल किसी को भी थिरका देते हैं। वजह यह कि इसमें बेइन्तिहा समर्पण है, अपनत्व है, सर्वस्व की पराकाष्ठा है और खुद को पति के अस्तित्व को विलीन कर देने की अदम्य लालसा और इच्छा है। एक ऐसा विलीनीकरण, जिसमें कोई भी महिला अपने आप को भूल जाए। अपने निजी-अलग अस्तित्व को ही नकार दे, कि लाख खोजने पर भी नहीं दिख पाये। वजह यह कि वह समर्पण की हर सीमा से परे जाना चाहती है।

जी हां, बस यही तो असल समस्या है। खास कर हमारे आज के समाज में। वह भी पूर्वांचल क्षेत्र में, चाहे वह यूपी का पूर्वांचल हो अथवा देश के पूर्वांचल का, जिसमें बिहार, झारखंड, और छत्तीमसगढ जैसे पिछड़े इलाके भी शामिल हैं। जी हां, इसमें मध्य प्रदेश का नाम भी इसी सूची में दर्ज कर लिया जाए तो तस्वीर मुकम्मिल बन जाएगी। तो, हमारे देश के नक्शे में यह जो उपरोक्त क्षेत्र आपको दिख रहे हैं, वह गरीबी और विकास की रेखा खासे नीचे हैं। न उन्हें हटाने की कोशिश की गयी और न ही उन्हें अपग्रेड करने की कवायद।

समाज-विज्ञानियों की राय है कि गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन और विकासहीनता का माहौल वहां के समाज को पीछे ज्यादा खींचता है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे माहौल में परस्पर भावनाओं का रेला और उसका प्रवाह कहीं ज्यादा मजबूत होता है, आक्रामक होता है। मकसद यह होता है कि खुद को एक-दूसरे के साथ जोड़े रखा जाए। यही वह मूल कारण है कि ऐसे हालातों में जीवन यापन करने वाले लोग दूसरों के मुकाबले कहीं ज्यादा भावुक, धार्मिक और आस्थावान बन जाते हैं। लेकिन जब इनका आमना-सामना विकास के चहुंव्यापी स्वार्थी दिशाओं से होता है, तो उनमें से सबसे ज्यादा भावुक तबका की हालत आत्महन्ता बन जाती है। क्यों कि उनकी अपेक्षाओं का केंद्र उनकी समर्पित भावनाएं होती हैं, जो महिलाओं में कूट-कूट कर भरी होती हैं, शरीर के दिल, दिमाग, सोच, भावनाओं और शारीरिक सेल्स-कोशिका और डीएनए तक धंसी रहती है।

इसे अब दूसरे कोने से देखने की कोशिश कीजिए। प्रोफेसर निधिबाला बताती हैं कि पूर्वांचल का समाज स्त्री को लेकर बेहद संवेदनशील होता है। और स्त्री उससे भी ज्यादा। बचपन से ही नहीं, बल्कि सदियों से लड़की को बताया-समझाया जाता है कि सेक्स बुरी-गंदी बात है, यह नहीं करना चाहिए। शरीर के प्रजनन अंग भी गंदे हैं। उसका जन्म केवल बच्चा जनने के लिए ही हुआ है। लेकिन यहीं यह भी कूट-कूट कर बताया जाता है कि लड़की का शरीर केवल उसी पुरूष को सौंपा जाना है, जिससे उसका विवाह होगा। न उससे पहले, और न उसके बाद। पति ही उसका परमेश्वर है, और स्त्री उसकी चेरी-गुलाम।

बहुत हुआ तो यह भी समझा दिया जाता है कि उसका शरीर एक पवित्र स्थान है, लेकिन उसका मालिक वह महिला नहीं, बल्कि उसका पति है। बाकी पुरूष उसके लिए या तो उसके पिता हैं, भाई हैं, अथवा लुच्चे-लफंगे, चोर-डकैत। यह यकीन दिला दिया जाता है कि वह या तो अपने मायके में सुरक्षित है या फिर अपने पति की छांव में। जब तक मायके में हो, बछिया हो। तुम्हें दान में दिया जाना है, इसलिए अपने शरीर और लज्जा, अस्मत, अस्तित्व्, शर्म, शील को सुरक्षित रखना तुम्हारा धर्म है। जब ससुराल जाओगी, तब गाय बन जाओगी। मायके के बाद तुम्हारी आस्था-समर्पण केवल तुम्हारे पति के प्रति ही होनी चाहिए। बाकी सब लोग लुटेरे हैं, तुम्हें लूट लेंगे। बस यही हालत युवतियों को बुरी तरह असुरक्षित बना डालती है। ऐसे में अगर उसकी आस्था कहीं भी डावांडोल हो जाती है तो फिर उसका अंजाम हो जाता है कि:- आत्महत्या। कारण यह कि तब उस युवती के पास उसके अलावा कोई भी विकल्प तक नहीं बच पाता है। क्योंकि मायके में से ही उसमें न तो सोच-समझ विकसित की जाती है और न संघर्ष का माद्दा।

स्वाति पाण्डेय के साथ भी तो यही हुआ। उसने अपनी मेधा और क्षमता से अपने लक्ष्य तो हासिल कर लिया, बीएचयू में प्रोफेसरी हासिल कर लिया, लेकिन अपने दाम्‍पत्‍—स्वप्नों से जुड़े जीवन-संघर्ष में बुरी तरह हार गयी।

नतीजा, उसने आत्महत्या कर ली।(क्रमश:)

यह लेख श्रंखला है। सिलसिलेवार चलेगी।

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