: वैभव ने जो नयी डगर बनायी है, काश सुलखान सिंह उस दिशा में सोच भी सकते : पुलिस को संवेदनशील बनाने की जो शुरूआत वैभव ने की है, राकेश शंकर उसका पासंग भी नहीं : पत्रकारों-वकीलों पर निर्मम लाठीचार्ज और अनाथ बच्चियों को निपटाने की साजिश बुनते हैं राकेश शंकर जैसे लोग :
कुमार सौवीर
लखनऊ : कहां पवित्र केला, और कहां बेर अथवा बबूल की झाड़। एक को घर के दरवाजे, आंगन, दालान, कुएं की जगत, मंदिर अथवा घर के पवित्र स्थान पर लगाया जाता है, जबकि दूसरे को गांव की आबादी से दूर। गांव अथवा किसी घर में, या फिर घर के आसपास वह अपने-आप जम भी जाए, तो देखते ही उसे उखाड़ कर या तो नष्ट कर देते हैं, या फिर कहीं विस्थापित कर देते हैं। कारण यह कि एक का स्थान और उसकी उपयोगिता पवित्रतम मानी जाती है, जबकि बेर अथवा बबूल को विपत्तिजनक माना जाता है। एक को पद-त्राण अर्थात जूते दूर हटा कर ही छुआ जाता है, जबकि जूते के पास आते ही जूतों की सख्त जरूरत महसूस हो जाती है, स्वत: और स्फूर्तिजनक भी।
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इटावा में एक मासूम बच्चे के साथ जो व्यवहार वहां की पुलिस और वहां के बड़ा दारोगा ने किया है, वे बेमिसाल है। ऐसा नहीं है कि ऐसा नहीं है कि ऐसी घटनाएं पुलिस महकमें में इससे पहले नहीं हो पायी हैं। लेकिन सच बात तो यह है कि जिस तरह इटावा के बच्चे के साथ वहां की पुलिस ने अपनी भूमिका पूरे समाज में एक घनिष्ठ और निहायत आत्मीय, संवेदनशील और उत्तरदायित्व अभिभावक के तौर पर पेश की है, वह वाकई बेमिसाल है।
सच बात तो यह है कि जिस तरह से इटावा के एक मासूम बच्चे की आंसू को पोंछने के लिए केवल सिर्फ अपना रूमाल ही नहीं दिया, बल्कि उस बच्चे के साथ ही साथ उसके अभिभावक, समाज के अभिाावकों और पुलिसवालों के साथ ही पूरे समाज को भी यह एक सशक्त संदेश दे दिया, कि किसी भी समाधान के लिए क्रूरता का भाव पाप-कर्म साबित होगा। किसी भी समस्या की उपेक्षा कर अपने जीवन-ध्येय को दूषित कर देते हैं। जबकि भावुकता और संवेदनशीलता के बल पर कोई भी पुलिसवाला ऐसे ऐसे प्रतिमान स्थापित कर सकता है, जो स्वर्णिम अक्षरों में अपना डंका तक बजवा सके।
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तो हमारे सामने पुलिस के दो चरित्र स्पष्ट तौर पर मौजूद हैं। एक तो हैं इटावा का बड़ा दारोगा यानी एसएसपी वैभव कृष्ण, जो अपनी बड़ा दारोगाई के बजाय खुद को अपने जिले के पुलिस महकमे का सर्वोच्च अधिकारी होने का अर्थ खोजने में जुटा है। उसकी कोशिशें जन सामान्य में सुरक्षा का माहौल मुहैया करने जैसी कवायदें हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ वह एक अबोध बच्चे के आंसू पोंछने का दायित्व पूरी निष्ठा और प्राथमिकता के तौर पर अपनाता है।
जबकि दूसरी ओर है देवरिया का बड़ा दारोगा राकेश शंकर, जिसका जीवन-लक्ष्य और आनंद की अनुभूति ही दूसरों के प्रति हिंसा और आतंक का भाव जागृत रखने के माध्यम से ही मुमकिन है। अपनी टोपी को आतंक के पर्याय के तौर पर बदल डालने में राकेश शंकर बेमिसाल हैं।
सैडिस्ट प्लेजर, यानी दूसरों के दुख में अपना अट्ठहास खोजने की पाशविक प्रवृत्ति। अपने लखनऊ के महानगर में दो अनाथ पड़ोसी बच्चियों के प्रति भयावह आतंक और प्रताड़ना की जो कुत्सित साजिशें राकेश शंकर ने रचीं, वे किसी भी सभ्य समाज के चेहरे पर एक निहायत बदनुमा कालिख से ज्यादा क्रूर ही मानी जाएगी। निकाय चुनाव की मतगणना के दौरान जिस तरह से राकेश शंकर के नेतृत्व वाली पुलिस ने निरीह पत्रकारों और वकीलों को दौड़ा-दौड़ा कर लाठियों से पीटा, उससे जनरल डायर तक शर्मिंदा हो सकता है।
उस मामले में राकेश शंकर ने पूरे मामले की लीलापोती की, लेकिन आईजी ने खबर पाते ही मौका पहुंच कर कोतवाल को निलंबित किया और सीओ का तबादला कर संदेश दे दिया कि देवरिया की पुलिस इस मामले में वाकई गलत थी। (क्रमश:)
देवरिया में पत्रकारों पर बर्बर लाठीचार्ज कराने वाली पुलिस के वर्तमान पुलिस अधीक्षक राकेश शंकर से जुड़ी खबरों को देखने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक कीजिए:- राकेश शंकर
यह घटना केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इसमें पुलिसवालों ने सिर्फ उस बच्चे को संतुष्ट किया। बल्कि यह घटना इस लिए महान बन गयी है, क्योंकि पुलिसवालों ने इस बच्चे की निजी समस्या को सामाजिक समस्या की तरह देखा, और उसका सामूहिक तौर पर समाधान खोजने की कोशिश की है।
इस मामले में हम इटावा के बड़ा दारोगा को सैल्यूट करते हैं। इसके साथ ही साथ इस पूरे मसले को बाल एवं मनो-सामाजिक मसले के तौर पर उसका विश्लेषण करने की कोशिश करने जा रहे हैं। यह श्रंखलाबद्ध आलेख तैयार किया है हमने।
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