सूखी तारीफ का हम क्‍या करें, पत्रकार को भी भूख सताती है

दोलत्ती

: सरकार की तो कार्यप्रणाली श्रमिक विरोधी ही लगती है क्योंकि ऐसे समय मदद कि बजाय उसने श्रम कानूनों में संशोधन के नामपर उसे दमनकारी बना दिया :
सुधीर गोकर्णकर
वाराणसी : इस महामारी में भी अपने साथी पत्रकार लोगों तक सही व महत्वपूर्ण समाचार पहुंचाने के लिए दिन – रात मेहनत कर रहे हैं लेकिन इस बिरादरी ने अपने को समाज में इतना aristocrate बनाकर रख दिया है कि इनकी तकलीफ किसी को दिखाई ही नहीं देती।

अन्य तबके के लोगों ने अपने साथियों की मदद के लिए जिस सदाशयता के साथ दान दिया है, वह काबिल – ए – तारीफ है लेकिन पत्रकारों के लिए न तो उनके संस्थानों, सामाजिक संस्थाओं और न ही प्रदेश व केंद्र सरकार ने किसी प्रकार की मदद की है। केवल शाबासी से पेट नहीं भरता, भूख को शांत करने के लिए अनाज की जरूरत इनको भी है। इसलिए समाज के तथाकथित संभ्रांत लोगों, स्वंयसेवी संस्थाओं के साथ ही सरकार को भी इनके बारे में दरियादिली दिखानी चाहिए, आखिर यह भी उसी समाज के अंग हैं।
सरकार की तो कार्यप्रणाली श्रमिक विरोधी ही लगती है क्योंकि ऐसे समय मदद कि बजाय उसने श्रम कानूनों में संशोधन के नामपर उसे दमनकारी ही बना दिया। केवल पूंजीपतियों से सरकार और देश नहीं चलता। कल – कारखानों को चलाने के लिए श्रमिक का होना जरूरी है और हर चुनाव में यही तबका आपको वोट देने के साथ ही आप सबकी रैलियों में भीड़ के रूप में दिखने के साथ ही प्रचार में भी सक्रिय भागीदारी निभाता है तथा यही पत्रकार आपके गुणगान प्रकाशित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता।
शर्म आए तो इस तबके की बेहतरी के बारे में भी विचार करें अन्यथा समय सबको उसकी हठधर्मी का दुष्परिणाम महसूस कराता ही है।

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